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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

छठमाता
कार्तिक शुक्ल षष्ठी को 'छठमाता' कहते हैं और इस दिन सूर्य की पूजा होती है। आजकल सूर्यपूजा वैदिक काल की अपेक्षा कम महत्त्वपूर्ण रह गयी है। फिर भी सूर्यपूजा का प्रभाव है। उड़ीसा में पुरी के समीप कोणार्क तथा गया में सूर्यमन्दिर हैं। प्रत्येक रविवार को सूर्योपासक मांस, मछली नहीं खाते तथा इस दिन को अति पवित्र मानते हैं। कार्तिक मास के रविवार विहार एवं बंगाल में सूर्योपासना के लिए अति महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं।
सूर्यदेव के सम्मान में विहार में कार्तिक शुक्ल षष्ठी के दिन एक पर्व मनाया जाता है। उस दिन सूर्योपासक लोग व्रत करते हैं तथा अस्त होते हुए सूर्य को अर्घ्‍य देते हैं, पुनः दूसरे दिन प्रातः उदय होते हुए सूर्य को अर्घ्‍य देते हैं। यह कार्य किसी नदी के जल में या तालाब के जल में खड़े होकर स्नानोपरान्त करते हैं। श्वेत पुष्प, चन्दन, सुपारी, चावल, दूध, केला आदि भी सूर्य को चढ़ाते हैं। पुरोहित के बदले इस पूजा की क्रिया परिवार का सबसे बड़ा वृद्ध (विशेष कर बुढ़िया) करता है। कहीं-कहीं मुसलमान भी यह पूजा करते हैं।

छठी
गृह्यसूत्रों में षष्ठी एक शिशुघातिनी यक्षिणी मानी गयी है। इसको जन्म के छठे दिन तुष्ट करके विदा किया जाता है तथा शिशु के दीर्घायुष्य की कामना की जाती है।
अन्य शुभ रूप में शिशु के जन्म के छठे दिन की रात को माता षष्ठी या छठी माता की पूजा करती है तथा जौ के आटे के रोट व चावल चीनी के साथ पकाकर देवी को चढ़ाती है। यह प्रथा विशेष कर चमारों में पायी जाती है। दुसाध जाति में भी इस पूजा का महत्त्व है। वे भी छठी माँ की पूजा करते हैं। छठी की पूजा के पहले पूजा करने वाले उपवास से अपने को पवित्र करते हैं तथा गान करते हुए नदी के तट पर जाते हैं। वहाँ नदी में पूर्व दिशा की ओर मुख करके चलते रहते हैं जब तक सूर्योदय नहीं होता है। सूर्योदय के समय वे हाथ जोड़कर खड़े होते हैं तथा रोट व फल सूर्य को चढ़ाते तथा स्वयं उसे प्रसाद स्वरूप खाते हैं।

छत्र
देवताओं के अलङ्करण के लिये जो उपादान काम में लाये जाते हैं उनमें एक छत्र भी है। यह राजस्व अथवा अधिकार का द्योतक है। राजपदसूचक उपकरणों में भी छत्र प्रधान है जो राज्याभिषेक के समय से ही राजा के ऊपर लगाया जाता है। इसीलिए उसकी छत्रपति पदवी है। देवमूर्तियों के ऊपर प्रायः प्रभामण्डल और छत्र का अङ्कन होता है।
बौद्ध स्तूपों की हर्म्यिका के ऊपर भी छत्र अथवा छत्रावलि (कई छत्रों का समूह) पायी जाती है।

छन्द (वेदाङ्ग)
वेद के छः अङ्ग हैं-- शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष और छन्द। जैसे मनुष्य के अङ्ग आँख, कान, नाक, मुँह, हाथ और पाँव होते हैं, वैसे ही वेदों की आँख ज्योतिष हैं, कान निरुक्त हैं, नाक शिक्षा है, मुख व्याकरण हैं, हाथ कल्प हैं तथा पाँव छन्द हैं। शिक्षा और छन्द से ठीक-ठीक रीति से उच्चारण और पठन का ज्ञान होता है। इस प्रकार वैदिक साहित्य का छठा अङ्ग छन्द हैं। ऋग्वेद सम्पूर्ण पद्यमय है। सामवेद एवं अथर्ववेद भी पद्यमय ही हैं। केवल यजुर्वेद में पद्य और गद्य दोनों हैं। पद्य अथवा छन्दों की संख्या एवं प्रकार अगणित हैं।
छन्द का प्रधान प्रयोजन भाषा का लालित्य है। गद्य को सुनकर कान औऱ मन को वह तृप्ति नहीं होती जो पद्य को सुनकर होती है। पद्य याद भी जल्दी होते हैं और बहुत काल तक स्मरण रहते हैं। साथ ही वे गम्भीर से गम्भीर भाव संक्षेप में व्यक्त कर देते हैं। यह तो छन्दों का साधारण गुण हुआ, परन्तु वेदाध्ययन में छन्द का ज्ञान अनिवार्य है। छन्दों को जाने विना वेदाध्ययन पाप माना जाता है।
छन्दों को वेद का चरण बताया जाता है। जिन छन्दों का प्रयोग संहिताओं में हुआ है वे और किसी ग्रन्थ में नहीं पाये जाते। वेद के ब्राह्मण एवं आरण्यक खण्ड में वैदिक छन्दों के विषय में बहुत सी कथाएँ आयी हैं पर उनसे छन्द के विषय का विशेष ज्ञान नहीं होता। कात्यायन की 'सर्वानुक्रमणिका' में सात छन्दों का उल्लेख है : (1) गायत्री (2) उष्णिक् (3) अनुष्टुप् (4) बृहती (5) पंक्ति (6) त्रिष्टुप् और (7) जगती। गायत्री छन्द त्रिपदा अर्थात् तीन चरणों का होता है। इसी प्रकार 28 अक्षरों का उष्णिक् छन्द होता है। अनुष्टुप् में 32 अक्षर होते हैं। बृहती में 36, पंक्ति में 40, त्रिष्टिप् में 44 और जगती में 48 अक्षर होते हैं। जान पड़ता है, जगती से बड़े छन्द वैदिक काल में नहीं बनते थे। वेद का बहुत भारी मन्त्रभाग इन्हीं सात छन्दों में है और इनमें से सबसे अधिक गायत्री छन्द का व्यवहार हुआ है। कात्यायन ने इन सात छन्दों के अनेक भेद स्थिर किये हैं। उन सब भेदों को जानने के लिए कात्यायन की रची सर्वानुक्रमणिका देखनी चाहिए।
इन्हीं सात छन्दों को मूल मानकर व्यावहारिक भाषा में अनन्त छन्दों का निर्माण हुआ है। उत्तररामचरित में लिखा है कि पहले-पहल, आदिकवि वाल्मीकि के मुख से लौकिक अनुष्टुप् छन्द की रचना हुई थी। इसके कुछ ही दिन बाद आत्रेयी ने वनदेवता से बातों-बातों में इसकी चर्चा की। इस पर वनदेवता बोली, `क्या आश्चर्य की बात है! यह तो वेद से अतिरिक्त किसी नये छन्द का आविष्कार गया है।` इस कथा से जान पड़ता है कि भवभूति के अनुसार पहला लौकिक छन्द अनुष्टुप् है और पहले लौकिक कवि वाल्मीकि थे। वाल्मीकिरामायण में भी इस तरह की कथा दी हुई है। परन्तु वाल्मीकीय रामायण, बालकाण्ड, दूसरे सर्ग के 15वें श्लोक की टीका करते हुए रामानुज स्वामी यह प्रकट करते हैं कि लौकिक छन्दों का प्रयोग वाल्मीकि से पहले चल चुका था।
कात्यायन की सर्वानुक्रमणिका के बाद छन्दशास्त्र के सबसे प्राचीन निर्माता महर्षि पिङ्गल हुए। इन्होंने 1,61,66,216 प्रकार के वर्णवृत्तों का उल्लेख किया है। संस्कृत साहित्य में इस भारी संख्या में से लगभग 50 प्रकार के छन्द व्यवहार में आते हैं। अन्य लौकिक भाषाओं में संस्कृत की अपेक्षा बहुत प्रकार के छन्दों का व्यवहार हुआ है। परन्तु उनकी गिनती वेदाङ्ग में नहीं है।

छन्दस्
वेद अथवा वेदों के सूक्तों के पवित्र पाठ को छन्दस् कहते हैं। किन्हीं विद्वानों के मत में छन्दस् वेदों का प्राक्संहिता रूप था जो संकलित न होकर केवल गान में सुरक्षित था। परन्तु सामान्यतः सम्पूर्ण वेद को ही छन्दस् कहते हैं। वैदिक भाषा को भी छन्दस् कहा जाता था। बौद्धों ने इसके प्रयोग का विरोध किया। प्रारम्भिक बौद्ध साहित्य में कहा गया है कि जो छन्दस् का प्रयोग करेगा वह दुष्कृत (पाप) करेगा।

छन्दोग
सामवेद संहिता के मन्त्रों को गाने वाले छन्दोग कहलाते हैं। इन्हीं छन्दोगों के कर्मकाण्ड के लिए जो आठ ब्राह्मण ग्रन्थ व्यवहार में आते हैं वे छान्दोग्य कहे जाते हैं। ये सब आरण्यक ग्रन्थ 'छान्दोग्यारण्यक' नाम से प्रसिद्ध हैं।

छागमुख
स्वामी कार्तिकेय का एक पर्याय।

छागरथ (छागवाहन)
अग्नि का पर्याय। अग्नि की मूर्तियों के अङ्कन में छाग (बकरी या भेड़) उनका वाहन दिखाया जाता है।

छागहिंसा
यज्ञ में जो छागबलि होती थी उसको छागहिंसा कहते थे। वैष्णव प्रभाव के कारण छागहिंसा कैसे बन्द हुई इस सम्बन्ध में महाभारत और पुराणों में कई कथाएँ पायी जाती हैं। पाञ्चरात्र मत का प्रथम अनुयायी राजा वसु था। उसने जो यज्ञ किया उसमें पशुवध नहीं हुआ। ऋषियों ने देवों को अप्रसन्न जानकर छागहिंसा के सम्बन्ध में जब वसु से प्रश्न किया, तब उसने देवों के अनुकूल ही कहा कि छागबलि देनी चाहिए। इससे ऋषियों ने उसे शाप दिया और वह भूविवर में घुस गया। वहाँ उसने अनन्य भक्ति पूर्वक नारायण की सेवा की, जिससे वह मुक्त हुआ और नारायण की कृपा से ब्रह्मलोक को पहुँचा।

छान्दोग्य
दे० 'छन्दोग'।


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