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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

अज्ञातवाद
जगत् और सृष्टि के सम्बन्ध में वेदान्तियों ने नैयायिकों के 'आरम्भवाद' (अर्थात् ईश्वर सृष्टि उत्पन्न करता है) और सांख्यों के 'परिणामवाद' (अर्थात् सृष्टि का विकास उत्तरोत्तर विकार या परिणाम द्वारा अव्यक्त प्रकृति से आप ही आप होता है) के स्थान पर 'विवर्तवाद' की स्थापना की है, जिसके अनुसार जगत् ब्रह्म का विवर्त या कल्पित रूप है। रस्सी को यदि हम सर्प समझें तो रस्सी सत्य वस्तु है और सर्प उसका विवर्त या भ्रान्तिजन्य प्रतीति है। इसी प्रकार ब्रह्म तो नित्य और वास्तविक सत्ता है और नामरूपात्मक जगत् उसका विवर्त है। यह विवर्त अध्यास के द्वारा होता है। जो नाम-रूपात्मक दृश्य हम देखते हैं वह न तो ब्रह्म का वास्तविक स्वरूप है, न कार्य या परिणाम ही है, क्योंकि ब्रह्म निर्विकार और अपरिणामी है।
अध्यास के सम्बन्ध में कहा जा सकता है कि सर्प कोई अलग पदार्थ अवश्य है, तभी तो उसका आरोप होता है। अतः इस विषय को और स्पष्ट करने के लिए 'दृष्टि-सृष्टिवाद' उपस्थित किया जाता है, जिसके अनुसार माया अथवा नाम-रूप मन की वृत्ति हैं। इनकी सृष्टि मन ही करता है और मन ही देखता है। ये नाम-रूप उसी प्रकार मन या वृत्तियों के बाहर नहीं हैं, जिस प्रकार जड़-चित् के बाहर की कोई वस्तु नहीं है। इन वृत्तियों का शमन ही मोक्ष है।
इन दोनों वादों में त्रुटि देखकर कुछ वेदान्ती 'अवच्छेदवाद' का आश्रय लेते हैं। वे कहते हैं कि ब्रह्म के अतिरिक्त जगत् की जो प्रतीति होती है, वह एकरस अथवा अनवच्छिन्न सत्ता के भीतर माया द्वारा अवच्छेद या परिमिति के आरोप के कारण होती है। कुछ अन्य वेदान्ती इन तीनों वादों के स्थान पर 'विम्ब-प्रतिबिम्बवाद' उपस्थित करते हैं और कहते हैं कि ब्रह्म प्रकृति अथवा माया के बीच अनेक प्रकार से प्रतिबिम्बित होता है जिससे नाम-रूपात्मक दृश्यों की प्रतीति होती है। अन्तिम वाद 'अज्ञातवाद' है, जिसे 'प्रौढिवाद' भी कहते हैं। यह सब प्रकार की उत्पत्ति को, चाहे वह विवर्त के रूप में कही जाय चाहे दृष्टि-सृष्टि, अवच्छेद अथवा प्रतिबिम्ब के रूप में; अस्‍वीकार करता है और कहता है कि जो जैसा है वह वैसा ही है और सब ब्रह्म है। ब्रह्म अनिर्वचनीय है, उसका वर्णन शब्दों द्वारा हो ही नहीं सकता, क्योंकि हमारे पास जो भाषा है वह द्वैत की ही है। अर्थात् जो कुछ भी हम कहते हैं, वह भेद के आधार पर ही। अतः मूल तत्त्व अज्ञात ही रहता है।

अज्ञान
ज्ञान का अभाव अथवा ज्ञान के विरुद्ध। अज्ञान के पर्याय हैं अविद्या, अहंमति आदि। श्रीमद्भागवत के अनुसार जगत के उत्पत्तिकाल में ब्रह्मा ने पाँच प्रकार के अज्ञान को बनाया : (1) तम, (2) मोह, (3) महामोह, (4) तामिस्र और (5) अन्धतामिस्र। वेदान्त के मत से अज्ञान सत् और असत् से अनिर्वचनीय और त्रिगुणात्मक भावरूप है। जो कुछ भी ज्ञान का विरोधी है उसे अज्ञान कहते हैं। मनु ने कहा है :
अज्ञानाद् वारुणीं पीत्वा संस्कारेणैव शुद्ध्यति।
[जो अज्ञान से मदिरा पी लेता है वह संस्कार करने पर ही शुद्ध होता है।]
अज्ञानाद् बालभावाच्च साक्ष्यं वितयमुच्यते।
[अज्ञान अथवा बालभाव के कारण जो भी साक्षी दी जाती है वह सब झूठ होती है।]

अणिमा
अष्ट सिद्धियों में से एक। अष्ट सिद्धियों के नाम ये हैं : अणिमा, महिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व और कामावसायिता। अणिमा का अर्थ है अणु (सूक्ष्म) का भाव, जिसके प्रभाव से देवता, सिद्ध आदि सूक्ष्म रूप धारण करके सर्वत्र विचरण करते हैं और जिन्हें कोई भी नहीं देख सकता। आगमों में सिद्धियों की गणना इस प्रकार हैं :
अणिमा लघिमा प्राप्तिः प्राकाम्यं महिमा तथा। ईशित्वञ्च वशित्वञ्च तथा कामावसायिता।। दें. 'सिद्धि'।

अणु
(1) सबसे प्राचीन दार्शनिक ग्रन्थ उपनिषदों में अणुवाद अथवा अणु का उल्लेख अप्राप्य है। इसी कारण अणुवाद का उल्लेख वेदान्तसूत्रों भी नहीं हुआ है, क्योंकि उनकी दार्शनिक उद्गम-भूमि उपनिषद् ही हैं। अणुवाद का उल्लेख सांख्य एवं योग में भी नहीं मिलता। अणुवाद वैशेषिक दर्शन का एक प्रमुख अङ्ग है एवं न्याय ने भी इसे मान्यता प्रदान की है। जैनों ने भी इसे स्वीकार किया है एवं अभिधर्मकोश-व्याख्या के अनुसार आजीवकों ने भी। प्रारम्भिक बौद्धधर्म इससे परिचित नहीं है। पालि बौद्ध ग्रन्थों में इसका उल्लेख नहीं हुआ है, किन्तु वैभाषिक एवं सौत्रान्तिक इसको पूर्ण रूपेण मानने वाले थे।
न्याय-वैशेषिक शास्त्र के अनुसार प्रथम चार द्रव्य वस्तुओं का सबसे छोटा अन्तिम कण, जिसका आगे विभाजन नहीं हो सकता, अणु (परमाणु) कहलाता है। इसमें गन्ध, स्पर्श, परिमाण, संयोग, गुरुत्व, द्रवत्व, वेग आदि विभिन्न गुण समाये रहते हैं। अत्यन्त सूक्ष्म होने से इसका इन्द्रिय-जन्य प्रत्यक्ष नहीं होता। इसकी सूक्ष्मता का आभास कराने के लिए कुछ स्थूल दृष्टान्त दिये जाते हैं, यथा-
जालान्तरगते भानौ यत्सूक्ष्मं दृश्यते रजः। तस्य षष्टितमो भागः परमाणुः स उच्यते।।
बालाग्रशतभागस्य शतधा कल्पितस्य च।
[घर के भीतर छिद्रों से आते हुए सूर्यप्रकाश के बीच में उड़ने वाले कण का साठवाँ भाग; अथवा रोयें के अन्तिम सिरे का हजारवाँ भाग परमाणु कहा जाता है।] व्यवहारतः वैशेषिकों की शब्दावली में 'अणु' सबसे छोटा आकार कहलाता है। अणुसंयोग से द्वयणुक, त्रसरेणु आदि बड़े होते चले जाते हैं।
जैन मतानुसार आत्मा एवं देश को छोड़कर सभी वस्तुएं पुद्गल से उत्पन्न होती हैं। सभी पुद्गलों के परमाणु अथवा अणु होते हैं। प्रत्येक अणु एक प्रदेश अथवा स्थान घेरता है। पुद्गल स्थूल या सूक्ष्म रूप में रह सकता है। जब यह सूक्ष्म रूप में रहता है तो अगणित अणु एक स्थूल अणु को घेरे रहते हैं। अणु शाश्वत हैं। प्रत्येक अणु में एक प्रकार का रस, गन्ध, रूप और दो प्रकार का स्पर्श होता है। ये विशेषताएँ स्थिर नहीं हैं और न बहुत से अणुओं के लिए निश्चित हैं। दो अथवा अधिक अणु जो चिकनाहट या खुरदरापन के गुण में भिन्न होते हैं आपस में मिलकर 'स्कन्ध' बनाते हैं। प्रत्येक वस्तु एक ही प्रकार के अणुसमूह से निर्मित होती है। अणु अपने अन्दर गति का विकास कर सकता है एवं यह गति इतनी तीव्र हो सकती है कि एक क्षण में वह विश्व के एक छोर से दूसरे छोर तक पहुँच सके।

अणु
(2) काश्मीर शैव सम्प्रदाय के शैव आगमों और शिवसूत्रों का दार्शनिक दृष्टिकोण अद्वैतवादी है। 'प्रत्यभिज्ञा' (मनुष्य की शिव से अभिन्नता का अनवरत ज्ञान) मुक्ति, का साधन बतायी गयी है। संसार को केवल माया नहीं समझा गया है। यह शिव का ही शक्ति के द्वारा प्रस्तुत स्वरूप है। सृष्टि के विकार की प्रणाली सांख्यमत के सदृश है, किन्तु इसकी कुछ अपनी विशेषताएँ हैं। इस प्रणाली को 'त्रिक' कहते हैं, क्योंकि यह तीन सिद्धान्तों को व्यक्त करती है। वे सिद्धान्त हैं-शिव, शक्ति एवं अणु, अथवा पति, पाश एवं पशु। अणु का ही नाम पशु है।

अतिथि
हिन्दू धर्म में अतिथि पूजनीय व्यक्ति होता है। अथर्ववेद का एक मन्त्र आतिथ्य के गुणों का वर्णन करता है : 'आतिथेय को अतिथि के खा चुकने के बाद भोजन करना चाहिए। अतिथि को जल देना चाहिए' इत्यादि। तैत्तिरीय उपनिषद् भी आतिथ्य पर जोर देती हुई 'अतिथि देव' (अतिथि देवता) है कि घोषणा करती है। ऐतरेय आरण्यक में कहा गया है कि केवल सज्जन ही आतिथ्य के पात्र हैं। अतिथियज्ञ दैनिक गृहस्थजीवन का नियमित अङ्ग था। इसकी गणना पञ्च महायज्ञों में की जाती है।
पुराणों और स्मृतियों में अतिथि के सम्बन्ध में विस्तृत वर्णन पाये जाते हैं : जो निरन्तर चलता है, ठहरता नहीं उसे अतिथि कहते हैं (अत्+इथिन्)। घर पर आया हुआ, पहले से अज्ञात व्यक्ति भी अतिथि कहलाता है। इसके पर्याय हैं आगन्तुक, आवेशिक, गृहागत आदि। इसका लक्षण निम्नांकित है :
यस्य न ज्ञायते नाम नच गोत्रं नच स्थितिः। अकस्माद् गृहमायाति सोऽतिथिः प्रोच्यते बुधैः।।
[जिसका नाम, गोत्र, स्थिति नहीं ज्ञात है और जो अकस्मात घर में आता है, उसे अतिथि कहा जाता है।]
उसके विमुख लौट जाने पर गृहस्थ को दोष लगता है :
अतिथिर्यस्य भग्नाशो गृहात् प्रतिनिवर्तते। स तस्मै दुष्कृतं दत्त्वा पुण्यमादाय गच्छति।।
[जिसके घर से अतिथि निराश होकर चला जाता है वह उस गृहस्थ को पाप देकर और उसके पुण्य लेकर चला जाता है।] गौ के दुहने में जितना समय लगता है उतने समय तक घर के आँगन में अतिथि की प्रतीक्षा करनी चाहिए। अपनी इच्छा से वह कई दिन भी रुक सकता है (विष्णु पुराण)। मुहूर्त का अष्टम भाग गोदोहन काल कहलाता है, उस समय में देखा गया व्यक्ति अतिथि कहलाता है (मार्कण्डेय पुराण)। अतिथि मूर्ख है अथवा विद्वान् यह विचार नहीं करना चाहिए :
प्रियो वा यदि वा द्वेष्यो मूर्खः पतित एव वा। सम्प्राप्ते वैश्वदेवान्तें सोऽतिथिः स्वर्गसंक्रमः।।
[चाहे प्रिय, विरोधी, मूर्ख, पतित कोई भी हो वैश्वदेव के अन्त में जो आता है वह अतिथि है और स्वर्ग को ले जाता है।] अतिथि से वेदादि नहीं पूछना चाहिए :
स्वाध्यायगोत्रचरणमपृष्ट्वापि तथा कुलम्। हिरण्यगर्भबुद्धया तं मन्येताभ्यागतं गृही।।
[स्वाध्याय, गोत्र, चरण, कुल बिना पूछे ही गृहस्थ अतिथि को विष्णु रूप माने।] (विष्णुपुराण)। उससे देश आदि पूछने पर दोष लगता है :
देशं नाम कुलं विद्यां पृष्टवा योऽन्नं प्रयच्छति। न स तत्फलमाप्नोति दत्त्वा स्वर्गं न गच्छति।।
[देश, नाम, विद्या, कुल पूछकर जो अन्न देता है उसे पुण्यफल नहीं मिलता और फिर वह स्वर्ग को भी नहीं प्राप्त करता।] अतिथि को शक्ति के अनुसार देना चाहिए :
भेजनं हन्तकारं वा अग्र भिक्षामथापि वा। अदत्त्वा नैव भोक्तव्यं यथा विभवमात्मनः।।
[भोजन, हन्तकार, अग्र ग्रास अथवा भिक्षा बिना दिये भोजन नहीं करना चाहिए। यथाशक्ति पहले देकर खाना चाहिए।] भिक्षा आदि का लक्षण इस प्रकार है :
ग्रासप्रमाणा भिक्षा स्यादग्रं ग्रासचतुष्टयम्। अग्राच्चतुर्गुणं प्राहुर्हन्तकारं द्विजोत्तमाः।। (मार्कण्डेय पुराण)
[ग्रास भर को भिक्षा, ग्रास से चौगुने को अग्र, अग्र से चौगुने को हन्तकार कहते हैं।]

अतिविजयैकादशी
पुनर्वसु नक्षत्र से युक्त शुक्ल पक्षीय एकादशी। इस तिथि को एक वर्षपर्यन्त तिलों के प्रस्थ का दान किया जाता है। इस दिन विष्णु का व्रत किया जाता है। दे. हेमाद्रि; व्रत खण्ड,. 1147।

अतीन्द्रिय
नैयायिकों के मत से परमाणु अतीन्द्रिय है; ऐन्द्रिय नहीं। उन्हें ज्ञानेन्द्रियों से नहीं देखा अथवा जाना जा सकता है। वे केवल अनुमेय हैं। आत्मा, परमात्मा अथवा परम तत्त्व भी अतीन्द्रिय हैं।

अत्याश्रमी
प्रथम तीनों आश्रमों से श्रेष्ठ आश्रम में रहने वाला- संन्यासी। वह आत्मा को पूर्णतः जानता है तथा अपने व्यक्तिगत जीवन से मुक्त है; परिवार, सम्पदा एवं संसार से सम्बन्ध विच्छेद कर चुका है एवं वह उसे प्राप्त कर चुका है जिसकी केवल परिव्राजक योगी ही इच्छा. रखते हैं।

अत्रि
ऋग्वेद का पञ्चम मण्डल अत्रि-कुल द्वारा संगृहीत है। कदाचित् अत्र-परिवार का प्रियमेध, कण्व, गोतम एवं काक्षीवत कुलों से निकट सम्बन्ध था। ऋग्वेद के पञ्चम मण्डल के एक मन्त्र में परुष्णी एवं यमुना के उल्लेख से अनुमान लगाया जा सकता है कि यह परिवार विस्तृत क्षेत्र में फैला हुआ था। अत्रि गोत्रप्रवर्तक ऋषि भी थे। मुख्य स्मृतिकारों की तालिका में भी अत्रि का नाम आता है।


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