व्यञ्जनों का पन्द्रहवाँ तथा टवर्ग का पञ्चम अक्षर। कामधेनुतन्त्र में इसके स्वरूप का निम्नांकित वर्णन है :
णकारं परमेशानि या स्वयं परकुण्डली। पीतविद्युल्लताकारं पञ्चदेवमयं सदा।। पञ्चप्राणमयं देवि सदा त्रिगुणसंयुतम्। आत्मादितत्त्वसंयुक्तं महामोहप्रदायकम्।। तन्त्रशास्त्र में इसके चौबीस नामों का उल्लेख पाया जाता है :
तृतीय श्रीनिवास पण्डित द्वारा रचित ग्रन्थों में एक कृति। इसमें विशिष्टाद्वैत मत का समर्थन तथा अन्य मतों का खण्डन है। रचनाकाल अठारहवीं शती वि० का उत्तरार्ध है।