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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

दक्ष
आदित्यवर्ग के देवताओं में से एक। कहा जाता है कि अदिति ने दक्ष को तथा दक्ष ने अदिति को जन्म दिया। यहाँ अदिति सृष्टि के स्त्रीत्व एवं दक्ष पुरुषतत्त्व का प्रतीक है। दक्ष को बलशाली, बुद्धिशाली, अन्तर्दृष्टियुक्त एवं इच्छाशक्तिसम्पन्न कहा गया है। उसकी तुलना वरुण के उत्पादनकार्य, शक्ति एवं कला से हो सकती है। स्कन्दपुराण में दक्ष प्रजापति की विस्तृत पौराणिक कथा दी हुई है। दक्ष की पुत्री सती शिव से ब्‍याही गयी थी। दक्ष ने एक यज्ञ किया, जिसमें अन्य देवताओं को निमन्त्रण दिया किन्तु शिव को नहीं बुलाया। सती अनिमन्त्रित पिता के यहाँ गयी और यज्ञ में पति का भाग न देखकर उसने अपना शरीर त्याग दिया। इस घटना से क्रुद्ध हो कर शिव ने अपने गणों को भेजा, जिन्होंने यज्ञ का विध्वंस कर दिया। शिव सती के शव को कन्धे पर लेकर विक्षिप्त घूमते रहे। जहाँ-जहाँ सती के शरीर के अंग गिरे वहाँ वहाँ विविध तीर्थ बन गये।
दक्ष नाम के एक स्मृतिकार भी हुए हैं, जिनकी धर्मशास्त्रीय कृति 'दक्षस्मृति' प्रसिद्ध है।

दक्ष पार्वति
पर्वत के वंशज दक्ष पार्वति का उल्लेख शतपथ ब्राह्मण (2.4,4,6) में एक विशेष यज्ञ के सन्दर्भ में हुआ है, जिसे उसके वंशज दाक्षायण करते रहे तथा उसके प्रभाव से ब्राह्मणकाल तक वे राज्यपद के भागी बने रहे। इसका उल्लेख कौषीतकि ब्राह्मण (4.4) में भी है।

दक्षिणतः कपर्द
वसिष्ठवंशजों का एक विरुद (ऋ० वे० 7.33.6), क्योंकि वे केशों की वेणी या जटाजूट बनाकर उसे मस्तक के दक्षिण भाग की ओर झुकाये रखते थे।

दक्षिणा
यज्ञ करने वाले पुरोहितों को दिये गये दान (शुल्क) को दक्षिणा कहते हैं। ऐसे अवसरों पर 'गाय' ही प्रायः शुल्क होती थी। दानस्तुति तथा ब्राह्मणों में इसका और भी विस्तार हुआ है, जैसे गाएँ, अश्व, भैंस, ऊँट, आभूषण आदि। इसमें भूमि का समावेश नहीं है, क्योंकि भूमि पर सारे कुटुम्ब का अधिकार होता था और बिना सभी सदस्यों की अनुमति के इसका दान नहीं किया जा सकता था। अतएव भूमि अदेय समझी गयी। किन्तु मध्य युग आते-आते भूमि भी राजा द्वारा दक्षिणा में दी जाने लगी। फिर भी इसका अर्थ था भूमि से राज्य को जो आय होती थी, उसका दान।
प्रत्येक धार्मिक अथवा माङ्गलिक कृत्य के अन्त में पुरोहित, ऋत्विज् अथवा ब्राह्मणों को दक्षिणा देना आवश्यक समझा जाता है। इसके बिना शुभ कार्य का सुफल नहीं मिलता, ऐसा विश्वास है। ब्रह्मचर्य अथवा अध्ययन समाप्त होने पर शिष्य द्वारा आचार्य (गुरु) को दक्षिणा देने का विधान गृह्यसूत्रों में पाया जाता है।

दक्षिणाचार
शैव मत के अनुरूप ही शाक्त मत भी निगमों पर आधारित है, तदनन्तर जब आगमों के विस्तृत आचार का शाक्त मत में और भी समावेश हुआ तब से निगमानुमोहित शाक्त मत का नाम दक्षिणाचार, दक्षिणमार्ग अथवा वैदिक अथवा वैदिक शाक्तमत पड़ गया। आजकल इस दक्षिणाचार का भी एक विशिष्ट रूप बन गया है। इस मार्ग पर चलने वाला उपासक अपने को शिव मानकर पञ्चतत्व से शिवा (शक्ति) की पूजा करता है और मध्य के स्थान में विजयारस (भंग) का सेवन करता है। विजयारस भी पञ्च मकारों में गिना जाता है। इस मार्ग को वामाचार से श्रेष्ठ माना जाता है। दाक्षिणात्यों में शंकर स्वामी के अनुयायी शैवों में दक्षिणाचार का प्रचलन देखा जाता है।

दक्षिणाचारी
दक्षिणाचार का आचरण करने वाले शाक्त उपासक। दे० 'दक्षिणाचार'।

दक्षिणामूर्ति उपनिषद्
एक परवर्ती उपनिषद्।

दक्षिणामूर्तिस्तोत्रवार्तिक
सुरेश्वराचार्य (मण्डन मिश्र) ने संन्यास लेने के बाद जिन अनेक ग्रन्थों का प्रणयन किया उनमें से एक यह ग्रन्थ भी है।

दण्ड
मनुस्मृति में दण्ड को देवता का रूप दिया गया है जिसका रङ्ग काला एवं आँखे लाल हैं, जिसे प्रजापति ने धर्म के अवतार एवं अपने पुत्र के रूप में जन्म दिया। दण्ड ही विश्व में शान्ति का रक्षक है। इसकी अनुपस्थिति में शक्तिशाली निर्बलों को सताने लगते हैं एवं मात्स्य न्याय फैल जाता है (जैसे बड़ी मछली छोटी मछली को निगल जाती है, उसी प्रकार बड़े लोग छोटे लोगों को मिटा डालते हैं।)।
दण्ड ही वास्तव में राजा तथा शासन है, यद्यपि इसका प्रयोग राजा अथवा उचित अधिकारी द्वारा होता है। अपराध से गुरुतर दण्ड देने पर प्रजा रुष्ट होती है तथा लघुतर दण्ड देने पर वह राजा का आदर नहीं करती। अतएव राजा को चाहिए कि वह अपराध को ठीक तौल कर दण्डविधान करे। यदि अपराधी को राजा दण्डित न करे तो वही उसके किये हुए अपराध एवं पापों का भागी होता है। मनु ने 'दण्ड' के माहात्म्य में कहा है :
दण्डः शास्ति प्रजाः सर्वा दण्ड एवाभिरक्षति। दण्डः सुप्तेषु जागर्ति दण्डं धर्मं विदुर्बुधाः।।
[दण्ड ही शासन करता है। दण्ड ही रक्षा करता है। जब सब सोते रहते हैं तो दण्ड ही जागता है। बुद्धिमानों ने दण्ड को ही धर्म कहा है।]

दण्डनीति
राजशास्त्र का एक नाम। यह शास्त्र अति प्राचीन है। महाभारत, शान्तिपर्व के 59वें अध्याय में लिखा है कि सत्ययुग में बहुत काल तक न राजा था, न दण्ड। प्रजा कर्मानुगामिनी थी। फिर काम, क्रोध, लोभादि दुर्गुण उत्पन्न हुए। कर्त्तव्याकर्तव्य का ज्ञान नष्ट हुआ एवं 'मात्स्य न्याय' का बोलबाला हुआ। ऐसी दशा में देवों की प्रार्थना पर ब्रह्मा ने एक लाख अध्यायों वाला 'दण्डनीति' नाम का नीतिशास्त्र रच डाला। इसी के संक्षिप्त रूप आवश्यकतानुसार समय-समय पर 'वैशालाक्ष', 'बाहुदन्तक', बार्हस्पत्य शास्त्र', 'औशनसी नीति', 'अर्थशास्त्र', 'कामन्दकीय नीति' एवं 'शुक्रनीतिसार' हुए। दण्डनीति का प्रयोग राजा के द्वारा होता था। यह राजधर्म का ही प्रमुख अङ्ग है।
कौटिल्य ने अपने 'अर्थशास्त्र' के विद्यासमुद्देश प्रकरण में विद्याओं की सूची में दण्डनीति का गणना की है : 'आन्वीक्षिकी-त्रयी-वार्ता-दण्डनीतिश्चेति विद्या:।'
कौटिल्य ने कई राजनीतिक सम्प्रदायों में औशनससम्प्रदाय का उल्लेख किया है जो केवल दण्डनीति को ही विद्या मानता था। परन्तु उन्होंने स्वयं इसका प्रतिवाद किया है और कहा है कि चार विद्याएँ हैं (चतस्र एव विद्याः) और इनके सन्दर्भ में ही दण्डनीति का अध्ययन हो सकता है। 'अर्थशास्त्र' में दण्डनीति के निम्नांकित कार्य बताये गये हैं :
(1) अलब्धलाभार्था (जो नहीं प्राप्त है उसको प्राप्त कराने वाली),
(2) लब्धस्य परिरक्षिणी (जो प्राप्त है उसकी रक्षा करने वाली),
(3) रक्षितस्य विवर्धिनी (जो रक्षित है उसकी वृद्धि करने वाली) और
(4) वृद्धस्य पात्रेषु प्रतिपादिनी (बढ़े हुए का पात्रों में सम्‍यक् प्रकार से विभाजन करनेवाली)।


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