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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

अनपदसूत्र (चतुर्थ साम)
इस ग्रन्थ में दस प्रपाठक हैं। इन सूत्रों का संग्रहकार ज्ञात नहीं है। पञ्चविंश ब्राह्मण के बहुत-से दुर्बोध वाक्यों की इसमें व्याख्या की गयी है। इसमें षड्विंश ब्राह्मण की भी चर्चा है। इस ग्रन्थ से बहुत-सी ऐतिहासिक सामग्री और प्राचीन ग्रन्थों के नाम भी ज्ञात होते हैं। जान पड़ता है कि इसके अतिरिक्त स्वतन्त्र रूप से सामवेद के श्रौतसूत्रों के कई ग्रन्थ सगृहीत हुए थे।

अनुपातक
जो कृत्य निम्न मार्ग की ओर प्रेरित करता है वह पाप है। उसके समान कर्म अनुपातक हैं। वेदनिन्दा आदि से उत्पन्न पाप को भी अनुपातक कहते हैं। उन पापों की गणना विष्णुस्मृति में की गयी है। यज्ञ में दीक्षित क्षत्रिय अथवा वैश्य, रजस्वला, गर्भवती, अविज्ञातगर्भ एवं शरणागत का बध करना ब्रह्महत्या के अनुपातक माने गये हैं। इननके अतिरिक्त 35 प्रकार के अनुपातक होते हैं, यथा-
(1) उत्कर्ष में मिथ्यावचन कहना। यह दो प्रकार का है, आत्मगामी और निन्दा (असूया) पूर्वक परगामी। (2) राजगामी पैशुन्य (शासक से किसी की चुगली करना)। (3) पिता के मिथ्या दोष कहना। [ये तीनों ब्रह्महत्या के समान हैं।] (4) वेद का त्याग (पढ़े हुए वेद को भूल जाना तथा वेदनिन्दा)। (5) झूठा साक्ष्य देना। यह दो प्रकार का है, ज्ञात वस्तु को न कहना और असत्य कहना। (6) मित्र का वध। (7) ब्राह्मण के अतिरिक्त अन्य जाति के मित्र का वध। (8) ज्ञानपूर्वक बार-बार निन्द्य अन्न भक्षण करना। (9) ज्ञानपूर्वक बार-बार निन्दित छत्राक आदि का भक्षण करना।
[ये छः मदिरा पीने से उत्पन्न पातक के समान हैं।] (10) किसी की धरोहर का हरण। (11) मनुष्य का हरण। (12) घोड़े का हरण। (13) चाँदी का हरण। (14) भूमि का हरण। (15) हीरे का हरण। (16) मणि का हरण। [ये सात सोने की चोरी के समान हैं।] (17) परिवार की स्त्री के साथ गमन। (18) कुमारी-गमन। (19) नीच कुल की स्त्री के साथ गमन। (20) मित्र की स्त्री के साथ गमन। (21) अन्य वर्ण की स्त्री से उत्पन्न पुत्र की स्‍त्री के साथ गमन।
(22) पुत्र की असवर्ण जाति वाली स्त्री के साथ गमन। [ये छः विमातृ-गमन के समान हैं।] (23) माता की बहिन के साथ गमन। (24) पिता की बहिन के साथ गमन। (25) सास के साथ गमन। (26) मामी के साथ गमन। (27) शिष्य की स्त्री के साथ गमन। (28) बहिन के साथ गमन। (29) आचार्य की भार्या के साथ गमन) (30) शरणागत स्त्री के साथ गमन। (31) रानी के साथ गमन। (32) संन्यासिनी के साथ गमन। (33) धात्री के साथ गमन। (34) साध्वी के साथ गमन। (35) उत्कृष्ट वर्ण की स्त्री के साथ गमन। [ये तेरह गुरु-पत्नी- गमन के समान अनुपातक हैं।]

अनुब्राह्मणग्रन्थ
ऐतरेय ब्राह्मण के पूर्व भाग में श्रौत विधियाँ हैं। उत्तर भाग में अन्य विधियाँ हैं। तैत्तिरीय ब्राह्मण में भी ऐसी ही व्यवस्थ देखी जाती है। उसके पहले भाग में श्रौत विधियाँ हैं। दूसरें में गृह्यमन्त्र एवं उपनिषद् भाग है। इस श्रेणीविभाग की कल्पना करने वालों के मत में साम-विधि का 'अनुब्राह्मण' नाम है। वे लोग कहते हैं कि पाणिनिसूत्र में अनुब्राह्मण का उल्लेख है (4।2।62 )। किन्तु सायण की विभाग-कल्पना में अनुब्राह्मण का उल्लेख नहीं है। साथ ही अनुब्राह्मण नाम के और किसी ग्रन्थ की कहीं चर्चा भी नहीं है । 'विधान' ग्रन्थों को 'अनुब्राह्मण ग्रन्थ' कहना सङ्गत जान पड़ता है।

अनुभवानन्द
अद्वैतमत के प्रतिपादक वेदान्तकल्पतरु, शास्त्रदर्पण, पञ्चपादिकादर्पण आदि के रचयिता आचार्य अमलानन्द के ये गुरु थे। इनका जीवनकाल तेरहवीं शताब्दी है।

अ(नु)णुभाष्य
ब्रह्मसूत्रों पर वल्लभाचार्य का रचा हुआ भाष्य। वल्लभाचार्य का मत शङ्कराचार्य एवं रामानुज से बहुत अंशों में भिन्न तथा मध्‍वाचार्य के मत से मिलता-जुलता है। आचार्य वल्लभ के मत में जीव अणु और परमात्मा का सेवक है। प्रपञ्चभेद (जगत्) सत्य है। ब्रह्म ही जगत् का निमित्त और उपादान कारण है। गोलोकाधिपति श्री कृष्ण ही परब्रह्म हैं, वही जीव के सेव्य हैं। जीवात्मा और परमात्मा दोनों शुद्ध हैं। इसी से इस मत का नाम शुद्धाद्वैत पड़ा है। वल्लभ के मतानुसार सेवा द्विविध है- फलरूपा एवं साधनरूपा। सर्वदा श्री कृष्ण की श्रवण-चिन्तन रूप मानसी सेवा फलरूपा एवं द्रव्यार्पण तथा शारीरिक सेवा साधनरूपा है। गोलोकस्थ परमानन्दसन्दोह श्री कृष्ण को गोपीभाव से प्राप्त करके उनकी सेवा करना ही मोक्ष है ('अनुभाष्य' नाम के लिए द्रष्टव्य 'अनुव्याख्यान '।)

अनुभूतिप्रकाश
माधवाचार्य अथवा स्वामी विद्यारण्य रचित 'अनुभूतिप्रकाश' में उपनिषदों की आख्यायिकाएँ श्लोकबद्ध कर संग्रह की गयी हैं। यह चौदहवीं शताब्दी का ग्रन्थ है।

अनुभूतिस्वरूपाचार्य
एक लोकप्रिय व्याकरण ग्रन्थकार। सरस्वतीप्रक्रिया नामक इनका लिखा 'सारस्वत' उपनामक ग्रन्थ पुराने पाठकों में अधिक प्रचलित रहा है। सिद्धान्तचन्द्रिका इसकी टीका है। इसमें सात सौ सूत्र हैं। कहते हैं कि सरस्वती के प्रसाद से यह ग्रन्थ इन आचार्य को प्राप्त हुआ था।

अनुमरण
पति की मृत्यु के पश्चात् पत्नी का मरण। पति के मर जाने पर उसकी खडाऊँ आदि लेकर जलती हुई चिता में बैठ पत्नी द्वारा प्राण त्याग करना अनुमरण कहलाता है :
देशान्तरमृते पत्यौ साध्वी तत्पादुकाद्वयम्। निधायोरसि संशुद्धा प्रविशेत् जातवेदसम्।। (ब्रह्मपुराण)
[देशान्तर में पति के मृत हो जाने पर स्त्री उसकी दोनों खड़ाऊँ हृदय पर रखकर पवित्र हो अग्नि में प्रवेश करे।]
ब्राह्मणी के लिए अनुमरण वर्जित है :
पृथक्चितिं समारुह्य न विप्रा गन्तुमर्हति।'
[ब्राह्मणी को अलग चिता बनाकर नहीं मरना चाहिए।]
उसके लिए सहमरण (मृत पति के साथ जलती हुई चिता में बैठकर मरण) विहित है-
भर्वनुसरणं काले याः कुर्वन्ति तथाविधाः। कामात्क्रोधाद् भयान्मोहात् सर्वाः पूता भवन्ति ताः।।
[जो समय पर विधिपूर्वक काम, क्रोध, भय अथवा लोभ से पति के साथ सती होती हैं वे सब पवित्र हो जाती हैं।] दे. 'सती'।

अनुमान
ज्ञान-साधन प्रमाणों में से एक। न्याय (तर्क) का मुख्य विषय प्रमाण है। प्रमा यथार्थ ज्ञान को कहते हैं। यथार्थ ज्ञान का जो करण हो अर्थात् जिसके द्वारा यथार्थ ज्ञान प्राप्त हो उसे प्रमाण कहते हैं। गौतम ने चार प्रमाण माने हैं- प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द। वस्तु के साथ इन्द्रिय-संयोग होने से जो उसका ज्ञान होता है वह प्रत्यक्ष है। लिङ्ग-लिङ्गी के प्रत्यक्ष ज्ञान से उत्पन्न ज्ञान को अनुमिति तथा उसके करण को अनुमान कहते हैं। जैसे, हमने बराबर देखा कि जहाँ धुआ रहता है वहाँ आग रहती है। इसी की व्याप्ति-ज्ञान कहते हैं जो अनुमान की पहली सीढ़ी है। कहीं धुआँ देखा गया, जो आग का लिङ्ग (चिह्न) है और मन में ध्यान आ गया कि 'जिस धुएँ के साथ सदा आग रहती है वह यहाँ है'- इसी को परामर्श ज्ञान या 'व्याप्तिविशिष्ट पक्षधर्मता' कहते हैं। इसके अनन्तर यह ज्ञान या अनुमान उत्पन्न हुआ कि 'यहाँ आग है'। अपने समझने के लिए तो उपर्युक्त तीन खण्ड पर्याप्त हैं, परन्तु नैयायिकों का कार्य है दूसरे के मन में ज्ञान कराना। इससे वे अनुमान के पाँच खण्ड करते हैं जो अवयव कहलाते हैं :
(1) प्रतिज्ञा- साध्य का निर्देश करने वाला, अर्थात् अनुमान से जो बात सिद्ध करनी है उसका वर्णन करनेवाला वाक्य- जैसे, 'यहाँ पर आग है'। (2) हेतु- जिस लक्षण या चिह्न से बात प्रमाणित की जाती है- जैसे, 'क्योंकि यहाँ धुआँ हैं।' (3) उदाहरण- सिद्ध की जाने वाली वस्तु अपने चिह्न के साथ जहाँ देखी गयी है उसे बतलाने वाला वाक्य-जैसे, 'जहाँ-जहाँ धुआँ रहता है वहाँ-वहाँ आग रहती है', जैसे, 'रसोईधर में।' (4) उपनय- जो वाक्य बतलाये हुए चिह्न या लिङ्ग का होना प्रकट करे - जैसे, 'यहाँ पर धुआँ है।' (5) निगमन- सिद्ध की जानेवाली बात सिद्ध हो गयी, यह कथन। अतः अनुमान का पूरा रूप यों हुआ-
(1) यहाँ पर अग्नि है (प्रतिज्ञा)। (2) क्योंकि यहाँ धुआँ है (हेतु)। (3) जहाँ-जहाँ धुआँ रहता है वहाँ-वहाँ अग्नि रहती है- जैसे रसोई घर में (उदाहरण)। (4) यहाँ पर धुआँ है (उपनय)। (5) इसलिए यहाँ पर अग्नि है (निगमन)।
साधारणतः इन पाँच अवयवों से युक्त वाक्य को 'न्याय' कहते हैं। नवीन नैयायिक इन पाँचों अवयवों का मानना आवश्यक नहीं समझते। वे अनुमान प्रमाण के लिए प्रतिज्ञा, हेतु और दृष्टान्त इन्हीं तीनों को पर्याप्त समझते हैं।

अनुराधा
अश्विनी से सत्रहवाँ नक्षत्र, जो विशाखा के बाद आता है। उसका रूप सर्पाकार सात ताराओं से युक्त और अधिदेवता मित्र है। इस नक्षत्र में उत्पन्न शिशु के लक्षण निम्नोक्त हैं -
सत्कीर्तिकान्तिश्च सदोत्सवः स्यात्, जेता रिपूणाञ्च कलाप्रवीणः। स्यात्सम्भवे यस्य किलानुराधा, सम्पत्प्रमोदौ विविधौ भवेताम्।।
[जिसके जन्मकाल में अनुराधा नक्षत्र हो वह यशस्वी, कान्तिमान्, सदा उत्सव से युक्त, शत्रुओं का विजेता, कलाओं में प्रवीण, सम्पत्तिशाली और अनेक प्रकार से प्रमोद करने वाला होता है।]


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