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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

अनिरुद्ध
(1) प्रद्युम्न (कामदेव) का पुत्र। इसका पर्याय है उषापति। यह भगवान् के चार व्यूहों के अन्तर्गत एक व्यूह है। इससे सृष्टि होती है :
तमसो ब्रह्मसम्भूतं तमोमूलामृतात्मकम्। तद् विश्वभावसंज्ञान्तं पौरुषी तनुमाश्रितम्।। सोऽनिरुद्ध इति प्रोक्तस्तत् प्रधानं प्रचक्षते। तदव्यक्तमिति ज्ञेयं त्रिगुणं नृपसत्तम।। विद्यासहायवान् देवो विष्वक्सेनो हरिः प्रभुः। अप्स्वेव शयनञ्चके निद्रायोगमुपागतः।। जगतश्चिन्तयन् सृष्टि महानात्मगुणः स्मृतः।। (महाभारत, मोक्षधर्म.)
[तमोगुण के द्वारा ब्रह्म से उत्पन्न, तमोगुण मूलक, अमृत से युक्त, विश्व नामक वह पुरुष के शरीर में स्थित है। उसे अनिरुद्ध कहते हैं। उससे त्रिगुणात्मक अव्यक्त की उत्पत्ति हुई। विद्याओं के बल से युक्त देव विष्वक्सेन प्रभु हरि ने संसार के सर्जन की चिन्ता करते हुए जल में शयन किया और वे योगनिद्रा को प्राप्त हुए। यह महत्तत्त्व (बुद्धितत्त्व) आत्मा का गुण है।]
(2) महाभारत, मोक्षधर्म पर्व के नारायणीय खण्ड में व्यूह (प्रसार) सिद्धान्त का वर्णन है। इस सिद्धान्त के अनुसार वासुदेव (विष्णु) से संकर्षण, संकर्षण से प्रद्युम्न, प्रद्युम्न से अनिरुद्ध तथा अनिरुद्ध से ब्रह्मा का उद्भव हुआ है। संकर्षण तथा रूप में निरूपण होता है। वासुदेव को परम सत्य (परमात्मा), संकर्षण को प्रकृति, प्रद्युम्न को मनस्, अनिरुद्ध को अहंकार एवं ब्रह्मा को पंचभूतों के रूप में ग्रहण किया गया है।
यह कहना कठिन है कि इस सिद्धान्त के पीछे क्या अर्थ छिपा है। वासुदेव कृष्ण हैं, बलराम या सकर्षण उनके भाई हैं, प्रद्युम्न उनके पुत्र तथा अनिरुद्ध उनके पौत्र हैं। हो सकता है कि ये तीनों देवों के रूप में पूजे जाते रहे हों और पीछे इनका सम्बन्ध कृष्ण से स्थापित कर व्यूह-सिद्धान्त का निर्माण कर लिया गया हो। ऐतिहासिक पुरुषों के दैवीकरण का यह एक उदाहरण है।

अनिरुद्धवृत्ति
अनिरुद्ध रचित 'सांख्यसूत्रवृत्ति' का ही अन्य नाम 'अनिरुद्धवृत्ति' है। इसका रचनाकाल 1500 ई. के लगभग है।

अनिर्वचनीय
निर्वचन के अयोग्य, अनिर्वाच्य अथवा वाक्यागम्य। वेदान्तसार में कथन है :
सदसद्भ्यामनिर्वचनीयं त्रिगुणात्मकं भावरूपं ज्ञान-विरोधि यत् किञ्चिदिति वदन्ति।'
[सत्-असत् के द्वारा अकथनीय, त्रिगुणात्मक भावरूप, ज्ञान का विरोधी जो कुछ है उसे अनिर्वचनीय कहते हैं।]
वेदान्त दर्शन में परमतत्त्व ब्रह्म को भी अनिर्वचनीय कहा गया है, जिसका निरूपण नहीं हो सकता। इस सिद्धान्त को अनिर्वचनीयतावाद कहते हैं। माध्यमिक बौद्धों के शून्यतासिद्धान्त से यह मिलता-जुलता है। इसीलिए आचार्य शङ्कर को प्रच्छन्न बौद्ध कहा जाने लगा।

अनिर्वचनीयतासर्वस्व
नैषधचरित महाकाव्य के रचयिता श्रीहर्ष द्वारा रचित 'खण्डनखण्डखाद्य' का ही अन्य नाम 'अनिर्वचनीयतासर्वस्व' है। इसमें अद्वैत वेदान्तमत के सिवा न्याय, सांख्य आदि सभी दर्शनों का खण्डन हुआ है, विशेष कर उदयनाचार्य के न्यायमत का। स्वामी शङ्कराचार्य का मायावाद अनिर्वचनीय ख्याति के ऊपर ही अवलम्बित है। उनके सिद्धान्तानुसार कार्य और कारण भिन्न, अभिन्न तथा भिन्नाभिन्न भी नहीं है, अपितु अनिर्वचनीय हैं। श्रीहर्ष ने खण्डनखण्डखाद्य में इस मत के सभी विपक्षों का बड़ी सफलता के साथ खण्डन किया है। साथ ही जिन प्रमाणों द्वारा वे लोग अपना पक्ष सिद्ध करते हैं उन प्रत्यक्षादि प्रमाणों का भी खण्डन करते हुए अप्रमेय, अद्वितीय एवं अखण्ड वस्तु की स्थापना उन्होंने की है।

अनीश्वरवाद (सांख्य का)
योगदर्शनकार पतञ्जलि ने आत्मा और जगत् के सम्बन्ध में सांख्यदर्शन के सिद्धान्तों का ही प्रतिपादन एवं समर्थन किया है। उन्होंने भी वे ही पचीस तत्त्व माने हैं जो सांख्यकार ने माने हैं। इसलिए योग एवं सांख्य दोनों दर्शन मोटे तौर पर एक ही समझे जाते हैं, किन्तु योगदर्शनकार ने कपिल की अपेक्षा एक और छब्बीसवाँ तत्त्व 'पुरुष विशेष' अथवा ईश्वर भी माना है। इस प्रकार ये सांख्य के अनीश्वरवाद से बच गये हैं। सांख्यदर्शन सत्कार्यवाद सिद्धान्त को मानता है। तदनुसार ऐसी कोई भी वस्तु उत्पन्न नहीं हो सकती, जो पहले से अस्तित्व में न हो। कारण का अर्थ केवल फल को स्पष्ट रूप देना है अथवा अपने में स्थित कुछ गुणों के रूप को व्यक्त करना। परिणाम की उत्पत्ति केवल कारण के भीतरी परिवर्तन से, उसके परमाणुओं की नयी व्यवस्था के कारण होती है। केवल कारण एवं परिणाम के मध्य की एक साधारण बाधा दूर करने मात्र से मनोवांछित फल प्राप्त होता है। कार्य सत् है, वह कारण में पहले से उपस्थित है, परिणाम लाने की चेष्टा के पूर्व भी परिणाम कारण में उपस्थित रहता है, यथा अलसी में तेल, पत्थर में मूर्ति, दूध में दही एवं दही में मक्खन। 'कारक व्यापार' केवल फल को आविर्भूत करता है, जो पहले तिरोहित था।
सांख्यमतानुसार सभी प्रवृत्तियाँ स्वार्थ (अपने वास्ते) होती हैं, या परार्थ (दूसरे के वास्ते)। प्रकृति तो जड़ है। इसको अपने प्रयोजन और दूसरे के प्रयोजन का कुछ ज्ञान नहीं है। तब इसकी प्रवृत्ति किस तरह होगी। यदि कहें कि चेतन जीवात्मा अधिष्ठाता होकर प्रवृत्ति करा देगा तो यह भी नहीं बनता, क्योंकि जीवात्मा प्रकृति के सम्पूर्ण रूप को जानता नहीं, फिर उसका अधिष्ठाता कैसे हो सकता है ? इसलिए प्रकृति की प्रवृत्ति के लिए सर्वज्ञ अधिष्ठाता ईश्वर मानना चाहिए। किन्तु इस तर्क से ईश्वर की सिद्धि नहीं होती, क्योंकि पूर्णकाम ईश्वर का अपना कुछ प्रयोजन नहीं है, फिर वह अपने वास्ते, या दूसरे के लिए जगत् को क्यों रचेगा ? बुद्धिमान् पुरुष की प्रवृत्ति निज प्रयोजनार्थ, अपने ही लिए संभव है, अन्य के लिए नहीं। यदि कहें कि दया से निष्प्रयोजन प्रवृत्ति भी हो जाती है, तो यह भी सम्भव नहीं है, क्योंकि सृष्टि से पहले कोई प्राणी नहीं था, फिर किसके दुःख को देखकर करुणा हुई होगी ? यदि ईश्वर ने करुणा के वश होकर सृष्टि की होती तो वह सबको सुखी ही बनाता, दुःखी नहीं। पर ऐसा देखने में नहीं आता, अपितु जगत् की सृष्टि विचित्र देखी जाती है। यदि कहें कि जीवों के कर्माधीन होकर ईश्वर विचित्र सृष्टि करता है, तो कर्म की प्रधानता हुई, फिर बकरी के गले के निष्प्रयोजन स्तन की तरह ईश्वर मानने की कोई आवश्यकता नहीं। इस प्रकार सांख्य का सिद्धान्त है कि ईश्वर की सत्ता में कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है, अतः उसकी सिद्धि नहीं हो सकती (ईश्वरासिद्धेः)।

अनुक्रमणिका (कात्यायन की)
वेदों के विषयगत विभाजन को अनुक्रमणिका कहा जाता है। ऋग्वेद का दस मण्डलों में विभाजन ऐतरेय आरण्यक और आश्वलायन तथा शांखायन के गृह्यसूत्रों में सबसे पहले देखने में आता है। कात्यायन की अनुक्रमणिका में मण्डल विभाजन का उल्लेख नहीं है। कात्यायन ने दूसरे प्रकार के विभाजन का अनुसरण करके अष्टकों और अध्यायों में ऋग्वेद को विभक्त माना है।

अनुक्रमणिका और संहिता
अनुक्रमणिका में संहिता और ब्राह्मणग्रन्थों में कोई भेद नहीं किया गया है। किसी-किसी शाखा में जिन बातों का उल्लेख संहिता में नहीं है, ब्राह्मणग्रन्थों में उनका उल्लेख हुआ है। जैसे, नरमेध यज्ञ का उल्लेख संहिता में नहीं है, परन्तु ब्राह्मणग्रन्थों में है।

अनुक्रमणी
वैदिक साहित्य के अन्तर्गत एक तरह का ग्रन्थ। इससे छ्न्द, देवता और मन्त्र-द्रष्‍टा ऋषि का पर्यायक्रम से पता लगता है। ऋक्‍संहिता की अनुक्रमणियां अनेक हैं जिनमें शौनक की रची और कात्‍यायन की रची सर्वानुक्रमणी अधिक प्रसिद्ध हैं। इन्‍हीं पर बहुत विस्‍तृत विस्तृत एवं सुलिखित टीकाएँ हैं। एक टीकाकार का नाम षड्गुरुशिष्य है। यह पता नहीं कि इनका वास्तविक नाम क्या था और इन्होंने कब यह ग्रन्थ लिखा।

अनुगीता
महाभारत में श्रीमद्भगद्गीता के अतिरिक्त अनुगीता भी पायी जाती है। यह गीता का सीधा अनुकरण है। इसके परिच्छेदों में अध्यात्म सम्बन्धी विज्ञान की कोई विशेषता परिलक्षित नहीं होता, किन्तु शेष, विष्णु, ब्रह्मा आदि के पौराणिक चित्रों के दर्शन यहाँ होते हैं। विष्णु के छः अवतारों- वराह, नृसिंह, वामन, मत्स्य, राम एवं कृष्ण का भी वर्णन पाया जाता है।

अनुग्रह
शिव की कृपा का नाम। पाशुपत सिद्धान्तानुसार पशु (जीव) पाश (बन्धन) में बँधा हुआ है। यह पाश तीन प्रकार का है-आणव (अज्ञान), कर्म (कार्य के परिणाम) और माया (जो इस सृष्टि के स्वरूप का कारण है)। शाङ्कर मत में जो माया वर्णित है उससे यह माया भिन्न है। यहाँ दृश्य जगत् के यथार्थ प्रभाव को दर्शाने, सत्य को ढँकने एवं धोखा देने के अर्थ में यह प्रयुक्त हुई है। इन बन्धनों में जकड़ा हुआ पशु सीमित है, अपने शरीर (आवरण) से घिरा हुआ है। 'शक्ति' इन सभी बन्धनों में व्याप्त है और इसी के माध्यम से पति का आत्मा को अन्धकार में रखने का व्यापार चलता है। शक्ति का व्यापकत्व पति की दया अथवा अनुग्रह में भी है। इस अनुग्रह से ही क्रमशः बन्धन कटते हैं तथा आत्मा की मुक्ति होती है ।


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