स्वरवर्ण का चतुर्थ अक्षर। कामधेनुतन्त्र में इसका तान्त्रिक मूल्य निम्नांकित है :
ईकारं परमेशानि स्वयं परमकुण्डली। ब्रह्मविष्णुमयं वर्णं तथा रुद्रमयं सदा।। पञ्चदेवमयं वर्णं पीतविद्युल्लताकृतिम्। चतुर्ज्ञानमयं वर्णं पञ्चप्राणमयं सदा।। वर्णोद्धारतन्त्र में इसके नाम निम्नलिखित हैं :, ई स्त्रीमूर्तिर्महामाया लोलाक्षी वामलोचनम्। गोविन्दः शेखरः पुष्टिः सुभद्रा रत्नसंज्ञकः।। विष्णुर्लक्ष्मीः प्रहासश्च वाग्विशुद्धः परात्परः। कालोत्तरीयो भेरुण्डा रतिश्च पौण्डवर्द्धनः।। शिवोत्तमः शिवा तुष्टिश्चतुर्थी बिन्दुमालिनी। वैष्णवी वैन्दवी जिह्वा कामकला सनादका।। पावकः कोटरः कीर्तिर्मोहिनी कालकारिका। कुचद्वन्द्वं तर्ज्जनी च शान्तिस्त्रिपुरसुन्दरी।।
[हे देवी! ईकार ('ई' अक्षर) स्वयं परम कुण्डली है। यह वर्ण ब्रह्मा और विष्णुमय है। यह सदा रुद्रमय है। यह वर्ण पञ्चदेवमय है। पीली बिजली की रेखा के समान इसकी प्रकृति है। यह वर्ण चतुर्ज्ञानमय तथा सर्वदा पञ्चप्राणमय है।]
[अतिवृष्टि, अनावृष्टि, शलभ (टिड्डी) मूषक, पक्षी, प्रत्यासन्न (आक्रमणकारी) राजा ये छः प्रकार की ईतियाँ कही गयी हैं।]
ये बाहरी भय हैं, जबकि 'भीति' आन्तरिक भय है। महाभारत आदि ग्रन्थों में (और स्मृतियों में भी) इस बात का उल्लेख है। बाहरी भयों के लिए अधार्मिक राजा ही उत्तरदायी है। धार्मिक राज्य में ईतियाँ नहीं होतीं। 'निरातङ्का निरीतयः।' (रघुवंश, 1.63)।
ईश्वर
सर्वोच्च शक्तिमान्; सर्वसमर्थ; विश्वाधिष्ठाता; स्वामी; परमात्मा। वेदान्त की परिभाषा में विशुद्ध सत्त्वप्रधान, अज्ञानोपहित चैतन्य को ईश्वर कहते हैं। यह अन्तिम अथवा पर तत्त्व नहीं है; अपितु अपर अथवा सगुण ब्रह्म है। परम ब्रह्म तो निर्गुण तथा निष्क्रिय है। अपर ईश्वर सगुण रूप में सृष्टि का कर्ता और नियामक है, भक्तों और साधकों का ध्येय है। सगुण ब्रह्म ही पुरुष (पुरुषोत्तम) अथवा ईश्वर नाम से सृष्टि का कर्ता, धर्ता और संहर्ता के रूप से पूजित होता है। वही देवाधिदेव है और समस्त देवता उसी की विविध अभिव्यक्तियाँ हैं। संसार के सभी महत्त्वपूर्ण कार्य उसी नियन्त्रण में होते हैं। परन्तु जगत् में वह चाहे जिस रूप में दिखाई पड़े, अन्ततोगत्वा वह शुद्ध निष्कल ब्रह्म है। अपनी योगमाया से युक्त होकर ईश्वर विश्व पर शासन करता है और कर्मों के फल-पुरस्कार अथवा दण्ड का निर्णय करता है, यद्यपि कर्म अपना फल स्वयं उत्पन्न करते हैं।
न्याय-वैशेषिक दर्शन में ईश्वर सगुण है और सृष्टि का निमित्त कारण है। जैसे कुम्हार मिट्टी के लोंदे से मृदुभाण्ड तैयार करता है, वैसे ही ईश्वर प्रकृति का उपादान लेकर सृष्टि की रचना करता है। योगदर्शन में ईश्वर पुरुष है और मानव का आदि गुरु है। सांख्यदर्शन के अनुसार सृष्टि के विकास के लिए प्रकृति पर्याप्त है; विकास-प्रक्रिया में ईश्वर की कोई आवश्यकता नहीं। पूर्वमीमांसा भी कर्मफल के लिए ईश्वर की आवश्यकता नहीं मानती। उसके अनुसार वेद स्वयम्भू हैं; ईश्वरनिःश्वसित नहीं। आर्हत, बौद्ध और चार्वाक दर्शनों में ईश्वर की सत्ता स्वीकार नहीं की गयी है।
भक्त दार्शनिकों की मुख्यतः दो श्रेणियाँ हैं--1. द्वैतवादी आचार्य मध्व आदि ईश्वर का स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार करते हैं और उसकी उपासना में ही जीवन का साफल्य देखते हैं। 2. अद्वैतवादियों में ईश्वर को लेकर कई सूक्ष्म भेद हैं। रामानुज उसको गुणोपेत विशिष्ट अद्वैत मानते हैं। वल्लभाचार्य ईश्वर में अपूर्व शक्ति की कल्पना कर जगत् का उससे विकास होने पर भी उसे शुद्धाद्वैत ही मानते हैं। ऐसे ही भेदाभेद, अचिन्त्य भेदाभेद आदि कई मत हैं। दे० 'निम्बार्क' तथा 'चैतन्य'।
ईश्वरगणगौरीव्रत
चैत्र कृष्ण प्रतिपदा से चैत्र शुक्ल तृतीया तक लगातार 18 दिनों तक इस व्रत का अनुष्ठान किया जाता है। यह केवल सधवा स्त्रियों के लिए है। इसमें गौरी-शिव की पूजा होती है। मालव प्रदेश में यह बहुत प्रसिद्ध है।
ईश्वरव्रत
किसी मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। इसमें शिवजी की पूजा होती है। दे० हेमाद्रि, व्रतखण्ड, 2.148।
[शङ्करजी ने पार्वती के मङ्गलमय कंकण पहने हुए हाथ को अपने हाथ से सर्पों को ऊपर उठाकर ग्रहण किया।]
लक्ष्मी, सरस्वती आदि देवियों के लिए भी इस शब्द का प्रयोग होता है।
ईश्वराभिसन्धि
कवितार्किक श्रीहर्ष रचित अद्वैतमत का एक प्रसिद्ध ग्रन्थ।
ईश्वर कृष्ण
सांख्यकारिका' के रचियता। चीनी विद्वानों के अनुसार इनका अन्य नाम विन्ध्यवासी था और ये वसुबन्धु से कुछ समय पूर्व हुए थे। विद्वानों ने इनका समय चतुर्थ शताब्दी का प्रारम्भ माना। परम्परानुसार 'सांख्यकारिका' 'षटितन्त्र' का पुनर्लेखन है, जो ईश्वरवादी सांख्यों का प्रामाणिक ग्रन्थ है। सांख्यकारिका में कुल सत्तर आर्या पद्य (कारिकाएँ) हैं, जिनको रचना की दृष्टि से बहुत ही उत्तम कहा जा सकता है। मीमांसा के दुरूह वेदान्तसूत्र एवं जैमिनिसूत्र ग्रन्थों से भिन्न प्रसाद गुण की यह कृति पूर्णतया बोधगम्य है, किन्तु प्रारम्भिक ज्ञानार्थी के लिए अवश्य दुरूह है। दे० 'सांख्यकारिका'।
ईश्वरगीता
दक्षिणमार्गी शाक्त मत का एक प्रसिद्ध ग्रन्थ। इसके ऊपर भास्करानन्दनाथ ने, जिन्हें भास्कर राय भी कहते हैं और जो अठारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में तंजौर के राजपण्डित थे, सुन्दर टीका लिखी है।