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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

अन्तःकरण
भीतर की ज्ञानेन्द्रिय। इसका पर्याय मन है। कार्यभेद से इसके चार नाम हैं :
मनोबुद्धिरहङ्कारश्चितं करणमान्तरम्। संशयो निश्चयो गर्वः स्मरणं विषया अमी।। (वेदान्तसार)
[मन, बुद्धि, अहंकार और चित ये चार अन्तःकरण हैं। संशय, निश्चय, गर्व और स्मरण ये चार क्रमशः इनके विषय हैं।] इन सबकों मिलाकर एक अन्तःकरण कहलाता है। पाँच महाभूतों में स्थित सूक्ष्म तन्मात्राओं के अंशों से अन्तःकरण बनता है।

अन्तःकरणप्रबोध
वल्लभाचार्य द्वारा रचित सोलहवीं शताब्दी का एक पुष्टिमार्गीय दार्शनिक ग्रन्थ।

अन्तक
यम का पर्याय, अन्त (विनाश) करने वाला।

अन्तरात्मा
सर्वप्रथम उपनिषदों में आभ्यन्तरिक चेतन (आत्मा) के लिए इस शब्द का प्रयोग हुआ है। इसका समानार्थी शब्द है 'अन्तर्यामी'। यह अतिरेकी सत्ता का दूसरा छोर है जो घट-घट में व्याप्त है।

अन्तर्यामी
(1) 'श्रीसम्प्रदाय' भागवत सम्प्रदाय का एक महत्त्वपूर्ण वर्ग है। शङ्कराचार्य के वेदान्तसिद्धान्त का तिरस्कार करता हुआ यह मत उपनिषदों के प्राचीन ब्रह्मवाद पर विश्वास रखता है। इसके अनुसार सगुण भगवान् को वैष्णव लोग उपनिषदों के ब्रह्मतुल्य बतलाते हैं और कहते हैं कि प्रत्येक वस्तु का अस्तित्व उसी में है तथा वह सभी अच्छे गुणों से युक्त हैं। सभी पदार्थ तथा आत्मा उसी से उत्पन्न हुए हैं तथा वह अन्तर्यामी रूप में सभी वस्तुओं में व्याप्त है।
(2) यह ईश्वर का एक विशेषण है। हृदय में स्थित होकर जो इन्द्रियों को उनके कार्य में लगाता है वह अन्तर्यामी है। 'वेदान्तसार' के अनुसार विशुद्ध सत्त्वप्रधान ज्ञान से उपहित चैतन्य अन्तर्यामी कहलाता है :
अन्तराविश्य भुतानि यो बिभर्त्यात्मकेतुभिः। अन्तर्यामीश्वरः साक्षात् पातु नो यद्वशे स्फुटम्।।
[प्राणियों के अन्तःकरण में प्रविष्ट होकर जो अपने ज्ञानरूपी केतु के द्वारा उनकी रक्षा करता है, वह साक्षात् ईश्वर अन्तर्यामी है। वह हम लोगों की रक्षा करे, जिसके वश में पूरा संसार है।]

अन्तेवासी
वेदाध्ययनार्थ गुरू के समीप रहने वाला छात्र। अन्तेवासी ब्रह्मचारी गुरुगृह में रहकर विद्याभ्यास करता था और उसके योग-क्षेम की पूरी व्यवस्था गुरू अथवा आचार्य को करनी पड़ती थी।
छान्दोग्य उपनिषद् (2.23.1) के अनुसार ब्रह्मचारी को अन्तेवासी की तरह गुरुगृह में रहना पड़ता था। रुचिसाम्य एवं बुद्धिवैचित्र्य में आचार्य के तुल्य हो जाने पर बहुत से ब्रह्मचारी गुरुगृह में आजीवन रह जाते थे। उन्हे गुरुसेवा, गुरु-आज्ञाओं का पालन, समिधा जुटाना, गौओं को चराना आदि काम करने पड़ते थे।

अन्त्यज
अन्त्य में उत्पन्न। संस्कृत (सभ्य) उपनिवेशों के बाहर जंगली औऱ पर्वतीय प्रदेशों को अन्त्य कहते थे और वहाँ बसने वालों को अन्त्यज। धीरे-धीरे समाज की निम्नतम जातियों में ये लोग मिलते जाते थे। इनमें से कुछ की गणना इस प्रकार हैं :
रजकश्चर्मकारश्च नटो वरुड एव च। कैवर्तमेदभिल्लाश्च सप्तैते अन्त्यजाः स्मृताः।।
[धोबी, चर्मकार, नट, वरुड, कैवर्त, मेद, भिल्ल ये सात अन्त्यज कहे गये हैं।]
आचार-विचार की अपवित्रता के कारण अन्त्यज अस्पृश्य भी माने जाते थे। इनके समाजीकरण का एक क्रम था, जिसके अनुसार इनका उत्थान होता था। सम्पर्क द्वारा पहले ये समाज में शूद्रवर्ण में प्रवेश पाते थे। शूद्र से सच्छूद्र, सच्छूद्र से वैश्य, वैश्य से क्षत्रिय और क्षत्रिय से ब्राह्मण- इस प्रकार अनेक पीढ़ियों में ब्राह्मण होने की प्रक्रिया वर्णोत्कर्ष के सिद्धान्त के अनुसार प्राचीन काल में मान्य थी। मध्ययुग में संकीर्णता तथा वर्जनशीलता के कारण इस प्रक्रिया में जड़ता आ गयी। अब नये ढंग से समतावादी सिद्धान्तों के आधार पर अन्त्यजों का समाजीकरण हो रहा है।

अन्त्येष्टिसंस्कार
हिन्दू जीवन के प्रसिद्ध सोलह संस्कारों में से यह अंतिम संस्कार है, जिसके द्वारा मृत व्यक्ति की दाहक्रिया आदि की जाती है। अन्त्येष्टि का अर्थ है 'अंतिम यज्ञ'। दूसरे शब्दों में जीवन-यज्ञ की यह अन्तिम प्रक्रिया है। प्रथम पन्द्रह संस्‍कार ऐहिक जीवन को पवित्र और सुखी बनाने के लिए हैं। बौधायनपितृमेधसूत्र (3.1.4) मे कहा गया हैं : 'जातसंस्कारेणेमं लोकमभिजयति मृत संस्कारेणामं लोकम्।' [जातकर्म आदि संस्कारों से मनुष्य इस लोक को जीतता है; मृतसंस्कार (अन्त्येष्टि) से परलोक को।]
यह अनिवार्य संस्कार है। रोगी को मृत्यु से बचाने के लिए अथक प्रयास करने पर भी समय अथवा असमय में उसकी मृत्यु होती ही है। इस स्थिति को स्वीकार करते हुए बौधायन (पितृमेध सूत्र, 33) ने पुनः कहा है :
जातस्य वै मनुष्यस्य ध्रुवं मरणमिति विजानीयात्। तस्माज्जाते न प्रह्यष्येन्मृते च न विषीदेत्। अकस्मादागतं भूतमकस्मादेव गच्छति। तस्माज्जातं मृतञ्चैव सम्पश्यन्ति सुचेतसः।
[उत्पन्न हुए मनुष्य का मरण ध्रुव है, ऐसा जानना चाहिए। इसलिए किसी के जन्म लेने पर न तो प्रसन्नता से फूल जाना चाहिए और न किसी के मरने पर अत्यन्त विषाद करना चाहिये। यह जीवधारी अकस्मात् कहीं से आता है और अकस्मात् कहीं चला जाता है। इसलिए बुद्धिमान् को जन्म और मरण को समान रूप से देखना चाहिए।]
तस्मान्मातरं पितरमाचार्यं पत्नीं पुत्रं शिष्‍यमन्तेवासिनं पितृव्यं मातुलं सगोत्रमसगोत्रं वा दायमुपयच्छेद्दहनं संस्कारेण संस्कुर्वन्ति।
[इसलिए यदि मृत्‍यु हो ही जाय तो माता, पिता, आचार्य, पत्नी, पुत्र, शिष्य (अन्तेवासी), पितृव्य (चाचा), मातुल (मामा), सगोत्र, असगोत्र का दाय (दायित्व) ग्रहण करना चाहिए और संस्कारपूर्वक उसका दाह करना चाहिए।]
अत्येष्टिक्रिया की विधियाँ कालक्रम से बदलती रही हैं। पहले शव को वैसा ही छोड़ दिया जाता था या जल में प्रवाहित कर दिया जाता था। बाद में उसे किसी वृक्ष की डाल से लटका देते थे। आगे चलकर समाधि (गाड़ने) की प्रथा चली। वैदिक काल में जब यज्ञ की प्रधानता हुई तो मृत शरीर भी यज्ञाग्नि द्वारा ही दग्ध होने लगा और दाहसंस्कार की प्रधानता हो गयी ('ये निखाता ये परोप्ता येदग्धा ये चोद्धिताः'- अथर्ववेद, 18.2.34)। हिन्दुओं में शव का दाह संस्कार ही बहुप्रचलित है : यद्यपि किन्हीं-किन्हीं अवस्थाओं में अपवाद रूप से जल-प्रवाह और समाधि की प्रथा भी अभी जीवित है।
सम्पूर्ण अन्त्येष्टिसंस्कार को निम्नांकित खण्डों में बाँटा जा सकता है :
(1) मृत्यु के आगमन के पूर्व की क्रिया - क. सम्बन्धियों से अंतिम विदाई ख. दान-पुण्य ग. वैतरणी (गाय का दान) घ. मृत्यु की तैयारी (2) प्राग्-दाह के विधि-विधान (3) अर्थी (4) शवोत्थान (5) शवयात्रा (6) अनुस्तरणी (राजगवी : श्मशान की गाय) (7) दाह की तैयारी (8) विधवा का चितारोहण (कलि में वर्जित) (9) दाहयज्ञ (10) प्रत्यावर्तन (श्मशान से लौटना) (11) उदककर्म (12) शौकतों को सान्त्वना (13) अशौच (सामयिक छूत : अस्पृश्यता) (14) अस्थिसञ्चयन (15) शान्तिकर्म (16) श्मशान (अवशेष पर समाधिनिर्माण)। आजकल अवशेष का जलप्रवाह और उसके कुछ अंश का गङ्गा अथवा अन्य किसी पवित्र नदी में प्रवाह होता है। (17) पिण्डदान (मृत के प्रेत जीवन में उनके लिए भोजन-दान) (18) सपिण्डीकरण (पितृलोक में पितरों के साथ प्रेत को मिलाना)। यह क्रिया बारहवें दिन सोन पक्ष के अन्त में अथवा एक वर्ष के अन्त में होती है। ऐसा विश्वास है कि प्रेत को पितृलोक में पहुँचने में एक वर्ष लगता है।
असामयिक अथवा असाधारण-स्थिति में मृत व्यक्तियों के अन्त्येष्टिसंस्कार में कई अपवाद अथवा विशेष क्रियाएँ होती हैं। आहिताग्नि, अनाहिताग्नि, शिशु, गर्भिणी, नवप्रसूता, रजस्वला, परिव्राजक-संन्यासी-वानप्रस्थ, प्रवासी और पतित के संस्कार विभिन्न विधियों से होते हैं।
हिन्दुओं में जीवच्छाद्ध की प्रथा भी प्रचलित है। धार्मिक हिन्दू का विश्वास है कि सद्गति (स्वर्ग अथवा मोक्ष) की प्राप्ति के लिए विधिपूर्वक अन्त्येष्टिसंस्कार आवश्यक है। यदि किसी का पुत्र न हो, अथवा यदि उसको इस बात का आश्वासन न हो कि मरने के पश्चात् उसकी सविधि अन्त्येष्टि क्रिया होगी, तो वह अपने जीते-जी अपना श्राद्धकर्म स्वयं कर सकता है। उसका पुतला बनाकर उसका दाह होता है। शेष क्रियाएँ सामान्य रूप से होती हैं। बहुत से लोग संन्यास आश्रम में प्रवेश के पूर्व अपना जीवच्छाद्ध कर लेते हैं।

अन्धक
(1) एक यदुवंशी व्यक्ति का नाम। यादवों के एक राजनीतिक गण का भी नाम अन्धक था। वृष्णि एक गणसंघ था :
सुदंष्ट्रं च सुचारुञ्च कृष्णमित्यन्धकास्त्रयः। (हरिवंश)
[सुदंष्ट्र, सुचारु और कृष्ण ये तीन अन्धक गण के सदस्य कहे गये हैं।]
(2) एक असुर का नाम, जिसका वध शिव ने किया था।

अन्धकरिपु
अन्धक दैत्य के शत्रु अर्थात् शिव। श्लेष आदि अलंकारों में अन्धकार का नाश करने वाले सूर्य, अग्नि, चन्द्रमा को भी अन्धकरिपु कहा गया है।


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