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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

ऊष्मवर्णों का चौथा तथा व्यञ्जनों का तैतीसवाँ अक्षर। इसका उच्चारण स्थान कण्ठ है। कामधेनु तन्त्र में इसका वर्णन और उपयोग बतलाया गया है :
हकारं श्रृणु चार्वङ्गि चतुवर्गप्रदायकम्। कुण्डलीद्वयसंयुक्तं रक्तिविद्युल्लतोपमम्।। रजःसत्त्वतमोयुक्तं पञ्चदेवमयं सदा। पञ्चप्राणात्मकं वर्णं त्रिशक्तिसहितं सदा।। त्रिविन्दुसहितं वर्णं हृदि भावय पार्वति।।
वर्णोद्धारतन्त्र में इसका लेखन प्रकार और तान्त्रिक उपयोग इस प्रकार बतलाया है :
ऊर्ध्वादांकुञ्चिता मध्ये कुण्डलीत्वं गता त्वधः। ऊर्ध्वं गता पुनः सैव तासु ब्रह्मादयः क्रमात्।। मात्रा च पार्वती ज्ञेया ध्यानमस्य प्रचक्ष्यते। करीष भृषिताङ्गी च साट्टहासां दिगम्बरीम्।। अस्थिमाल्यामष्टभुजां वरदामम्बुजेक्षणाम्। नागेन्द्रहारभूषाढ्यां जटामुकुटमण्डिताम्।। सव्वैसिद्धिप्रदां नित्यां धर्मकामार्थमोक्षदाम्। एवं ध्यात्वा हकारन्तु तन्मन्त्रं दशधा जपेत्।। वर्णाभिधान में इसके अनेक नाम गिनाये गये हैं : हः शिवो गगनं हंसो नागलोकोऽम्बिका पतिः। नकुलीशो जगत्प्राणः प्राणेशः कपिलामलः।। परमात्मात्मजो जीवो यवाकः शान्तिदोऽङ्गजः। श्रृंगो भयोऽरुणा स्थाणुः कूटकूपविरावणः।। लक्ष्मीर्मविहरः शम्भुः प्राणशक्तिर्ललाटजः। सृकोपवारणः शूली चैतन्यं पादपूरणः।। महालक्ष्मी परं शाम्भुः शाखीटः सोममण्डलः।
बीजवर्णाभिधान में ह के दूसरे तान्त्रिक नामों का उल्लेख है।
शुक्रश्चाथ हकारोंऽशः प्राणः सान्तः शिवो वियत्। अकुली नकुलीशश्च हंसः शून्यश्च हाकिनी।। अनन्तो नकुली जीवः परमात्मा ललाटजः।

हंस
साहित्य में नीर-क्षीर विवेक का और धर्म-दर्शन में परमात्म तत्त्व का प्रतीक पक्षी है : योग और तन्त्र में इस प्रतीक का बहुत उपयोग हुआ है। हंस का ध्यान इस प्रकार बतलाया गया है।
आराधयामि मणिसन्निभमात्यलिङ्ग, मायापुरीहृदयपङ्कजसन्निविष्टम्। श्रद्धानदीविमलचित्तजलावगाहं, नित्यंसमाधिकुसुमैरपुनर्भवाय।।
राघवभट्ट धृत दक्षिणामूर्ति संहिता (सप्तम पटल) में हंसज्ञान और हंस माहात्म्य का वर्णन निम्नांकित है।
अजपाधारणं देवि कथयामि तवानघे। यस्य विज्ञानमात्रेण परं ब्रह्मैव देशिकः।। हंसः पदं परेशानि प्रत्यहं प्रजपेन्नरः। मोहरन्धं न जानाति मोक्षस्तस्य न विद्यते।। श्रीगुरोः कृपया देवि ज्ञायते जप्यते यदा। उच्छ्वासनिश्वासतया तदा बन्धक्षयो भवेत्।। उच्छवासे चैव विश्वासे हंस इति अक्षरद्वयम्। तस्मात् प्राणस्तु हंसात्मा आत्माकारेण संस्थितः।। नाभेरुच्छ्वासनिश्वासात् हृदयाग्रे व्यवस्थितिः।

हंसव्रत
पुरुष सूक्त के मंत्रों का उच्चारण करते हुए स्नान करना चाहिए। उन्हीं से तर्पण तथा जप करना चाहिए। अष्टदल कमल के मध्य भाग में पुष्पादिक से भगवान् जनार्दन की, जिन्हें हंस भी कहा जाता है, पूजा करनी चाहिए। पूजन में ऋग्वेद के दशम मण्डल के 90 मंत्रों का उच्चारण किया जाय। पूजन के उपरान्त हवन विहित है। तदनन्तर एक गौ का दान करना चाहिए। एक वर्षपर्यन्त इस व्रत का अनुष्ठान विहित है। इससे व्रती की सम्पूर्ण मनःकामनाएँ पूर्ण होती हैं।

हत्या
हनन के लिए निषिद्धप्राणियों को मारना। सामान्य रूप से जीव मात्र के मारने को हत्या कहा जाता है। हत्या पातक है। ब्रह्महत्या (मनुष्य वध) की गणना महापातकों में की गयी है।
ब्रह्महत्या सुरापानं स्तेयं गुर्वङ्गनागमः।, महान्ति पातकान्याहुः संसर्गश्चापि तैः सह।।,
[ब्रह्म हत्या, सुरापान; स्तेय (चोरी), गुरु पत्नी से समागम---ये महापातक हैं और इनके करने वालों के साथ संसर्ग भी महापातक है।]

हनुमान्
वाल्मीकि रामायण के अनुसार एक वानर वीर। [वास्तव में वानर एक विशेष मानव जाति ही थी, जिसका धार्मिक लांछन (चिन्ह) वानर अथवा उसकी लाङ्गल थी। पुरा कथाओं में यही वानर (पशु) रूप में वर्णित है।] भगवान् राम को हनुमान् ऋष्यमूक पर्वत के पास मिले भक्त सिद्ध हुए। सीता का अन्वेषण करने के लिए ये लङ्का गए। राम के दौत्य का इन्होंने अद्भुत निर्वाह किया। राम-रावण युद्ध में भी इनका पराक्रम प्रसिद्ध है। रामावत वैष्णव धर्म के विकास के साथ हनुमान् का भी दैवीकरण हुआ। वे राम के पार्षद और पुनः पूज्य देव रूप में मान्य हो गये। धीरे धीरे हनुमत् अथवा मारुति पूजा का एक सम्प्रदाय ही बन गया है। 'हनुमत्कल्प' में इनके ध्यान और पूजा का विधान पाया जाता है।

हमुमज्जयन्ती
चैत्र शुक्ल पूर्णिमा को इस उत्सव का आयोजन किया जाता है।

हम्‍पी
दक्षिण भारत के प्राचीन विजयनगर राज्य की राजघानी, अब हम्पी कही जाती है। इसके मध्य में विरूपाक्ष मन्दिर है। इसे लोग हम्पीश्वर कहते हैं।

हयग्रीव
महाभारत के अनुसार मधु-कैटभ दैत्यों द्वारा हरण किए हुए वेदों का उद्धार करने के लिए विष्णु ने हयग्रीव अवतार धारण किया। इनके विग्रह का वर्णन इस प्रकार है :
सुनासिकेन कायेन भूत्वा चन्द्रप्रभस्तदा। कृत्वा हयशिरं शुभं वेदानामालयं प्रभुः।। तस्य मूर्द्धा समयवत् द्यौः सनक्षत्रतारका। केशास्चास्याभवद् दीर्घा रवेरंशुसमप्रभा।। कर्णावाकाशेपाताले ललाटं भूतधारिणी। गङ्गा सरस्वती श्रोण्‍यौ भ्रुवावास्तां महोदधी।। चक्षुषी सोमसूर्यौं ते नासा सन्ध्या पुनः स्मृता। प्रणवस्तस्य संस्कारों विद्युज्जिह्वा च निर्मिंता।। दन्ताश्च पितरो राजन् सोमपा इति विश्रुता। गोलोको ब्रह्मलोकश्च ओष्ठावास्तां महात्मनः।। ग्रीवा चास्याभवद्राजन् कालरात्रिर्गुणोत्तरा। एतद्हयशिरः कृत्वा नानामूर्तिभिरावृतम्।।
देवीभागवत (प्रथम स्कन्ध, पञ्चम अध्याय) में हयग्रीवक दूसरी कथा मिलती है। इसके अनुसार दैत्य का वध करने के लि ही विष्णु ने हयग्रीव का रूप धारण किया था। हेमचन्द्र ने इस कथा का समर्थन किया है। (विष्णुवध्य दैत्यविशेषः)। किन्तु एक दूसरी परम्परा के अनुसार जब कल्पान्त में ब्रह्मा सो रहे थे तब हयग्रीव नामक दैत्य ने वेद का हरण कर लिया। वेद का उद्धार करने के लिए विष्णु ने मत्स्यावतार धारण किया और उसका वध किया।
विद्या प्राप्ति के लिए वेदोद्धारक हयग्रीव भगवान् की उपासना विशेष चमत्कारकारिणी मानी गयी है।

हयपञ्चमी अथवा हयपूजाव्रत
चैत्र मास की पंचमी को इन्द्र का प्रसिद्ध अश्व, उच्चैःश्रवा समुद्र से आविर्भूत हुआ था। अतएव गन्धर्वों सहित (जैसे चित्ररथ, चित्रसेन जो वस्तुतः उच्चैःश्रवा के बन्धु-बान्धव ही हैं) उच्चैःश्रवा का संगीत, मिष्ठान्न, पोलिकाओं, दही, गुड़, दूध, चावल आदि से पूजन करना चाहिए। इसके फलस्वरूप शक्ति, दीर्घायु, स्वास्थ्य की प्राप्ति तथा युद्धों में सदा विजय होती है।

हर
शिव का एक नाम। इसका अर्थ है पापों तथा सांसारिक तापों का हरण करने वाला (हरित पापान् सांसारिकान् क्लेशाञ्च)।


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