व्यञ्जन वर्णों के चवर्ग का चतुर्थ अक्षर। कामधेनुतन्त्र में इसके स्वरूप का निम्नांकित वर्णन है :
झकारं परमेशानि कुण्डली मोक्षरूपिणी, रक्तविद्युल्लताकारं सदा त्रिगुणसंयुतम्।। पञ्चदेवमयं वर्णं पञ्च प्राणात्मकं सदा। त्रिबिन्दुसहितं वर्णं त्रिशक्तिसहितं तथा।। वर्णोद्धारतन्त्र में इसके अनेक नाम बतलाये गये हैं :
झो झङ्कारी गुहो झञ्झावायुः सत्यः षडुन्नतः। अजेशो द्राविणी नादः पाशी जिह्वा जलं स्थितिः।। विराजेन्द्रो धनुर्हस्तः कर्कशो नादजः कुजः। दीर्घबाहुबलो रूपमाकन्दितः सुचक्षणः।। दुर्मुखो नष्ट आत्मवान् विकटा कुचमण्डलः। कलहंसप्रिया वामा अङ्गुलीमध्यपर्वकः।। दक्षहासादृहासश्च पाथात्मा व्यञ्जनः स्वरः।। इसके ध्यान की विधि निम्नांकित है:
कामदेव का एक विरुद। इसका अर्थ है 'झष (मकर अथवा मत्स्य) केतन (ध्वजा) है जिसका'। मकर और मत्स्य दोनों ही काम के प्रतीक हैं।
झषाङ्क
दे० 'झषकेतन'। इसका अर्थ भी कन्दर्प अथवा कामदेव है। हेमचन्द्र के अनुसार अनिरुद्ध का भी यह पर्याय है।
झूँसी (प्रतिष्ठानपुर)
प्रयोग से पूर्व गङ्गा के वाम तट पर यह एक तीर्थस्थल है। कहा जाता है कि यहाँ चन्द्रवंशी राजा पुरुरवा की राजधानी थी। वर्तमान झूँसी की बगल में त्रिवेणीसंगम के सामने पुराना दुर्ग है, जो अब कुछ टीला और गुफा मात्र रह गया है। वहीं 'समुद्रकूप' नामक कुआँ है, जो बड़ा पवित्र माना जाना है। हो सकता है कि इसका सम्बन्ध गुप्त सम्राट् समुद्रगुप्त से भी हो।