(1) कुछ धार्मिक विभागों के छः प्रधान कृत्य। ब्राह्मणों के मुख्य छः कर्तव्य षट्कर्म कहलाते हैं। ये हैं, (1) अध्ययन (2) अध्यापन (3) यजन (4) याजन (5) दान और (6) प्रतिग्रह। मनु आदि स्मृतियों में इन कर्मों का विस्तृत वर्णन पाया जाता है :
[(1) शान्ति (2) वश्य (वशीकरण) (3) स्तम्भन्, (4) विद्वेष (5) उच्चाटन और (6) मारण इनको मनीषी लोग षट् कर्म कहते हैं। रोग, कृत्या, ग्रह आदि का निवारण 'शान्ति' कहलाता है। सब जनों का सेवक हो जाना 'वश्य' कहा गया है। सबकी प्रवृत्ति का रोध 'स्तम्भन' कहलाता है। मित्रो के बीच में क्लेश उत्पन्न करना 'विद्वेष' है। अपने देश से भ्रंश (उखाड़ा) उत्पन्न करना 'उच्चाटन' है। प्राणियों का प्राण हरण कर लेना 'मारण' कहा गया है। इनके देवताओं, दिशा, काल आदि को जानकर इन कर्मों की साधना करना चाहिए। रति, वाणी, रमा, ज्येष्ठा, दुर्गा और काली क्रमशः इनकी देवता हैं। कर्म के आदि में इनकी पूजा करनी चाहिए। ईश, चन्द्र, इन्द्र, निर्ऋति, वायु और अग्नि इनकी दिशाएँ हैं। सूर्योदय से प्रारम्भ कर दस घटिका के क्रम से वसन्त आदि ऋतुएँ दिन-रात में प्रति दिन होती हैं। वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद्, हेमन्त औऱ शिशिर ये ऋतुएँ हैं।]
घेरण्डसंहिता में छः प्रकार के हठयोग के अङ्गों को भी षट्कर्म कहा गया है :
[हे प्रभो! वहाँ (शरीरा में) सात पद्म (कमल) सात लोकों के समान होते हैं। गुदा में पृथ्वी के समान, मूलाधार' चक्र होता है, जो हरिद्वर्ण और चार दल वाला है। लिङ्ग में षड्दल चक्र होता है, जिसको 'स्वाधिष्ठान' कहते हैं। वह तीनों लोकों में व्याप्त अग्नि का निवास है और तप्त सोने के समान प्रभा वाला है। नाभि में दशदल चक्र कुण्डलिनी में समन्वित है। यह नीलाञ्जन के समान, ब्रह्मस्थान और उसका मन्दिर है। इसे 'मणिपूर' कहते हैं, जो स्वच्छ जल के समान प्रसिद्ध है। हृदय में 'अनाहतचक्र' है जो उदय होते हुए सूर्य के समान प्रकाशमान है। इसका नाम कुम्भक है, यह द्वादश अरों वाला वैष्णव और वायु-मन्दिर है। कण्ड में 'विशुद्धशरण' षोडशार, पुरोदय, शाम्भवीवरचक्र है जो चन्द्रबिन्दु से विभूषित है। छठा 'आज्ञालय' चक्र है जो दो दल वाला और श्वेतवर्ण है। यह राधा चक्र नाम से भी प्रसिद्ध है। यह मन का स्थान है। ये ही षट्चक्र (ज्ञानार्थ क्रमशः) भेदन करने योग्य है; किन्तु सहस्रदल चक्र परमात्मा से प्रकाशित है। यह नित्य, ज्ञानमय, सत्य और सहस्र सूर्यों के समान प्रकाशमान हैं। इसका भेदन नहीं होता।]
षट्तीर्थ
सर्वसाधारण के लिए छः तीर्थ सदा सर्वत्र सुलभ हैं :
(1) भक्ततीर्थ---धर्मराज युधिष्ठिर विदुरजी से कहते हैं, `आप जैसे भागवत (भगवान् के प्रिय भक्त) स्वयं ही तीर्थ रूप होते हैं। आप लोग अपने हृदय में विराजित भगवान् के द्वारा तीर्थ को भी महातीर्थ बनाते हुए विचरण करते हैं।
(2) गुरुतीर्थ--सूर्य दिन में प्रकाश करता है, चन्द्रमा रात्रि में प्रकाशित होता है और दीपक घर में उजाला करता है। परन्तु गुरु शिष्य के हृदय में रात-दिन सदा ही प्रकाश फैलाते रहते हैं। वे शिष्य के सम्पूर्ण अज्ञानमय अन्धकार का नाश कर देते हैं। अतएव शिष्यों के लिए गुरु परम तीर्थ हैं।
(3) माता तीर्थ, (4) पिता-तीर्थ---पुत्रों को इस लोक और परलोक में कल्याणकारी माता-पिता के समान कोई तीर्थ नहीं है। पुत्रों के लिए माता-पिता का पूजन ही धर्म है। वही तीर्थ है। वही मोक्ष है। वही जन्म का शुभ फल है।
(5) पतितीर्थ---जो स्त्री पति के दाहिने चरण को प्रयाग और वाम चरण को पुष्कर मानकर पति के चरणोदक से स्नान करती हैं, उसे उन तीर्थों के स्नान का पुण्य फल मिलता है इसमें कोई संदेह नहीं। पति सर्वतीर्थमय और सर्वपुण्यमय है।
(6) पत्नीतीर्थ---सदाचार का पालन करने वाली, प्रशंसनीय आचरण करने वाली, धर्म साधन में लगी हुई, सदा पातिव्रत का पालन करने वाली तथा ज्ञान की नित्य अनुरागिणी, गुणवती, पुण्यमयी, महासती पत्नी जिसके घर हो उसके घर में देवता निवास करते हैं। ऐसे घर में गङ्गा आदि पवित्र नदियाँ, समुद्र, यज्ञ, गौएँ ऋषिगण तथा सम्पूर्ण पवित्र तीर्थ रहते हैं। कल्याण तथा उद्धार के लिए भार्या के समान कोई तीर्थ नहीं, भार्या के समान सुख नहीं और भार्या के समान पुण्य नहीं। ऐसी पत्नी भी पवित्र तीर्थ हैं।
षट्त्रिंशत्
एकादशीतत्त्व' ग्रन्थ में देवता पूजन के छत्तीस उपचार बताये गये हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं :
विद्वद्वर और परम हरिभक्त जीव गोस्वामी द्वारा रचित कृष्णभक्तिदर्शन का ग्रन्थ। यह श्रीमद्भागवत की मान्यताओं का समर्थक तथा अचिन्त्य भेदाभेद दर्शन सम्बन्धी प्रामाणिक रचना है। चैतन्यसम्प्रदाय के भक्ति सिद्धान्तों का प्रौढ़ दार्शनिक शैली में यह निरूपण करता है। इसके क्रम, भक्ति, प्रेम सन्दर्भ आदि छः खण्ड हैं।
षडक्षरदेव
वीरशैव सम्प्रदाय के आचार्य, जो 1657 ई० आस-पास हुए (दे० राइस : कन्नड लिटरेचर, पृ० 62, 67)। इन्होंने कन्नड़ भाषा में राजशेखरविलास, शबरशङ्करविलास आदि ग्रन्थों की रचना की।
षडङ्ग
वेद को षडङ्ग भी कहते हैं (षट् अङ्गानि यस्य) यथा :
शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दसाञ्चयः ज्योतिषामयनञ्चैव षडङ्गो वेद उच्यते।। विशेष विवरण के लिए दे० 'वेदाङ्ग'।
षड्गुरुशिष्य
ऋक्संहिता की अनेक अनुक्रमणिकाएँ हैं। इनमें शौनक की रची अनुवाकानुक्रमणी और कात्यायन की रची सर्वानुक्रमणी अधिक प्रसिद्ध हैं। इन दोनों पर विस्तृत टीकाएँ लिखी गयी हैं। टीकाकार का नाम है षड्गुरुशिष्य। यह कहना कठिन है कि यह टीकाकार का नाम है षड्गुरुशिष्य। यह कहना कठिन है कि यह टीकाकार का वास्तविक नाम है अथवा विरुद। टीकाकार ने अपने छः गुरुओं के नाम लिखे हैं, जो इस प्रकार हैं--1. विनायक 2. त्रिशूलान्तक 3. गोविन्द 4. सूर्य 5. व्यास और 6. शिवयोगी।