दल्भ का वंशज। छान्दोग्य उपनिषद् में यह एक आचार्य का नाम है (1.2,13,12,1)। अ० सं० के अनुसार (30.2) वह धृतराष्ट्र के साथ यज्ञ सम्बन्धी विवाद करते हुए वर्णित है।
बकपञ्चक
कार्तिक शुक्ल एकादशी (विष्णुप्रबोधिनी) से पूर्णिमा तक के पाँच दिन 'बकपञ्चक' नाम से कहे जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि इन दिनों बगुले भी मत्स्य का आहार नहीं करते। अतएव मनुष्य को कम-से-कम इन दिनों मांस भक्षण कदापि नहीं करना चाहिए।
बकसर
(1) बिहार प्रदेश के शाहाबाद जिले में स्थित प्रसिद्ध तीर्थस्थल। प्रचीन काल में यह स्थान सिद्धाश्रम कहा जाता था। महर्षि विश्वामित्र का आश्रम यहीं था, जहाँ राम-लक्ष्मण ने मारीच, सुबाहु आदि को मारकर ऋषि के यज्ञ की रक्षा की थी। आज भी गङ्गा के तट पर पुराने चरित्रवन का कुछ थोड़ा अवशेष बचा हुआ है, जो महर्षि विश्वामित्र का यज्ञस्थल है। बकसर में सङ्गमेश्वर, सोमेश्वर, चित्ररथेश्वर, रामेश्वर, सिद्धनाथ और गौरी शङ्कर नामक प्राचीन मन्दिर हैं, बकसर की पञ्चकोशी परिक्रमा में सभी तीर्थ आ जाते हैं।
उन्नाव जिले में एक दूसरा बकसर शिवराजपुर से तीन मील पूर्व पड़ता है। यहाँ वाणीश्वर महादेव का मन्दिर है। कहा जाता है कि दुर्गासप्तशती में जिन राजा सुरथ तथा समाधि नामक वैश्य के तप का वर्णन है उनकी तप:स्थली यहीं है। गङ्गादशहरा तथा कार्तिकी पूर्णिमा को यहाँ पर मेल लगता है।
बकुलामावस्या
एक पितृव्रत। पौष मास की अमावस्या को पितर लोगों को बकुलपुष्पों तथा शर्करायुक्त खीर से तृप्त करना चाहिए।
बग्गासिंह
राधास्वामी मठ, तरनतारन (पंजाब) के महन्त। सन्तमत या राधास्वामी पन्थ के आदि प्रवर्त्तक हुजूर राधास्वामीदयाल उर्फ स्वामीजी के मरने पर (संवत् 1935) उनका स्थान हुजूर महाराज अर्थात् रायसाहब सालिगराम माथुर ने ग्रहण किया, जो पहले इस प्रान्त के पोस्टमास्टर जनरल थे। उन्हीं के गुरुभाई, अर्थात् स्वामीजी के शिष्य बाबा जयमलसिंह ने ब्यास में, बाबा बग्गासिंह ने तरनतारन में तथा बाबा गरीबदास ने दिल्ली में अलग-अलग गद्दियाँ चलायीं।
बघौत
वनवासी जातियों----सन्थाल, गोंड़ आदि में यह विश्वास प्रचलित है कि बाघ से मारा गया मनुष्य भयानक भूत (प्रेतात्मा) बन जाता है। उसे शान्त रखने के लिए उसके मरने के स्थान पर एक मन्दिर का निर्माण होता है जिसे 'बघैत' कहते हैं। यहाँ उसके लिए नियमित भेट पूजा की जाती है। इधर से गुजरता हुआ हर एक यात्री एक पत्थर उसके सम्मान में इस स्थान पर रखता जाता है और यहाँ इस तरह पत्थरों का ढेर लग जाता है। हर एक लकड़हारा यहाँ एक दीप जलाता है या आहुति देता है ताकि क्रोधित भूत शान्त रहे।
बंजारा
घुमक्कड़ कबायली जाति। संस्कृत रूप 'वाणिज्यकार' है'। ये व्यापारी घूम-घूमकर अन्न आदि विक्रेय वस्तु देश भर में पहुँचाते थे। इनकी संख्या 1901 ई० की भारतीय जनगणना में 7,65,861 थी। इनका व्यवसाय रेलवे के चलने से कम हो गया है और अब ये मिश्रित जाति हो गये हैं। ये लोग अपना जन्मसम्बन्ध उत्तर भारत के ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय वर्ण से जोड़ते हैं। दक्षिण में आज भी ये अपने प्राचीन विश्वासों एवं रिवाजों पर चलते देखे जाते हैं जो द्रविडवर्ग से मिलते-जुलते हैं।
बंजारों का धर्म जादूगरी है और ये गुरु को मानते हैं। इनका पुरोहित भगत कहलाता है। सभी बीमारियों का कारण इनमें भूत-प्रेत की बाधा, जादू-टोना आदि माना जाता है। इनके देवी-देवताओं की लम्बी तालिका में प्रथम स्थान मरियाई या महाकाली का है (मातृदेवी का सबसे विकराल रूप)। यह देवी भगत के शरीर में उतरती है और फिर वह चमत्कार दिखा सकता है। अन्य हैं गुरु नानक, बालाजी या कृष्ण का बालरूप, तुलजा देवी (दक्षिण भारत की प्रसिद्ध तुलजापुर की भवानी माता), शिव मैया, सती, मिट्ठू भूकिया आदि।
मध्य भारत के बंजारों में एक विचित्र वृषभपूजा का प्रचार है। इस जन्तु को हतादिया (अवध्य) तथा बालाजी का सेवक मानकर पूजते हैं, क्योंकि बैलों का कारवाँ ही इनके व्यवसाय का मुख्य सहारा होता है। लाख-लाख बैलों की पीठ पर बोरियाँ लादकर चलने वाले 'लक्खी बंजारे' कहलाते थे। छत्तीसगढ़ के बंजारे 'बंजारी' देवी की पूजा करते हैं, जो इस जाति की मातृशक्ति की द्योतक है। सामान्यतया ये लोग हिन्दुओं के सभी देवताओं की आराधना करते हैं।
बंजारी
दे० 'बंजारा'।
बटेश्वर (विक्रमशिला)
बिहार में भागलपुर से 24 मील पूर्व गङ्गा के किनारे बटेश्वरनाथ का टीला और मन्दिर है। मध्यकाल में यहाँ विक्रमशिला नामक विश्वविद्यालय था। उस समय यह पूर्वी भारत में उच्च शिक्षा की विख्यात संस्था थी। यहाँ से दो मील दूर पर्वत की चोटी पर दुर्वासा ऋषि का आश्रम है। लगता है कि यहाँ का वट वृक्ष बोधिवृक्ष का ही प्रतीक है और यह शैवतीर्थ बौद्धविहार का अवशिष्ट स्मारक है।