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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

अद्भुत ब्राह्मण
अद्भुत ब्राह्मण का सम्बन्ध सामवेद से है। इसमें अपशकुन तथा उनके निवारण का वर्णन है।

अद्भुत रामायण
रामभक्ति शाखा का एक ग्रन्थ। इसकी रचना अध्यात्मरामायण के पूर्व की मानी जाती है, क्योंकि अध्यात्मरामायण का रचयिता अद्भुत रामायण, भुसुण्डिरामायण, योगवासिष्ठ आदि रामभक्ति विषयक ग्रन्थों से परिचित था। अद्भुत रामायण में अखिल विश्व की जननी सीताजी के परात्परा शक्ति वाले रूप की बहुत सुन्दर स्तुति की गयी है।

अद्वयवादी
भारतीय दार्शनिकों को मोटे तौर पर तीन श्रेणियों में रखा गया है : (1) आस्तिक, (2) नास्तिक और (3) अद्वयवादी। अद्वयवादी वे दार्शनिक हैं जो अद्वैत वाद में विश्वास रखते हैं। दे. 'अद्वैतवाद'।

अद्वैत
यह शब्द अ+द्वैत से व्युत्पन्न है, जिसका अर्थ है द्वैत (दो के भाव) का अभाव। दर्शन में इसका प्रयोग 'मूल सत्ता' के निर्देश के लिए हुआ है। इसके अनुसार वस्तुतः एक ही सत्ता 'ब्रह्म' है। आत्मा और जगत् अथवा आत्मा और प्रकृति में जो द्वैत दिखाई पड़ता है वह वास्तविक नहीं है; वह माया अथवा अविद्या का परिणाम है। सम्पूर्ण विश्वप्रपञ्च अपने बदलते हुए दृश्यों के साथ मिथ्या है, केवल ब्रह्म सत्य है। अंतिम विश्लेषण में आत्मा और ब्रह्म भी एक ही हैं। इस सिद्धान्त का पोषण जो दर्शन करता है वह अद्वैत है। दे. 'वेदान्त' और 'शङ्कराचार्य'।

अद्वैतचिन्ताकौस्तुभ
अद्वैतवादी सिद्धान्त पर महादेव सरस्वती द्वारा लिखित 'तत्त्वानुसन्धान' के ऊपर उन्हीं के द्वारा लिखी गयी टीका। इस ग्रन्थ का रचनाकाल अठारहवीं शताब्दी है।

अद्वैतदीपिका
अद्वैत वेदान्त का एक युक्तिप्रधान ग्रन्थ। इसके रचयिता नृसिंहाश्रम सरस्वती अद्वैत सम्प्रदाय के प्रमुख आचार्यों में गिने जाते हैं। इसका रचनाकाल सोलहवीं शताब्दी का उत्तरार्ध होना चाहिए।

अद्वैतब्रह्मसिद्धि
अद्वैत मत का एक प्रामाणिक ग्रन्थ। इसके रचयिता काश्मीरक सदानन्द यति कश्मीरदेशीय थे। रचनाकाल 17वीं शताब्दी है। इसमें प्रतिबिम्बवाद एवं अवच्छिन्नवाद सम्बन्धी मतभेदों की विशेष विवेचना में न पड़कर 'एकब्रह्मवाद' को ही वेदान्त का मुख्य सिद्धान्त बतलाया गया है। जब तक प्रबल साधना के द्वारा जिज्ञासु ऐकात्म्य का अनुभव नहीं कर लेता तब तक वह इस वाग्जाल में फँसा रहता है, अन्यथा 'ज्ञाते द्वैतं न विद्यते।'

अद्वैतरत्न
मल्लनाराध्य कृत सोलहवीं शताब्दी का एक प्रकरण ग्रन्थ। इसके ऊपर 'तत्‍त्‍वदीपन' नामक टीका स्वयं ग्रन्थकार ने लिखी है। मल्लनाराध्य ने द्वैतवादियों के मत का खण्डन करने के लिए इस ग्रन्थ की रचना की थी।

अद्वैतरत्नलक्षण
मधुसूधन सरस्वती रचित यह ग्रन्थ द्वैतवाद का खण्डन करते हुए अद्वैतवाद की स्थापना करता है। यह 18वीं शताब्दी में रचा गया था।

अद्वैतरसमञ्जरी
सदाशिवेन्द्र सरस्वती द्वारा अठारहवीं शताब्दी में लिखी गयी, यह सरल एवं बावपूर्ण रचना है। यह प्रकाशित हो चुकी है। सदाशिवेन्द्र महान योगी और अद्वैतनिष्ठ महात्मा थे। उनके उत्कृष्ट जीवन की छाप इस ग्रन्थ में परिलक्षित होती है।


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