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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

आधिवास
अन्यत्र जाकर रहना। धूपदानादि संस्कार द्वारा भावित करना भी अधिवास कहलाता है। उसके द्रव्य हैं : (1) मिट्टी, (2) चन्दन, (3) शिला, (4) धान्य (5) दूर्वा, (6) पुष्प, (7) फल, (8) दही (9) घी, (10) स्वस्तिक, (11) सिन्दूर, (12) शङ्ख, (13) कज्जल, (14) रोचना, (15) श्वेत सर्षप, (16) स्वर्ण, (17) चाँदी, (18) ताँबा, (19) चमर, (20) दर्पण, (21) दीप और (22) प्रशस्त पादप। किन्हीं ग्रन्थों में श्वेत सर्षप के स्थान पर तथा कहीं चमर के स्थान पर पका हुआ अन्न कहा गया है।

अध्यग्नि
विवाह के अवसर पर अग्नि के समीप पत्‍नी के लिए दिया गया धन :
विवाहकाले यत् स्त्रीभ्यो दीयते ह्यग्निसन्निधौ। तदध्यग्निकृतं सद्भिः स्त्रीधनन्तु प्रकीर्तितम्।। (दायभाग में कात्यायन)
[विवाह के समय अग्नि के समीप स्त्री के लिए जो धन दिया जाता है उसे अध्यग्निकृत स्त्रीधन कहते हैं।]

अध्ययन
गुरु के मुख से यथाक्रम शास्त्रवचन सुनना। ब्राह्मणों के छः कर्मों के अन्तर्गत अध्ययन आता है। अन्य वर्णों के लिए भी अध्ययन कर्तव्य हैं।

अव्यात्मकल्पद्रुम
मुनिसुन्दरकृत 'अध्यात्मकल्पद्रुम' 13-80-1447 ई. के मध्य की रचना है। इसमें दार्शनिक प्रश्नों का सुन्दर विवेचन किया गया है।

अध्‍यात्‍म
यह शब्द अधि+आत्मन् दो शब्दों के योग से बना है। भगवद्गीता में इसका प्रयोग एकान्तिक सत्ता के लिए हुआ है (अ. 8 श्लोक 3)। अमेरिकी वेदान्ती इमर्सन ने इसका अर्थ अधीश्वर आत्मा (ओवर सोल) किया है। वास्तव में जो पदार्थ क्षर अथवा नश्वर जगत् से ऊपर अर्थात् परे है उसको अध्यात्म कहते हैं।

अनात्मवाद
आत्मा की सत्ता को स्वीकार न करना, अथवा शरीरान्त के साथ आत्मा का भी नाश मान लेना। जिस दर्शन में 'आत्मा' के अस्तित्व का निषेध किया गया हो उसको अनात्मवादी दर्शन कहते हैं। चार्वाक दर्शन आत्मा के अस्तित्व का सर्वथा विरोध करता है। अतः वह पूरा उच्छेदवादी है। परन्तु गौतम बुद्ध का अनात्मवाद इससे भिन्न है। वह वेदान्त के शाश्वत आत्मवाद और चार्वाकों के उच्छेदवाद दोनों को नहीं मानता है। शाश्वत आत्मवाद का अर्थ है कि आत्मा नित्य, कूटस्थ, चिरन्तन तथा एक रूप है। उच्छेदवाद के अनुसार आत्मा का अस्तित्व ही नहीं है। यह एक प्रकार का भौतिक आत्मवाद है। बुद्ध ने इन दोनों के बीच एक मध्यम मार्ग चलाया। उनका अनात्मवाद अभौतिक अनात्मवाद है। उपनिषदों का 'नेति नेति' सूत्र पकड़ कर उन्होंने कहा, "रूप आत्मा नहीं है। वेदना आत्मा नहीं है। संज्ञा आत्मा नहीं है। संस्कार आत्मा नहीं है। विज्ञान आत्मा नहीं है। ये पाँच स्कन्ध हैं, आत्मा नहीं।" भगवान् बुद्ध ने आत्मा का आत्यन्तिक निषेध नहीं किया, किन्तु उसे अव्याकृत प्रश्न माना।
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अध्यात्मरामायण
वाल्मीकिरामायण के अतिरिक्त एक 'अध्यात्मरामायण' भी प्रसिद्ध है, जो शिवजी की रचना कही जाती है। कुछ विद्वान् इसे वेदव्यास की रचना बतलाते हैं। अठारहों पुराणों में रामायण की कथा आयी है। कहा जाता है कि ब्रह्माण्ड पुराण में जो रामायणी कथा है वही अलग करके 'अध्यात्मरामायण' के नाम से प्रकाशित की गयी है।

अध्यात्मोपनिषद्
हेमचन्द्ररचित 'योगशास्त्र' अथवा 'अध्यात्मोपनिषद्' ग्यारहवीं शताब्दी का दार्शनिक ग्रन्थ है।

अध्यापन
पाठन (विद्यादान या पढ़ाना)। यह ब्राह्मणों के छः कर्मों के अन्तर्गत एक है :
अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा। दानं प्रतिग्रहश्चैव षट्कर्माण्‍यग्रजन्मनः।। (मनुस्मृति)
[अध्यापन, अध्ययन, यज्ञ करना, यज्ञ कराना, दान देना, दान लेना ये छः ब्राह्मणों के कर्म हैं।] यह ब्राह्मण का विशिष्ट कर्म है। अन्य वर्णों को इसका अधिकार नहीं है, यद्यपि ब्राह्मणेतर सन्त-महात्माओं को उपदेश का अधिकार है।

अध्यारोप
वस्तु में अवस्तु का आरोप। सच्चिदानन्द, अनन्त, अखण्ड ब्रह्म में अज्ञान और उसके कार्य समस्त जड़ समूह का आरोप करना अध्यारोप कहलाता है। सर्प न होते हुए भी रस्सी में सर्प का आरोप करने के समान यह प्रक्रिया है (वेदान्तसार)।


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