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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

अग्निस्वामी (भाष्यकार)
मनु-रचित 'मानव श्रौतसूत्र' पर भाष्‍य के लेखक। मानव श्रौतसूत्र के दूसरे भाष्‍यकार हैं - बालकृष्ण मिश्र एवं कुमारिल भट्ट।

अग्निहोत्र
एक दैनिक यज्ञ। यह दो प्रकार का होता है- एक महीने की अवधि तक करने योग्य और दूसरा जीवन पर्यन्त साध्य। दूसरे की यह विशेषता है कि अग्नि में जीवन पर्यन्त प्रतिदिन प्रातः-सायं हवन करना चाहिए। यज्ञ करने वाले का इसी अग्नि से दाह संस्कार भी होता है। इसका क्रम स्मृति में इस प्रकार है : विवाहित ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य, जो काने, बहरे, अन्धे एवं पङ्गु नहीं हैं, उन्हें वर्ण-क्रम से वसन्त, ग्रीष्म और शरद् ऋतु में अग्नि को आधान करना चाहिए। अग्नि संख्या में तीन हैं - (1) गार्हपत्य, (2) दक्षिणाग्नि और (3) आहवनीय, इनकी स्थापना निश्चित वेदी पर विभिन्न मन्त्रों द्वारा हो जाने पर सायं तथा प्रातः अग्निहोत्र करना चाहिए। अग्निहोत्र होम का ही नाम है। इसमें दस द्रव्य होते हैं- (1) दूध, (2) दही, (3) लप्सी, (4) घी, (5) भात, (6) चावल, (7) सोमरस, (8) मांस, (9) तेल और (10) उरद। कलियुग में दूध, चावल, लप्सी के द्वारा एक ऋत्विज अथवा यजमान के माध्यम से प्रतिदिन होम का विधान है। अमावस की रात्रि में लप्सी द्वारा यजमान को होम करना चाहिए। जिस दिन अग्नि की स्थापन की जाती है उसी दिन प्रथम होम प्रातः-सायं आरम्भ करना चाहिए। उस दिन प्रातः सौ आहुतियों के होम का देवता सूर्य एवं सायं काल अग्नि होता है।
अग्न्याधान के पश्चात् प्रथम अमावास्या को दर्श और पूर्णमासी को पौर्णमास याग का आरम्भ करना चाहिए। इसमें छः प्रकार के याग होते हैं : पूर्णमासी के दिन तीन और अमावास के दिन तीन। पूर्णमासी के (1) आग्नेय, (2) अग्निषोमीय और (3) उपांशु याग हैं। अमावस के (1) आग्नेय, (2) ऐन्द्र और (3) दधिपय याग होते हैं। दर्श-पूर्णमास यज्ञ भी जीवनपर्यन्त करना चाहिए। इसमें भी यज्ञ के प्रतिबन्धक दोषों से रहित तीन वर्णों को सपत्नीक होकर यज्ञ करने का अधिकार है। सामान्यतः पर्व की प्रतिपदा को यज्ञ का आरम्भ करना चाहिए।
जिस यजमान ने सोमयाग नहीं किया हो उसे पूर्णमासी के दिन अग्निकोण में पुरोडाश याग और ऐन्द्र याग करना चाहिए। जो यजमान सोमयाग कर चुका है उसे पूर्णमासी के दिन अग्निकोण में घृतउपांशु याग और अग्निषोमीय पुरोडाश याग करना चाहिए। अमावस्या के दिन आग्नेय-पुरोडाश-याग, ऐन्द्र-पयो-याग, ऐन्द्र-दधि-याग ये तीन याग करने चाहिए। इसमें चार ऋत्त्विज होते हैं : (1) अध्वर्यु, (2) ब्रह्मा, (3) होता और (4) आग्नीध्र। यजुर्वेद-कर्म करने वाला 'अध्वर्यु' ऋक्, यजु, साम इन तीनों का कर्म करनेवाला 'ब्रह्मा' और ऋग्वेद के कर्म करनेवाला 'होता' है। आग्नीध्र प्रायः अध्वर्य का ही अनुयायी होता है, उसी की प्रेरणा से कार्य करता है। पुरोडाश चावल अथवा यव का बनाना चाहिए। अग्निहोत्र के समान यहाँ भी जिस द्रव्य से यज्ञ का आरम्भ करे उसी द्रव्य से जीवनपर्यन्त करते रहना चाहिए।

अग्निहोत्री
(1) नियमित रूप से अग्निहोत्र करनेवाला। ब्राह्मणों की एक शाखा की उपाधि भी अग्निहोत्री है। (2) कात्यायन सूत्र के एक भाष्यकार, जिनका पूरा नाम अग्निहोत्री मिश्र है।

अग्न्याधान
(अग्नि के लिए आधान)। वेदविहित अग्नि-संस्कार, अग्निरक्षण, अग्निहोत्र आदि इसके पर्याय हैं।
प्राचीन भारत में जब देवताओं की पूजा प्रत्येक गृहस्थ अग्निस्थान में करता था तब यह उसका पवित्र कर्त्तव्य होता था कि वेदी पर पवित्र अग्नि की स्थापना करे। यह कर्म 'अग्न्याधान' अर्थात् पवित्र अग्निस्थापना के दिन से प्रारम्भ होता था। अग्न्याधान करने वाला गृहस्थ चार पुरोहित चुनता था तथा गार्हपत्य एवं आहवनीय अग्नि के लिए वेदिकाएँ बनवाता था। गार्हपत्य अग्नि के लिए वृत्त एवं आहवनीय के लिए वर्ग चिह्नित किया जाता था। दक्षिणाग्नि के लिए अर्द्धवृत्त खींचा जाता था, यदि उसकी आवश्यकता हुई। तब अध्वर्यु घर्षण द्वारा या गाँव से तात्कालिक अग्नि प्राप्त करता था। फिर पञ्च भूसंस्कारों से पवित्र स्थान पर गार्हपत्य अग्नि रखता था तथा सायंकाल 'अरणी' नामक लकड़ी के दो टुकड़ें यज्ञ करनेवाले गृहस्थ एवं उसकी स्त्री को देता था, जिसके घर्षण से आगामी प्रातः वे आहवनीय अग्नि उत्पन्न करते थे।

अगोचरी
हठयोग की एक मुद्रा। 'गोरखबानी' की अष्ट-मुद्राओं में इसकी गणना है :
करण मध्ये अगोचरी मुद्रा सबद कुसबद ले उतपनी। सबद कुसबद समो कृतवा मुद्रा तौ भई अगोचरी।।
इस मुद्रा का अधिष्ठान कान माना जाता है। इसके द्वारा बाहरी शब्दों से कान को हटाकर अन्तःकरण के शब्दों की ओर लगाने का अभ्यास किया जाता है। वास्तव में गोचर (इन्द्रिय-विषय) से प्रत्याहार करके आत्मनिष्ठ होने का नाम ही अगोचरी मुद्रा है।

अग्रदास स्वामी
रामोपासक वैष्णव सन्त कवि। नाभाजी (नारायणदास), जो रामानन्दी वैष्णव सन्त कवि थे, जो रामानन्दी वैष्णव थे, अग्रदास के ही शिष्य थे एवं इन्हीं के कहने से नाभाजी ने 'भक्तमाल' की रचना की।
गलता (जयपुर, राजस्थान) की प्रसिद्ध गद्दी के ये अधिष्ठाता थे। इनका जीवन-काल सं. 1632 वि. के लगभग है। स्वामी रामानन्द के शिष्य स्वामी अनन्तानन्द और स्वामी अनन्तानन्द के शिष्य कृष्णदास पयहारी थे। ये वल्लभाचार्य के शिष्य और अष्टछाप के कवि कृष्णदास अधिकारी से भिन्न और उनके पूर्ववर्त्‍ती थे। इनके शिष्य स्वामी अग्रदास थे। ये धार्मिक कवि थे, इनकी निम्नांकित रचनाएँ पायी जाती हैं :
(1) हितोपदेश उपखाणाँ बाधनी, (2) ध्‍यानमञ्जरी, (3) रामध्यानमञ्चरी और (4) कुंडलिया।

अघमर्षण
सन्ध्योपासन के मध्य एक विशेष प्रकार की क्रिया। इसका अर्थ है 'सब पापों का नाश करनेवाला जाप।' उत्पन्न पाप को नाश करने के लिए, जैसे यज्ञों के अंङ्गभूत अवभृथ-स्‍नानमंन्त्र 'द्रुपदादिव' आदि हैं वैसे ही वैदिक सन्ध्या के अन्तर्गत मन्त्र के द्वारा शोधे गये जल को फेंकना पापनाशक क्रिया अघमर्षण है। तान्त्रिक सन्ध्या में भी इन्का विधान है :
षडङ्गन्यासमाचर्य्य वामहस्ते जलं ततः। गृहीत्वा दक्षिणेनैव संपुटं कारयेद् बुधः।। शिव-वायु-जल-पृथ्वी-वह्नि-वीजैस्त्रिधा पुनः। अभिमन्त्र्य च मूलेन सप्तधा तत्त्वमुद्रया।। निःक्षिपेत् तज्जलं मूर्ध्नि शेषं दक्षे निधाय च। इडयाकृष्य देहान्तःक्षालितं पापसञ्चयम्। कृष्णवर्णं तदुदकं दक्षनाड्या विरेचयेत्।। दक्षहस्ते च तन्मन्त्री पापरूपं विचिन्त्य च। पुरतो वज्रपाषाणे निःक्षिपेद् अस्त्रमुच्चरन्।। (तन्त्रसार)
[छः अङ्गन्यास करके बायें हाथ में जल लेकर दक्षिण हाथ से सम्पुट करे। शिव, वायु, जल, पृथ्वी और अग्निबीजों के द्वारा तीन बार फिर से अभिमन्त्रित करके और सात बार तत्त्व मुद्रा से मूलमन्त्र द्वारा अभिमन्त्रित करके उस जल को सिर पर छोड़े और शेष जल को दक्षिण हाथ में रककर इडा नाड़ी के द्वारा संचित पाप को शरीर के भीतर धोकर काले वर्ण वाले उस जल को दक्षिण नाड़ी से विरेचन करे। दक्षिण हाथ में उस पापरूप जल को साधक विचार कर मन्त्ररूप अस्त्र का उच्चारण करते हुए सामने के पत्थर पर गिरा दे।]

अघमर्षणतीर्थ
मध्य प्रदेश, सतना की रघुराजनगर तहसील के अमुवा ग्राम में धार, कुण्डी तथा बेधक ये तीन स्थान पास-पास हैं। तीनों मिलाकर 'अभरखन' (अघमर्षण) कहे जाते हैं। धार में सिद्धेश्वर महादेव का मन्दिर, कुण्डी में तीर्थकुण्ड और बेधक में प्रजापति की यज्ञवेदी है। इन तीन स्थानों की यात्रा पापनाशक मानी जाती है।

अघोर
शिव का एक पर्याय। इसका शाब्दिक अर्थ है न+घोर (भयानक नहीं =सुन्दर)। श्वेताश्वतर उपनिषद् में शिव का 'अघोर' विशेषण मिलता है :
या ते रुद्र शिवा तनूरघोरा पापकाशिनी।'
परन्तु कालान्तर में शिव के इस रूप की उपासना के अन्तर्गत बीभत्स एवं घृणात्मक आचरण प्रचलित हो गया। इस रूप के उपासकों का एक स्वतन्त्र सम्प्रदाय अघोर पंथ कहलाता है।

अघोरघण्ट
एक कापालिक संन्यासी। आठवीं शताब्दी के प्रथम चरण में भवभूति द्वारा रचित 'मालतीमाधव' नाटक का अघोरघण्ट एक मुख्य पात्र है और राजधानी में देवी चामुण्डा के पुजारी का काम करता है। वह आन्ध्र प्रदेश के एक बड़े शैव क्षेत्र श्रीशैल से सम्बन्धित है। कपालकुण्डला संन्यासिनी देवी चामुण्डा की उपासिका एवं अघोरघण्ट की शिष्या है। दोनों योग के अभ्यास द्वारा आश्चर्यजनक शक्ति अर्जित करते हैं। उनके विश्वास शाक्त विचारों से भरे हैं। नरमेध यज्ञ उनकी क्रियाओं में से एक है। अघोरघण्ट नाटक की नायिका मालती को बलि देवी चामुण्डा को देने की योजना करता है, किन्तु अन्त में नायक के द्वारा मारा जाता है।


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