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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

अत्रिस्मृति
यह ग्रन्थ प्राचीन स्मृतियों में है। इसका उल्लेख मनुस्मृति (3.13) में हुआ है। 'आत्रेय धर्म शास्त्र', 'अत्रिसंहिता' तथा अत्रिस्मृति नाम के ग्रन्थ भी पाये जाते हैं।

अथर्वा
वेदकालीन विभिन्न पुरोहितकुलों की तरह ही यह एक कुल था। एकवचन में अथर्वा नाम परिवार के अध्यक्ष का सूचक है, किन्तु बहुवचन में 'अथर्वाणः' शब्द से सम्पूर्ण परिवार का बोध होता है। कुछ स्थानों में एक निश्चित परिवार का उद्धरण प्राप्त होता है। दानस्तुति में इन्हें अश्वत्थ की दया का दान ग्रहण करने वाला कहा गया है एवं यज्ञ में इनके द्वारा मधुमिश्रित पय का प्रयोग करने का विवरण है।

अथर्व-प्रातिशाख्य
भिन्न-भिन्न वेदों के अनेक प्रकार के स्वरों के उच्चारण, पदों के क्रम और विच्छेद आदि का निर्णय शाखा के जिन ग्रन्थों द्वारा होता है, उन्हें 'प्रातिशाख्य' कहते हैं। अत्यन्त प्राचीन काल में ऋषियों ने वेदाध्ययन के स्वरादि का विशेषता से निश्चय करके अपनी अपनी शाखा की परम्परा चलायी थी। जिस व्यक्ति ने जिस शाखा में वेदपाठ सीखा वह उसी शाखा की वंश-परम्परा का सदस्य कहलाया। ब्राह्मणों की गोत्र-प्रवर-शाखा आदि की परम्परा इसी तरह चल पड़ी। बहुत काल बीतने पर इसे भेद को स्मरण रखने के लिए और अपनी-अपनी रीति की रक्षा के लिए प्रातिशाख्य ग्रन्थ बनाये गये। इन्हीं प्रातिशाख्यों में शिक्षा और व्याकरण दोनों पाये जाते हैं। 'अथर्व-प्रातिशाख्य' दो मिलते हैं, इनमें एक 'शौनकीय चतुरध्यायिका' है जिसमें (1) ग्रन्थ का उद्देश्य, परिचय और वृत्ति, (2) स्वर और व्यञ्जन-संयोग, उदात्तादि लक्षण, प्रगृह्य, अक्षर विन्यास, युक्त वर्ण, यम, अभिनिधान, नासिक्य, स्वरभक्ति, स्फोटन, कर्षण और वर्णक्रम (3) संहिताप्रकरण, (4) क्रम-निर्णय, (5) पद-निर्णय और (6) स्वाध्याय की आवश्यकता के सम्बन्ध में उपदेश, ये छः विषय बताये जाते हैं।

अथर्ववेद
चारों वेदों के क्रम में अथर्ववेद का नाम सबसे अन्त में आता है। यह प्रधानतः नौ संस्करणों में पाया जाता है- पैप्पलाद, शौनकीय, दामोद, तोत्रायन, जामल, ब्रह्मपालाश, कुनखा, देवदर्शी और चरणविद्या। अन्य मत से उन संस्करणों के नाम ये हैं- पैप्पलाद, आन्ध्र, प्रदात्त, स्नात, श्नौत, ब्रह्मदावन, शौनक, देवदर्शती और चरणविद्या। इनके अतिरिक्त तैत्तिरीयक नाम के दो प्रकार के भेद देख पड़ते हैं, यथा औरव्‍य और काण्डिकेय। काण्डिकेय भी पाँच भागों में विभक्त हैं- आपस्तम्ब, बौधायन, सत्यावाची, हिरण्यकेशी और औघेय।
अथर्ववेद की संहिता अर्थात् मन्त्रभाग में बीस काण्ड हैं। काण्डों को अड़तीस प्रपाठकों में विभक्त किया गया है। इसमें 760 सूक्त और 6000 मन्त्र हैं। किसी-किसी शाखा के ग्रन्थ में अनुवाक विभाग भी पाये जाते हैं। अनुवाकों की संख्या 80 है।
य़द्यपि अथर्ववेद का नाम सब वेदों के बाद आता है तथापि यह समझना भूल होगी कि यह वेद सबसे पीछे बना। वैदिक साहित्य में अन्यत्र भी 'आथर्वण' शब्द आया है और पुरुषसूक्त में छन्द शब्द से अथर्ववेद हो अभिप्रेत जान पड़ता है। कुछ लोगों का कहना है कि ऋक् यजु और साम ये ही त्रयी कहलाते हैं और अथर्ववेद त्रयी से बाहर है। पाश्चात्य विद्वान् कहते हैं कि अथर्ववेद अन्य वेदों से पीछे बना। परन्तु ऋक्, यजु और साम तीनों अलग ग्रन्थ नहीं मन्त्र-रचना की प्रणाली मात्र हैं। इनसे वेद के तीन संहिता विभागों की सूचना नही होती। यज्ञ कार्य को अच्छे प्रकार से चलाने के लिए ही चार संहिताओं का विभाग किया गया है। ऋग्वेद होता के लिए है, यजुर्वेद अध्वर्यु के लिए, सामवेद उदगाता के लिए और अथर्ववेद ब्रह्मा के लिए है।
इस वेद का साक्षात्कार अथर्वा नामक ऋषि ने किया। इसीलिए इसका नाम अथर्ववेद पड़ा। ब्रह्मा पुरोहित के लिए यह वेद काम में आता है इसलिए जैसे यजुर्वेद को आध्वर्यव कहते हैं, वैसे ही इसे ब्रह्मवेद भी कहते हैं। कहते हैं कि इस वेद में सब वेदों का सार तत्त्व निहित है, इसीलिए यह सब में श्रेष्ठ है। गोपथ ब्राह्मण में लिखा हैं :
श्रेष्ठ हि वेदस्तपसोऽधिजातो, ब्रह्मज्ञानं हृदये संबभूव। (1।9) एतद्वे भूयिष्ठं ब्रह्म यद् भृग्वंगिरसः। येऽङ्गिरसः स रस:। येऽथवार्णस्‍तद् भेषजम्। यद् भेषजम् तदमृतम्। यदमृतं तद् ब्रह्मा।। (3।4)
ग्रिफिथ ने अपने अंग्रेजी पद्यानुवाद की भूमिका में लिखा है कि अथर्वा अत्यन्त पुराने ऋषि का नाम है, जिसके सम्बन्ध में ऋग्वेद में लिखा है कि इसी ऋषि ने सङ्घर्षण द्वारा अग्नि को उत्पन्न किया और पहले-पहल यज्ञों के द्वारा वह मार्ग तैयार किया जिससे मनुष्यों और देवताओं में सम्बन्ध स्थापित हो गया। इसी ऋषि ने पारलौकिक तथा अलौकिक शक्तियों के द्वारा विरोधी असुरों को वश में कर लिया। इसी अथर्वा ऋषि से अङ्गिरा और भृगु के वंश वालों को जो मन्त्र मिले उन्हीं की संहिता का नाम 'अथर्ववेद', 'भृग्वङ्गिरस वेद' अथवा 'अथर्वाङ्गिरस वेद' पड़ा। इसका नाम, जैसा कि पहले कहा गया है, ब्रह्मवेद भी है। ग्रिफिथ ने इस नामकरण के तीन कारण बताये हैं, जिनमें से एक का उल्लेख ऊपर हो चुका है। दूसरा कारण यह है कि इस वेद में मन्त्र हैं, टोटके हैं आशीर्वाद हैं, और प्रार्थनाएँ हैं, जिनसें देवताओं को प्रसन्न किया जा सकता है, उनका संरक्षण प्राप्त किया जा सकता है, मनुष्य, भूत-प्रेत, पिशाच आदि आसुरी शत्रुओं को शाप दिया जा सकता है और नष्ट किया जा सकता है। इन प्रार्थनात्मक स्तुतियों को 'ब्रह्माणि' कहा गया है। इनका ज्ञान-समुच्च्य होने से इसका नाम ब्रह्मवेद है। ब्रह्मवेद होने के तीसरी युक्ति यह है कि जहाँ तीनों वेद इस लोक और परलोक में सुखप्राप्ति के उपाय बताते हैं और धर्मपालन की शिक्षा देते हैं, वहाँ यह वेद ब्रह्मज्ञान भी सिखाता है और मोक्ष के उपाय बताता है।
अथर्ववेद के कम प्राचीन होने की युक्तियाँ देते हुए ग्रिफिथ यह मत प्रकट करते हैं कि जहाँ ऋग्वेद में जीवन के स्वाभाविक भाव हैं और प्रकृति के लिए प्रगाढ़ प्रेम है, वहाँ अथर्ववेद में प्रकृति के पिशाचों और उनकी अलौकिक शक्तियों का भय दिखाई पड़ता है। जहाँ ऋक् में स्वतन्त्र कर्मण्यता और स्वतन्त्रता की दशा है वहाँ अथर्ववेद में अन्धविश्वास दिखाई देता है। किन्तु उनकी यह युक्ति पाश्चात्य दृष्टि से उलटी जँचती है, क्योंकि अन्धविश्वास का युग पहले आता है, बुद्धि-विवेक का पीछे। अतः अथर्ववेद तीन वेदों से अपेक्षाकृत अधिक पुराना होना चाहिए।
अथर्ववेद में लगभग सात सौ साठ सूक्त हैं जिनमें छः हजार मन्त्र हैं। पहले काण्ड से लेकर सातवें तक किसी विषय के क्रम से मन्त्र नहीं दिये गये हैं। केवल मन्त्रों की संख्या के अनुसार सूक्तों का क्रम बाँधा गया है। पहले काण्ड में चार-चार मन्त्रों का क्रम है, दूसरे में पाँच-पाँच का, तीसरे में छः-छः का, चौथे में सात-सात का, पन्तु पाँचवें में आठ से अठारह मन्त्रों का क्रम है। छठे में तीन-तीन का क्रम है। सातवें में बहुत से अकेले मन्त्र हैं और ग्यारह-ग्यारह मन्त्रों तक का भी समावेश है। आठवें काण्ड से लेकर बीसवें तक लम्बे-लम्बे सूक्त हैं जो संख्या में पचास, साठ, सत्तर और अस्सी मन्त्रों तक चले गये हैं। तेरहवें काण्‍ड तक विषयों का कोई क्रम नहीं रखा गया है, विविध विषय मिले-जुले हैं। उनमें विशेष रूप से प्रार्थना है, मन्त्र हैं और प्रयोग तथा विधियाँ हैं, जिनसे सब तरह के भूत-प्रेत, पिशाच, असुर, राक्षस, डाकिनी, शाकिनी, वेताल आदि से रक्षा की जा सके। जादू-टोना करने वालों, सर्पों, नागों और हिंसक जन्तुओं से तथा रोगों से बचाव होता रहे, ऐसी विधियाँ हैं। सन्तान, सर्वसाधारण की रक्षा, विशेष प्रकार की ओषधियों में विशेष गुणों के आवाहन, मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण आदि प्रयोगों, सौख्य, सम्पत्ति, व्यापार और जुए आदि की सफलता के लिए प्रार्थनाएँ भी हैं, और मन्त्र भी हैं। चौदहवें से अठारहवें तक पाँच काण्डों में विषयों का क्रम निश्चित है। चौदहवें काण्‍ड में विवाह की रीतियों का वर्णन है। पन्द्रहवें, सोलहवें और सत्रहवें काण्ड में कुछ विशेष मन्त्र हैं। अठारहवें में अन्त्येष्टि क्रिया की विधियाँ और पितरों के श्राद्ध की रीतियाँ हैं। उन्नीसवें में विविध मन्त्रों का संग्रह है। बीसवें में इन्द्र सम्बन्धी सूक्त हैं जो ऋग्वेद में भी प्रायः आते हैं। अथर्ववेद के बहुत से सूक्त, लगभग सप्तमांश, ऋग्वेद में भी मिलते हैं। कही-कहीं तो ज्यों-के-त्यों मिलते हैं और कहीं-कहीं महत्त्व के पाठांतर भी। सृष्टि और ब्रह्मविद्या के भी अनेक रहस्य इस वेद में जहाँ-तहाँ आये हैं जिनका विस्तार और विकास ब्राह्मणों तथा उपनिषदों में आगे चलकर हुआ है।
इस संहिता में अनेक स्थल दुरूह हैं। ऐसे शब्द समूह हैं जिनके अर्थ का पता नहीं लगता। बीसवें काण्ड में, एक सौ सत्ताईसवें से लेकर एक सौ छत्तीसवें सूक्त तक 'कुन्ताप' नामक विभाग में, विचित्र तरह के सूक्त और मन्त्र हैं जो ब्राह्मणाच्छंसी के द्वारा गाये जाते हैं। इसमें कौरम्, रुशम्, राजि, रौहिण, ऐतश, प्रातिसुत्व, मण्डूरिका आदि ऐसे नाम आये हैं जिसका ठीक-ठीक अर्थ नहीं लगता।

अथर्वशिरस्-उपनिषद्
(अ)-एक पाशुपत उपनिषद्। इसका रचनाकाल प्रायः महाभारत में उल्लिखित पाशुपत मत सम्बन्धी परिच्छेदों के रचनाकाल के लगभग है। इसमें पशुपति रुद्र को सभी तत्त्वों में प्रथम तत्त्व माना गया है तथा इन्हें ही अन्तिम गन्तव्य अथवा लक्ष्य भी बताया गया है। इसमें पति, पशु और पाश का भी उल्लेख है। 'ओम्' के पवित्र उच्चारण के साथ ध्यान करने की योगप्रणाली को इसमें मान्यता दी गयी है। शरीर पर भस्म लगाना पाशुपत मत का आदेश बताया गया है।

अथर्वशिरस्-उपनिषद्
(आ)-यह एक स्मार्त उपनिषद् है, जो पञ्चायतनपूजा के देवों (विष्णु, शिव, दुर्गा, सूर्य, गणेश) पर लिखे गये पाँच प्रकरणों का संग्रह है। पञ्चायतनपूजा कब प्रारम्भ हुई, इसकी तिथि निश्चित नहीं की जा सकती। किन्तु इस पूजा में ब्रह्मा के स्थान न पाने से ज्ञात होता है कि उस समय तक ब्रह्मा का प्रभाव समाप्त हो चुका था तथा उनका स्थान गणेश ने ले लिया था। कुछ विद्वानों का मत है कि पञ्चायतन पूजा का प्रारम्भ शङ्कराचार्य ने किया, कुछ लोग कुमारिल भट्ट से इसका प्रारम्भ बताते हैं, जबकि अन्य विचारकों के अनुसार यह बहुत प्राचीन है। कुछ भी हो, अथर्वशिरस् उपनिषद् की रचना अवश्य पञ्चायतन पूजा के प्रचार के पश्चात् हुई।

अथर्वाऋषि
अथर्ववेद के द्रष्टा ऋषि। इन्हीं के नाम पर इस वेद का नाम अथर्ववेद पड़ा। अथर्वा-ऋषि के सम्बन्ध में एक किंवदन्ती भी है कि पूर्व काल में स्वयंभू ब्रह्मा ने सृष्टि के लिए दारुण तपस्या की। अन्त में उनके रोम-कूपों से पसीनें की धारा बह चली। इसमें उनका रेतस् भी था। यह जल दो धाराओं में विभक्त हो गया । उसकी एक धारा से भृगु महर्षि उत्पन्न हुए। अपने उत्पन्न करने वाले ऋषिप्रवर को देखने के लिए जब भृगु उत्सुक हुए, तब एक देववाणी हुई जो गोपथब्राह्मण (1।4) में दी हुई है : 'अथर्ववाग्' एवं 'एतग स्वेदाय स्वन्निचछ्'। इस तरह उनका नाम अथर्वा पड़ा। दूसरी धारा से अङ्गिरा नामक महर्षि का जन्म हुआ। उन्हीं से अथर्वाङ्गिरसों की उत्पत्ति हुई।

अथर्वज्योतिष
संस्कारों और यज्ञों की क्रियाएँ निश्चित मुहूर्तों पर निश्चित समयों में और निश्चित अवधियों के भीतर होनी चाहिए। मुहूर्त, समय और अवधि का निर्णय करने के लिए ज्योतिष शास्त्र का ही एक अवलम्ब है। इसलिए प्रत्येक वेद के सम्बन्ध का ज्योतिषाङ्ग अध्ययन का विषय होता है। ज्योतिर्वेदाङ्ग पर तीन पुस्तकें बहुत प्राचीन काल की मिलती हैं। पहली ऋक्-ज्यौतिष, दूसरी यजुः-ज्यौतिष और तीसरी अथर्व-ज्यौतिष। अथर्वज्योतिष के लेखक पितामह हैं। वराहमिहिर की लिखी पञ्चसिद्धान्तिका, जिसे पं. सुधाकर द्विवेदी और डा. थोबो ने मिलकर सम्पादित करके प्रकाशित करया था, 'पैतामह-सिद्धान्त' के नाम से प्रसिद्ध है। 'हिन्दुस्तान रिव्यू' के 1906 ई., नवम्बर के अंक में पृष्ठ 418 पर किसी अज्ञातनामा लेखक ने 'पितामह-ज्यौतिष' के 162 श्लोक बतलाये हैं।

अथर्वशीर्ष
शाक्त मत का एक ग्रन्थ, जिसमें शक्ति के ही स्तवन हैं।

अथर्वाणः
अथर्ववेद के अर्थ में इस शब्द का प्रयोग 'अंङ्गिरसः' के समास के साथ होता है। इस प्रकार दोनों का यौगिक रूप 'अथर्वाङ्गिरसः' भी अथर्ववेद के ही अर्थ में व्यवहृत है।


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