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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

स्वरवर्ण का त्रयोदश अक्षर। कामधेनु तन्त्र में इसका धार्मिक माहात्म्य इस प्रकार है :
ओकारं चञ्चलापाङ्गि पञ्चदेवमयं सदा। रक्तविद्युल्लताकारं त्रिगुणात्मानमीश्वरम्।। पञ्चप्राणमयं वर्ण नमामि देवमातरम्। एतद् वर्ण महेशानि स्वयं परमकुण्डली।। तन्त्रशास्त्र में इसके निम्नांकित नाम हैं :
सद्योजातो वासुदेवो गायत्री दीर्घजङ्घकः। आप्यायनी चोर्ध्वदन्तो लक्ष्मीर्वाणी मुखी द्विजः।। उद्देश्यदर्शकस्तीव्रः कैलासो वसुधाक्षरः। प्रणवांशो ब्रह्मसूत्रमजेशः सर्वमङ्गला।। त्रयोदशी दीर्घनासा रतिनाथो दिगम्बरः। त्रैलोक्यविजया प्रज्ञा प्रीतिबीजादिकर्षिणी।।

ओम्
प्रणव, ओंकार; परमात्मा। यह नाम अकार, उकार तथा मकार तीन वर्णों से बना हुआ है। कहा भी है :
अकारो विष्णुरुद्दिष्ट उकारस्तु महेश्वरः। मकारेणोच्यते ब्रह्मा प्रणवेन त्रयो मताः।।
[अकार से विष्णु उकार से महेश्वर, मकार से ब्रह्मा का बोध होता है। इस प्रकार प्रणव से तीनों का बोध होता है।]
यथा पर्णं पलाशस्य शङ्कुनैकेन धार्य्यते। तथा जगदिदं सर्वमोंकारेणैव धार्य्यते।। (याज्ञवल्क्य)
[जैसे पलाश का पत्ता एक तिनके से उठाया जा सकता है, उसी प्रकार यह विश्व ओंकार से धारण किया जाता है।]
ओङ्कारश्चायशब्दश्च द्वावेतौ ब्रह्मणः पुरा। कण्ठं भित्त्वा विनिर्यातौ तस्मान् माङ्गलिकावुभौ।।
[ओंकार और अथ शब्द ये दोनों ब्रह्मा के कण्ठ को भेदन करके निकले हैं; इसीलिए इन्हें माङ्गलिक कहा गया है।]
तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपः क्रियाः। प्रवर्तन्ते विधानोक्ताः सततं ब्रह्मवादिनाम्।। (गीता, अ० 17)
[इसलिए 'ॐ' का उच्चारण करके ब्रह्मवादी लोग विधिपूर्वक निरन्तर यज्ञ, दान, तप की क्रिया आरम्भ करते हैं।]
ओम्' स्वीकार, अंगीकार, रोष अर्थों में भी प्रयुक्त होता है।
योगी लोग ओंकार का उच्चारण दीर्घतम घंटाध्वनि के समान बहुत लम्बा या अत्यन्त प्लुत स्वर से करते हैं, उसका नाम 'उद्गीथ' है। प्लुत के सूचनार्थ ही इसके बीच में '3' का अंक लिखा जाता है। इसकी गुप्त चौथी मात्रा का उच्चारण या चिन्तन ब्रह्मज्ञानी जन करते हैं।

ओङ्कारेश्वर
प्रसिद्ध शैव तीर्थ। द्वादश ज्योतिर्लिङ्गों में 'ओङ्कारेश्वर' की गणना है। यहाँ दो ज्योतिर्लिङ्ग हैं; ओङ्कारेश्वर और अमलेश्वर। नर्मदा नदी के बीच में मान्धाता द्वीप पर ओङ्कारेश्वर लिङ्ग है। यहीं पर सूर्यवंश के चक्रवर्ती राजा मान्धाता ने शङ्कर की तपस्या की थी। इस द्वीप का आकार प्रणव से मिलता जुलता है। विन्ध्य पर्वत की आराधना से प्रसन्न होकर भगवान् शिव यहाँ ओङ्कारेश्वर रूप में विराजमान हुए हैं।

ओगण
पश्चिमी पंडितों के विचार से ऋग्वेद (10.89.15) में यह शब्द केवल बहुवचन में उन व्यक्तियों के लिए प्रयुक्त हुआ है, जो वैदिक ऋषियों के शत्रु थे। लुङ्विग के अनुसार (ऋग्वेद, 5.209) यह शब्द एक व्यक्ति विशेष का बोधक है। पिशेल (वेदिके स्टुडिअन, पृ० 2, 191, 192) इसे एक विशेषण बतलाते हैं, जिसका अर्थ 'दुर्बल' है।

ओङ्कारवादार्थ
तृतीय श्रीनिवा (अठारहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में उत्पन्न) द्वारा रचित एक ग्रन्थ। इसमें विशिष्टाद्वैत मत का समर्थन किया गया है।

ओषधिप्रस्थ
ओषधि-वनस्पतियों से भरपूर पर्वतीय भूमि; ऐसे स्थान पर बसी हुई नगरी, जो हिमालय की राजधानी थी। इसका कुमारसम्भव में वर्णन है :
तत्प्रयातौषधिप्रस्थं सिद्धये हिमवत्पुरम्।
[कार्यसिद्धि के लिए हिमालय के ओषधिप्रस्थ नामक नगर को जाइए।]
उपासना और यौगिक क्रियाओं के लिए यह स्थान उपयुक्त माना गया है।


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