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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

ऊष्म वर्णों का द्वितीय अक्षर। कामधेनुतन्त्र में इसके स्वरूप का वर्णन निम्नांकित है :
षकारं श्रणु चांर्वाङ्गि अष्टकोणमयं सदा। रक्तचन्द्रप्रतीकाशं स्वयं परमकुण्डली।। चतुर्वर्गमयं वर्णं पञ्चप्राणमयं सदा। रजः सत्त्वतमोयुक्तं त्रिशक्तिसहितं सदा।। त्रिबिन्दुसहितं वर्णम् आत्मादितत्त्वसंयुतम्। सर्वदेवमयं वर्णं हृदि भावय पार्वति।।
तन्त्रशास्त्र में इसके बहुत से पर्याय बतलाये गये हैं :
षः श्वेतो वासुदेवश्च पीता प्राज्ञा विनायकः। परमेष्ठी वामबाहुः श्रेष्ठो गर्भविमोचनः।। लम्बोदरो यमौ लेशः कामधुक् कामधूमकः। सुश्री उश्ना वृषो लज्जा मरुद्भक्ष्यः प्रियः शिवः।। सूर्यात्मा जठरः क्रोधो मत्ता वक्षी विहारिणी। कलकण्ठो मध्यभिन्न युद्धात्मा मलपूः शिरः।।

षट्कर्म
(1) कुछ धार्मिक विभागों के छः प्रधान कृत्य। ब्राह्मणों के मुख्य छः कर्तव्य षट्कर्म कहलाते हैं। ये हैं, (1) अध्ययन (2) अध्यापन (3) यजन (4) याजन (5) दान और (6) प्रतिग्रह। मनु आदि स्मृतियों में इन कर्मों का विस्तृत वर्णन पाया जाता है :
इज्याध्ययनदानानि याजनाध्यापने तथा। प्रतिग्रहश्च तैर्युक्तः षट्कर्मा विप्र उच्यते।।
(2) आगम और तन्त्र में छः प्रकार के शान्ति आदि कर्मों को षट्कर्म कहते हैं। शारदातिलक में इनका वर्णन पाया जाता है :
शान्ति-वश्य-स्तम्भनानि विद्वेषोच्चाटने ततः। मारणान्तानि शंसन्ति षट्कर्माणि मनीषिणः।। रोग-कृत्या-ग्रहादीनां निरासः शान्तिरीरिता। वश्यं जनानां सर्वेषां विधेयत्वमुदीरितम्।। प्रवृत्तिरोधः सर्वेषां स्तम्भनं तदुदाहृतम्। स्निग्धानां क्लेशजननं मिथों विद्वेषणं मतम्।। उच्चाटनं स्वदेशादेर्भ्रंशनं परिकीर्तितम्। प्राणिनां प्राणहरणं मारणं तदुदाहृतम।। स्वदेवतादिक्कालादीन् ज्ञात्वा कर्माणिं साधयेत्।। रतिर्वाणी रमा ज्येष्ठा दुर्गा काली यथा क्रमम्। षट्कर्मदेवता प्रोक्ताः कर्मादौ ताः प्रपूजयेत्।। ईश-चन्द्रेन्द्र-निऋति-वाय्वाग्नीनान्दिशो मताः। सूर्योदयं समारभ्य घटिकादशकं क्रमात्।। ऋतवः स्युर्वसन्ताद्य अडोरात्रं दिने दिने। वसन्त-ग्रीष्म-वर्षाख्य--शरद्-हेमन्त-शैशिराः।।
[(1) शान्ति (2) वश्य (वशीकरण) (3) स्तम्भन्, (4) विद्वेष (5) उच्चाटन और (6) मारण इनको मनीषी लोग षट् कर्म कहते हैं। रोग, कृत्या, ग्रह आदि का निवारण 'शान्ति' कहलाता है। सब जनों का सेवक हो जाना 'वश्य' कहा गया है। सबकी प्रवृत्ति का रोध 'स्तम्भन' कहलाता है। मित्रो के बीच में क्लेश उत्पन्न करना 'विद्वेष' है। अपने देश से भ्रंश (उखाड़ा) उत्पन्न करना 'उच्चाटन' है। प्राणियों का प्राण हरण कर लेना 'मारण' कहा गया है। इनके देवताओं, दिशा, काल आदि को जानकर इन कर्मों की साधना करना चाहिए। रति, वाणी, रमा, ज्येष्ठा, दुर्गा और काली क्रमशः इनकी देवता हैं। कर्म के आदि में इनकी पूजा करनी चाहिए। ईश, चन्द्र, इन्द्र, निर्ऋति, वायु और अग्नि इनकी दिशाएँ हैं। सूर्योदय से प्रारम्भ कर दस घटिका के क्रम से वसन्त आदि ऋतुएँ दिन-रात में प्रति दिन होती हैं। वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद्, हेमन्त औऱ शिशिर ये ऋतुएँ हैं।]
घेरण्डसंहिता में छः प्रकार के हठयोग के अङ्गों को भी षट्कर्म कहा गया है :
धौतिर्वस्तिस्तथा नेतिर्नौलिकी त्राटकस्तथा। कपालभातिश्चैतानि षट्कर्माणि समाचरेत्।।
[(1) धौति (2) वस्ति (3) नेति (4) नौलिकी (5) त्राटक और (6) कपालभाति इन छः कर्मों का आचरण करना चाहिए।

षट्चक्र
शरीर में स्थित छः चक्रों के समाहार को षट्चक्र कहते हैं। पद्म पुराण (स्वर्ग खण्ड, अध्याय 27) में इनका वर्णन इस प्रकार है :
सप्त पद्मानि तत्रैव सन्ति लोका इव प्रभो। गुदे पृथ्वीसमं चक्रं हरिद्वर्णं चतुर्दलम्।। लिंगे तु षड्दलं चक्रं स्वाधिष्ठानमिति स्मृतम्। त्रिलोकवह्निनिलयं तप्तचामीकरप्रभम्।। नाभौ दशदलं चक्रं कुण्डलिन्यां समन्वितम्। नीलाञ्जननिभं ब्रह्मस्थानं पूर्वकमन्दिरम्।। मणिपूराभिधं स्वच्छं जलस्थानं प्रकीर्तितम्। उद्यदादित्ससंकाशं हृदि चक्रमनाहतम्।। कुम्भकाख्यं द्वादशारं वैष्णवं वायुमन्दिरम्। कण्ठे विशुद्धशरणं षोडशारं पुरोदयम्।। शाम्भवीवरचक्राख्यं चन्द्रविन्दुविभूषितम्। षष्ठामाज्ञालयं चक्रं द्विदलं श्वेतमुत्तमम्।। राधांचक्रमिति ख्यातं मनःस्थानं प्रकीर्तितम्। सहस्रदलमेकार्णं परमात्मप्रकाशकम्।। नित्यं ज्ञानमयं सत्यं सहस्रादित्य सन्निभम्। षट् चक्राणीह भेद्यानि नैतद् भेद्यं कथञ्चन।।
[हे प्रभो! वहाँ (शरीरा में) सात पद्म (कमल) सात लोकों के समान होते हैं। गुदा में पृथ्वी के समान, मूलाधार' चक्र होता है, जो हरिद्वर्ण और चार दल वाला है। लिङ्ग में षड्दल चक्र होता है, जिसको 'स्वाधिष्ठान' कहते हैं। वह तीनों लोकों में व्याप्त अग्नि का निवास है और तप्त सोने के समान प्रभा वाला है। नाभि में दशदल चक्र कुण्डलिनी में समन्वित है। यह नीलाञ्जन के समान, ब्रह्मस्थान और उसका मन्दिर है। इसे 'मणिपूर' कहते हैं, जो स्वच्छ जल के समान प्रसिद्ध है। हृदय में 'अनाहतचक्र' है जो उदय होते हुए सूर्य के समान प्रकाशमान है। इसका नाम कुम्भक है, यह द्वादश अरों वाला वैष्णव और वायु-मन्दिर है। कण्ड में 'विशुद्धशरण' षोडशार, पुरोदय, शाम्भवीवरचक्र है जो चन्‍द्रबिन्दु से विभूषित है। छठा 'आज्ञालय' चक्र है जो दो दल वाला और श्वेतवर्ण है। यह राधा चक्र नाम से भी प्रसिद्ध है। यह मन का स्थान है। ये ही षट्चक्र (ज्ञानार्थ क्रमशः) भेदन करने योग्य है; किन्तु सहस्रदल चक्र परमात्मा से प्रकाशित है। यह नित्य, ज्ञानमय, सत्य और सहस्र सूर्यों के समान प्रकाशमान हैं। इसका भेदन नहीं होता।]

षट्तीर्थ
सर्वसाधारण के लिए छः तीर्थ सदा सर्वत्र सुलभ हैं :
(1) भक्ततीर्थ---धर्मराज युधिष्ठिर विदुरजी से कहते हैं, `आप जैसे भागवत (भगवान् के प्रिय भक्त) स्वयं ही तीर्थ रूप होते हैं। आप लोग अपने हृदय में विराजित भगवान् के द्वारा तीर्थ को भी महातीर्थ बनाते हुए विचरण करते हैं।
(2) गुरुतीर्थ--सूर्य दिन में प्रकाश करता है, चन्द्रमा रात्रि में प्रकाशित होता है और दीपक घर में उजाला करता है। परन्तु गुरु शिष्य के हृदय में रात-दिन सदा ही प्रकाश फैलाते रहते हैं। वे शिष्य के सम्पूर्ण अज्ञानमय अन्धकार का नाश कर देते हैं। अतएव शिष्यों के लिए गुरु परम तीर्थ हैं।
(3) माता तीर्थ, (4) पिता-तीर्थ---पुत्रों को इस लोक और परलोक में कल्याणकारी माता-पिता के समान कोई तीर्थ नहीं है। पुत्रों के लिए माता-पिता का पूजन ही धर्म है। वही तीर्थ है। वही मोक्ष है। वही जन्म का शुभ फल है।
(5) पतितीर्थ---जो स्त्री पति के दाहिने चरण को प्रयाग और वाम चरण को पुष्कर मानकर पति के चरणोदक से स्नान करती हैं, उसे उन तीर्थों के स्नान का पुण्य फल मिलता है इसमें कोई संदेह नहीं। पति सर्वतीर्थमय और सर्वपुण्यमय है।
(6) पत्नीतीर्थ---सदाचार का पालन करने वाली, प्रशंसनीय आचरण करने वाली, धर्म साधन में लगी हुई, सदा पातिव्रत का पालन करने वाली तथा ज्ञान की नित्य अनुरागिणी, गुणवती, पुण्यमयी, महासती पत्नी जिसके घर हो उसके घर में देवता निवास करते हैं। ऐसे घर में गङ्गा आदि पवित्र नदियाँ, समुद्र, यज्ञ, गौएँ ऋषिगण तथा सम्पूर्ण पवित्र तीर्थ रहते हैं। कल्याण तथा उद्धार के लिए भार्या के समान कोई तीर्थ नहीं, भार्या के समान सुख नहीं और भार्या के समान पुण्य नहीं। ऐसी पत्नी भी पवित्र तीर्थ हैं।

षट्त्रिंशत्
एकादशीतत्त्व' ग्रन्थ में देवता पूजन के छत्तीस उपचार बताये गये हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं :
1. आसन 2. अभ्यञ्जन 3. उद्वर्तन 4. विरुक्षण 5. सम्मार्जन 6. घृतादिसे स्नपन 7. आवाहन 8. पाद्य 9. अर्घ्‍य 10. आचमनीय 11. स्थानीय 12. मधुपर्क 13. पुनराचमनीय 14. वस्त्र 15. यज्ञोपवीत 16. अलङ्कार 17. गन्ध 18. पुष्प 19. धूप 20. दीप 21. ताम्बूलादिक नैवेद्य 22. पुष्पमाला 23. अनुलेप 24. शय्या 25. चामरंव्यजन 26. आदर्शदर्शन 27. नमस्कार 28. नर्तन 29. गीत 30. वाद्य 31. दान 32. स्तुति 33. होम 34. प्रदक्षिणा 35. दन्तकाष्ठ प्रदान 36. देव विसर्जन।

षट्त्रिंशन्मत
छत्तीस (धर्मशास्त्रकार ऋषियों) का मत। शङ्खलिखित स्मृति में इनके नाम निम्नांकित हैं :
मनुर्विष्णुर्यमो दक्षः अङ्गिरोऽत्रि बृहस्पतिः। आपस्तम्बश्चोशना च कात्यायनपराशरौ।। वसिष्ठव्याससंवर्ता हारीत गौतमावपि। प्रचेताः शङ्खलिखितौ याज्ञवल्कश्च काश्यपः।। शातातपो लोमशश्च जमदग्निः प्रजापति। विश्वामित्रपैठीनसी बौधायनपितामहौ।। छागलेयश्च जाबालो मरीचिश्चयवनो भृगुः। ऋष्यश्रृङ्गो नारदश्च षट्तिंतशत् स्मृतिकारकाः।। एतेषान्तु मतं यत्तु षट्त्रिंशन्मतमुच्यते।।

षट्सन्दर्भ
विद्वद्वर और परम हरिभक्त जीव गोस्वामी द्वारा रचित कृष्णभक्तिदर्शन का ग्रन्थ। यह श्रीमद्भागवत की मान्यताओं का समर्थक तथा अचिन्त्य भेदाभेद दर्शन सम्बन्धी प्रामाणिक रचना है। चैतन्यसम्प्रदाय के भक्ति सिद्धान्तों का प्रौढ़ दार्शनिक शैली में यह निरूपण करता है। इसके क्रम, भक्ति, प्रेम सन्दर्भ आदि छः खण्ड हैं।

षडक्षरदेव
वीरशैव सम्प्रदाय के आचार्य, जो 1657 ई० आस-पास हुए (दे० राइस : कन्नड लिटरेचर, पृ० 62, 67)। इन्होंने कन्नड़ भाषा में राजशेखरविलास, शबरशङ्करविलास आदि ग्रन्थों की रचना की।

षडङ्ग
वेद को षडङ्ग भी कहते हैं (षट् अङ्गानि यस्य) यथा :
शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दसाञ्चयः ज्योतिषामयनञ्चैव षडङ्गो वेद उच्यते।। विशेष विवरण के लिए दे० 'वेदाङ्ग'।

षड्गुरुशिष्य
ऋक्संहिता की अनेक अनुक्रमणिकाएँ हैं। इनमें शौनक की रची अनुवाकानुक्रमणी और कात्यायन की रची सर्वानुक्रमणी अधिक प्रसिद्ध हैं। इन दोनों पर विस्तृत टीकाएँ लिखी गयी हैं। टीकाकार का नाम है षड्गुरुशिष्य। यह कहना कठिन है कि यह टीकाकार का नाम है षड्गुरुशिष्य। यह कहना कठिन है कि यह टीकाकार का वास्तविक नाम है अथवा विरुद। टीकाकार ने अपने छः गुरुओं के नाम लिखे हैं, जो इस प्रकार हैं--1. विनायक 2. त्रिशूलान्तक 3. गोविन्द 4. सूर्य 5. व्यास और 6. शिवयोगी।


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