लश्चन्द्रः पूतना पृथ्वी माधवः शक्रवाचकः। बलानुजः पिनाकीशो व्यापको मांससंज्ञकः।। खड्गी नागोऽमृतं देवी लवणं वारुणीपतिः। शिखा वाणी क्रिया माता भामिनी कामिनी प्रिया। ज्वालिनी वेगिनी नादः प्रद्युम्नः शोषणो हरिः। विश्वात्ममन्त्रों बली चेतो मेरुर्गिरीः कला रसः।।
लकुल
वायुपुराण के एक प्रकरण में पाशुपतों के उपसंप्रदाय लकुलीश का उल्लेख प्राप्त होता है। कल्पों की गणना के बाद युगों का वर्णन आता है, जो कल्प के विभाग हैं। युग कुल अट्ठाईस हैं तथा शिव प्रत्येक में अवतार लेने की प्रतिज्ञा करते हैं। अन्तिम वक्तव्य यह है कि जब कृष्ण वासुदेव का अवतार ग्रहण करेंगे तब शिव अपनी योगशक्ति से कायारोहण स्थान पर अरक्षित एक मृतक शरीर में प्रवेश करेंगे तथा लकुली नामक संन्यासी के रूप में दिखाई पड़ेंगे। कुशिक, गार्ग्य, मित्र तथा कौरुष्य उनके शिष्य होंगे। ये पाशुपत योग का अभ्यास अपने शरीर पर भस्म लगाकर करेंगे।
एकलिङ्गजी (उदयपुर) के समीप एक पुराने मन्दिर के अभिलेख से यह पता चलता है कि शिवावतार भड़ौंच देश में हुआ तथा शिव एक लाठी (लुकुल) अपने हाथ में धारण करते थे। उस स्थान का नाम कायारोहण था। चित्रप्रशस्ति का मत है कि शिव का अवतार कारोहण (कायारोहण), लाट प्रदेश, में हुआ। वहाँ पाशुपत मत को भली भाँति पालन करने के लिए शरीरी रूप धारण कर चार शिष्य भी आविर्भूत हुए। वे थे कुशिक, गार्ग्य, कौरुष्य तथा मैत्रेय। भूतपूर् बड़ौदा राज्य का 'करजण' वह स्थान कहलाता है। यहाँ लकुलीश का मन्दिर भी वर्तमान है।
लकुलेश
लकुलीश सिद्धान्त पाशुपतों का ही एक विशिष्ट मत है। इसका उदय गुजरात में हुआ। वहाँ इसके दार्शनिक साहित्य का सातवीं शताब्दी के प्रारम्भ के पहले ही विकास हो चुका था, इसलिए उन लोगों ने शैव आगमों की नयी शिक्षाओं को नहीं माना। यह मत छठी से नवीं शताब्दी के बीच मैसूर और राजस्थान में भी फैल चुका था। शिव के अवतारों की सूची जो वायुपुराण से लिङ्ग और कूर्म पुराण में उद्धृत है, लकुलीश का उल्लेख करती है। वहाँ लकुलीश की मूर्ति का भी उल्लेख है, जो गुजरात के झरपतन नामक स्थान में है। यह सातवीं शताब्दी की बनी हुई है।
लकुलीश पाशुपत
लकुलीश पाशुपतों के सिद्धान्त का वर्णन 'सर्वदर्शनसंग्रह' में सायणाचार्य ने किया है, जिसका सार यह है :
जीव मात्र 'पशु' हैं। शिव 'पशुपति' हैं। भगवान् पशुपति ने बिनी किसी कारण, साधन या सहायता के इस संसार का निर्माण किया, अतः वे स्वतन्त्र कर्ता हैं। हमारे कर्मों के भी मूल कर्ता परमेश्वर हैं। अतः पशुपति सब कर्मों के कारण हैं। दे० 'पाशुपत'।
लक्षणार्द्रा व्रत
भाद्र कृष्ण अष्टमी को आर्द्रा नक्षत्र होने पर यह व्रत करना चाहिए। सर्वप्रथम उमा तथा शिव की प्रतिमाओं को पञ्चामृत से स्नान कराना चाहिए, तदनन्तर गन्धाक्षत-पुष्पादि से पूजन करना चाहिए। अर्घ्य, धूप, गेहूँ के आटे के मत्स्य आकृति वाले 32 प्रकार के खाद्य पदार्थ, जो पाँच प्रकार के रसों (दधि, दुग्ध, घृत, मधु, शर्करा) से युक्त हों तथा मोदक अर्पण करने चाहिए। तत्पश्चात् सुवर्ण, उपर्युक्त देवमूर्तियाँ तथा उत्तमोत्तम खाद्य पदार्थ दान में देना चाहिए। इस व्रत से समस्त पापों का नाश तो होता ही है, साथ ही सौन्दर्य, सम्पत्ति, दीर्घायु तथा यश भी प्राप्त होता है।
लक्षनमस्कारव्रत
आश्विन शुक्ल एकादशी से विष्णु भगवान् को एक लाख नमस्कार अर्पण करना चाहिए। पूर्णिमा तक व्रत की समाप्ति हो जानी चाहिए। इस अवसर पर भगवान् विष्णु का मन्त्र 'अतो देवाः' (ऋ० 1.22.16-21) उच्चारण करना चाहिए।
लक्षप्रदक्षिणाव्रत
इस व्रत में भगवान् विष्णु की एक लाख प्रदक्षिणाएँ करने का विधान है। चातुर्मास्य के प्रारम्भ के समय इसे आरम्भ कर कार्तिक की पौर्णमासी को समाप्त कर देना चाहिए।