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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

अध्यासवाद
आचार्य शङ्कर ने ब्रह्मसूत्र का भाष्य लिखते समय सबसे पहले आत्मा और अनात्मा का विवेचन किया है। यदि सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाय तो सम्पूर्ण प्रपञ्च को दो प्रधान भागों में विभक्त किया जा सकता है- द्रष्टा और दृश्य। एक वह तत्त्व जो सम्पूर्ण प्रतीतियों का अनुभव करनेवाला है और दूसरा वह जो अनुभव का विषय है। इनमें समस्त प्रतीतियों के चरम साक्षी का नाम 'आत्मा' है और जो कुछ उसका विषय है वह सब 'अनात्मा' है। आत्मतत्त्व नित्य, निश्चल, निर्विकार, असङ्ग, कूटस्थ, एक और निर्विशेष है। बुद्धि से लेकर स्थूलभूत पर्यन्त जितना भी प्रपञ्च है उसका आत्मा से कुछ भी सम्बन्ध नही है। अज्ञान के कारण ही देह और इन्द्रियादि से अपना तादात्म्य स्वीकार कर जीव अपने को अन्धा, काना, मूर्ख, विद्वान्, सुखी-दुखी तथा कर्त्ता-भोक्ता मानता है। इस प्रकार बुद्धि आदि के साथ जो आत्मा का तादात्म्य हो रहा है उसे आचार्य ने 'अध्यास' शब्द से निरूपित किया है। आचार्य के सिद्धान्तानुसार सम्पूर्ण प्रपञ्च की सत्यत्वप्रतीति अध्यास अथवा माया के कारण होती है। इसी से अद्वैतावाद को अध्यासवाद अथवा मायावाद भी कहते हैं। इसका तात्पर्य यही है कि जितना भी दृश्यवर्ग है वह सब माया के कारण ही सत्य-सा प्रतीत होता है, वस्तुतः एक, अखण्ड, शुद्ध, चिन्मात्र ब्रह्म ही सत्य है।

अध्वर
अध्व = सन्मार्ग, र = देनेवाला, अर्थात् यज्ञकर्म। अथवा जहाँ हिंसा, क्रोध आदि कुटल कर्म न हों (न + ध्वर (अध्वर) सरल, स्वच्छ, शुभ कर्म :
तमध्वरे विश्वजिति क्षितीशम्' (रघ.)। 'इमं यज्ञमवतादध्वरं नः' (यजुः)।

अध्वर्यु
यज्ञों में देवताओं के स्तुतिमन्त्रों को जो पुरोहित गाता था उसे 'उद्गाता' कहते थे। जो पुरोहित यज्ञ का प्रधान होता था वह 'होता' कहलाता था। उसके सहायतार्थ एक तीसरा पुरोंहित होता था जो हाथ से यज्ञों की क्रियाएँ होता के निर्देशानुसार किया करता था। यही सदस्य 'अध्वर्यु' कहलाता था।

अनग्नि
जो श्रौत और स्मार्त अग्नियों में होम न करता हो। श्रौत और स्मार्त कर्महीन पुरुष को अनग्नि कहते हैं। संन्यासी को भी अनग्नि कहा गया है, जो गृहस्थ के लिए विहित कर्म को छोड़ देता है और केवल आत्मचिन्तन में रत रहता हैं :
अग्‍नीनात्मनि वैतानान् समारोप्य यथाविधि। अनग्निरनिकेतः स्यान्मुनिर्मूलफलाशनः।। (मनुस्मृति)
[वैतानादि अग्नियों को आत्मा में विधिपूर्वक स्थापित करके अग्निरहित तथा घररहित होकर मुनि मूल-फल का सेवन करे।]

अनघाष्टमीव्रत
मार्गशीर्ष कृष्ण अष्टमी को इस व्रत का अनुष्‍ठान होता है। दर्भों के बने हुए अनघ तथा अनघी का पूजन, जो वासुदेव तथा लक्ष्मी के प्रतीक हैं, 'अतो देवा.....' (ऋक् 22-16) मन्त्र के साथ किया जाता है। शूद्रों के द्वारा नमस्कार मात्र किया जाता है। दे. भविष्योत्तर पुराण, 58, 1; हेमाद्रि, व्रखण्ड,. 1. 813-14।

अनङ्ग
अङ्गरहित, कामदेव का पर्याय है। काम का जन्म चित्त या मन में माना जाता है। उसे आत्मभू एवं चित्तजन्मा भी कहते हैं। साहित्य में काम को प्रेम का देवता कहा गया है। इसके मन्मथ, मदन, कन्दर्प, स्मर, अनङ्ग आदि पर्याय हैं। प्रारम्भ में काम का अर्थ 'इच्छा' लिया जाता था, वह भी न केवल शारीरिक अपितु साधारणतया सभी अच्छी वस्तुओं की इच्छा। अथर्ववेद (9.2) में काम को इच्छा के मानुषीकरण रूप में मानकर जगाया गया है। किन्तु उसी वेद के दूसरे मन्त्र में (3.25) उसे शारीरिक प्रेम का देवता माना गया है और इसी क्रिया के अर्थ में इस शब्द का प्रयोग पुराणादि ग्रन्थों में हुआ है। उसके माता-पिता का विविधता से वर्णन है, किन्तु प्रायः उसे धर्म एवं लक्ष्मी की सन्तान कहा गया है। उसकी पत्नी का नाम 'रति' है जो शारीरिक भोग का प्रतीक है। उसका मित्र 'मधु' है जो वसन्त का प्रथम मास है। काम के दो पुत्रों का भी उल्लेख आता है, वे हैं हर्ष एवं यश।
काम सम्बन्धी सामग्री की पुष्टि उसके अस्त्र-शस्त्रों से भली-भाँति हो जाती है। वह पुष्पनिर्मित घनुष धारण करता है (पुष्पधन्वा)। इस धनुष की डोरी भ्रमरों की बनी होती है और बाण भी पुष्पों के ही होते हैं (कुसुम-शर)। ये बाण प्रेम के देवता के 'शोषण' एवं 'मोहन' आदि कर्मों के प्रतीक हैं। उसके ध्वज पर मत्स्य (मकर अतवा मत्स्यकेतु) है, जो 'प्रजनन' का प्रतीक है।
अनङ्ग की एक दूसरी पौराणिक व्याख्या कालिदास के 'कुमारसंभव' काव्य में पायी जाती है। कामदेव पहले अङ्गवान् (सशरीर) था। शिव को जीतने के लिए पार्वती के समक्ष जब वह अपना बाण उन पर छोड़ना चाहता था, तब शिव के तीसरे नेत्र की क्रोधाग्नि से वह जलकर भस्म हो गया :
क्रोधं प्रभो संहर संहरेति यावद् गिरः खे मरुतां चरन्ति। तावद्हि वह्निर्भवनेत्रजन्मा भस्मावशेषं मदनं चकार।।
इसके पश्चात् मदन (कामदेव) अनङ्ग (शरीररहित) हो गया। परन्तु उसकी शक्ति पहले से अधिक हो गयी। वह अब सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त हो गया।

अनङ्गत्रयोदशी
(1) मार्गशीर्ष शुक्ल त्रयोदशी से प्रारम्भ कर एक वर्षपर्यन्त यह व्रत किया जाता है। इसमें शम्भु की पूजा होती है, उनको पञ्चामृत से स्नान कराया जाता है। अनङ्ग को शिवाजी का स्वरूप माना जाता है और भिन्न-भिन्न नामों से, भिन्न-भिन्न पुष्पों तथा नैवेद्य से उसका भी पूजन किया जाता है।
(2) किसी आचार्य के अनुसार चैत्र और भाद्र शुक्ल त्रयोदशी को यह व्रत होता है। एक बार अथवा वर्ष भर प्रत्येक मास बारह भिन्न-भिन्न नामों से चित्रफलक पर पूजा होती है। दे. हेमाद्रि का व्रतखण्ड, 2. 8-9: पुरुषार्थचिन्तामणि, 223; निर्णयसिन्धु, 88।

अनङ्गदानव्रत
वेश्या के लिए हस्त, पुष्य अथवा पुनर्वसु नक्षत्र युक्त रविवासरीय व्रत। इसमें विष्णु तथा कामदेव का पूजन होता है। दे. कामदेव की स्तुति के लिए आपस्तम्बस्मृति, श्लोक 13; मत्स्यपुराण, अध्याय 70; पद्मपुराण, 23, 74.146।

अनन्त
जिसका विनाश और अन्त नहीं होता। इसका पर्याय शेष भी है। बलदेव को भी अनन्त कहा गया है। अव्यक्त प्रकृति का नाम भी अनन्त है, जिस पर विष्णु भगवान् शयन करते हैं। इसीलिए उनको 'अनन्तशायी' भी कहते हैं।

अनन्त चतुर्दशी
भाद्रपद शुक्ल चतुर्दशी। भविष्य पुराण के अनुसार इसका व्रत 14 वर्ष तक करना चाहिए। अग्नि पुराण, भविष्योत्तर पुराण एवं तिथितत्त्व आदि में अनन्तपूजा का विवरण है। पूजा में सर्वप्रथम संकल्प, फिर 'सर्वतोभद्र मण्डल' का निर्माण, उस पर कलश की स्थापना, जिस पर एक नाग जिसके सात फण हों और जो दर्भ का बना हो, रखा जाता है। इसके समक्ष 14 गाँठों से युक्त डोरक रखा जाता है। कलश के ऊपर डोरक की पौराणिक मन्त्रों एवं पुरुषसूक्त के पाठ के साथ 16 उपचारों से पूजा की जाती है। डोरक के चतुर्दश देवता, विष्णु से लेकर वसु तक, जगाये जाते हैं। फिर अङ्गों की पूजा की जाती है, जो पाद से आरम्भ होकर ऊपर तक पहुँचती है। मन्त्र यह है : 'अनन्ताय नमः पादौ पूजयामि '। फिर एक अञ्जलि पुष्प विष्णु के मन्त्र के साथ चढ़ाये जाते हैं। फिर अनन्त की प्रार्थना सहित 'डोरक' को बाहु पर बाँधना, पुराने 'डोरक' को त्यागना आदि क्रियाएँ की जाती हैं।
इस व्रत में नमक का परित्याग करना पड़ता है। विश्वास किया जाता है कि इस व्रत को 14 वर्ष करने से 'विष्णुलोक' की प्राप्ति होती है।


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