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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

अचल
ईश्वर का एक विशेषण।
न स्वरूपान् न सामर्थ्यान् नच ज्ञानादिकाद् गुणात्। चलनं विद्यते यस्येत्यचलः कीर्त्तिताऽच्युतः।।
[जिसका स्वरूप, सामर्थ्य और ज्ञानादि गुण से चलन नहीं होता उसे अचल अर्थात् अच्युत (विष्णु) कहा गया है।]

अचला सप्तमी
माघ शुक्ला सप्तमी। इस दिन सूर्यपूजन होता है। इसकी विधि इस प्रकार है : व्रत करनेवाला षष्ठी को एक समय भोजन करता है, सप्तमी को उपवास करता है और रात्रि के उपरांत खड़े होकर सिर पर दीपक रखे हुए सूर्य को अर्घ्‍य देता है। दे. हेमाद्रि, व्रत खण्ड, 643-649।

अचलेश्वर
अमृतसर-पठानकोट रेलमार्ग में बटाला स्टेशन से चार मील पर यह स्थान है। मन्दिर के समीप सुविस्तृत सरोवर है। यहाँ मुख्य मन्दिर में शिव तथा स्वामी कार्तिकेय एवं पार्वतीदेवी की मूर्तियाँ हैँ। सरोवर के मध्य में भी शिव-मन्दिर है। मन्दिर तक जाने के लिए पुल बना है। उत्तर भारत में यह कार्तिकेय का एक ही मन्दिर है। कहा जाता है कि एक बार परस्पर श्रेष्ठता के बारे में गणेशजी तथा कार्तिकेय में विवाद हो गया। भगवान् शङ्कर ने पृथ्वी-प्रदक्षिणा करके निर्णय कर लेने को कहा। गणेशजी ने माता-पिता की परिक्रमा कर ली और वे विजयी मान लिये गये। पृथ्वी-परिक्रमा को निकले कार्तिकेय को मार्ग में ही यह समाचार मिला। यात्रा स्थगित करके वे वहीं अचल रूप से स्थित हो गये। यहाँ वसुओं तथा सिद्ध गणों ने यज्ञ किया था। गुरु नानकदेव ने भी यहाँ कुछ काल तक साधना की थी। कार्तिक शुक्ला नवमी-दशमी को यहाँ मेला होता है।

अचिन्त्य भेदाभेद
अठारहवीं शती के आरम्भ में बलदेव विद्याभूषण ने चैतन्य सम्प्रदाय के लिए ब्रह्मसूत्रों पर 'गोविन्दभाष्य' लिखा, जिसमें 'अचिन्त्य भेदाभेद' मत (दर्शन) का दृष्टिकोण रखा गया है। इसमें प्रतिपादन किया गया है कि ब्रह्म एवं आत्मा का सम्बन्ध अन्तिम विश्लेषण में अचिन्त्य है। दोनों को भिन्‍न और अभिन्‍न दोनों कहा जा सकता है। इसके अनुसार ईश्‍वर शक्तिमान् तथा जीव-जगत् उसकी शक्ति हैं। दोनों में भेद अथवा अभेद मानना तर्क की दृष्टि से असंगत अथवा व्‍याघातक है। शक्तिमान् और शक्ति दोनों ही अचिन्‍त्‍य हैं। अत: उनका संबंध भी अचिन्‍त्‍य है।
इस सिद्धान्त का दूसरा पर्याय चैतन्यमत है। इसे गौडीय वैष्णव दर्शन भी कहते हैं। चैतन्य महाप्रभु इस सम्प्रदाय के प्रवर्त्तक होने के साथ सम्प्रदाय के उपास्य देव भी हैं। इस सम्प्रदाय का विश्वास है कि चैतन्य भगवान् श्री कृष्ण के प्रेमावतार हैं। चैतन्य वल्लभाचार्य के समसामयिक थे और उनसे मिले भी थे। इनका जन्म नवद्वीप (वंगदेश) में सं. 1542 विक्रम में और शरीरत्याग सं. 1590 विक्रम में प्रायः 48 वर्ष की अवस्था में हुआ था।
चैतन्य ने जिस मत का प्रचार किया उस पर कोई ग्रन्थ स्वयं नहीं लिखा और न उनके सहकारी अद्वैत एवं नित्यानन्द ने ही कोई ग्रन्थ लिखा। उनके शिष्य रूप एवं सनातन गोस्वामी के कुछ ग्रन्थ मिलते हैं। उनके बाद जीव गोस्वामी दार्शनिक क्षेत्र में उतरे। इन्हीं तीन आचार्यों ने अचिन्य भेदाभेद मत का वर्णन किया है। परन्तु इन्होंने भी न तो वेदान्तसूत्र का कोई भाष्य लिखा और न वेदान्त के किसी प्रकरण ग्रन्थ की रचना कीं। अठारहवीं शताब्दी में बलदेव विद्याभूषण ने पहले-पहल अचिन्त्य भेदाभेद वाद के अनुसार ब्रह्मसूत्र पर गोविन्द-भाष्य जयपुर (राजस्थान) में लिखा। रूप, सनातन आदि आचार्यों के ग्रन्थों में भक्तिवाद की व्याख्या और वैष्णव साधना की पर्यालोचना की गयी है। फिर भी जीव गोस्वामी के ग्रन्थ में अचिन्त्य भेदाभेदवाद की स्थापना की चेष्टा हुई है। बलदेव विद्याभूषण के ग्रन्थ में ही चैतन्य का दार्शनिक मत स्पष्ट रूप में पाया जाता है।
इस मत के अनुसार हरि अथवा भगवान् परम तत्त्व अथवा अन्तिम सत् हैं । वे ही ईश्वर हैं। हरि की अङ्गकान्ति ही ब्रह्म है। उसका एक अंश मात्र परमात्मा है जो विश्व में अन्तर्यामी रूप से व्याप्त है। हरि में षट् ऐश्वर्यों का ऐक्य है, वे हैं- (1) पूर्ण श्री, (2) पूर्ण ऐश्वर्य, (3) पूर्ण वीर्य, (4) पूर्ण यश, (5) पूर्ण ज्ञान और (6) पूर्ण वैराग्य। इनमें पूर्ण श्री की प्रधानता है; शेष गौण हैं। राधा-कृष्ण की युगल मूर्ति में हरि का पूर्ण प्राकट्य है। राधा-कृष्ण में प्रेम और भक्ति का अनिवार्य बन्धन है।
हरि की अचिन्त्य शक्तियों में तीन प्रमुख हैं- (1) स्वरूप शक्ति, (2) तटस्थ शक्ति तथा (3) माया शक्ति। स्वरूप शक्ति को चित् शक्ति अथवा अन्तरङ्गा शक्ति भी कहते हैं। यह त्रिविध रूपों में व्यक्त होती है - (1) संधिनी, (1) संवित् तथा (3) ह्लादिनी। संधिनी शक्ति के आधार पर हरि स्वयं सत्ता प्रदान कर उनमें व्याप्त रहते हैं। संवित् शक्ति से हरि अपने को जानते तथा अन्य को ज्ञान प्रदान करते हैं। ह्लादिनी शक्ति से वे स्वयं आनन्दित होकर दूसरों को आनन्दित करते हैं। तटस्थ शक्ति को जीवशक्ति भी कहते हैं। इसके द्वारा परिच्छिन्न स्वभाव वाले अणुरूप जीवों का प्रादुर्भव होता है। हरि की माया शक्ति से दृश्य जगत् और प्रकृति का उद्भव होता है। इन तीन शक्तियों के समवाय को परा शक्ति कहते हैं।
जीवों के अज्ञान और अविद्या का कारण माया शक्ति है। इसी के द्वारा जीव ईश्वर से अपना सम्बन्ध भूलकर संसार के बन्धन में पड़ जाता है। हरि से जीव का पुनः सम्बन्ध स्थापन ही मुक्ति है। मुक्ति का साधन हरिभक्ति है। भक्ति हरि की संवित् तथा ह्लादिनी शक्ति के मिश्रण से उत्पन्न होती है। ये दोनों शक्तियाँ भगवद्रूपा हैं। अतः भक्ति भी भगवत्स्वरूपिणी ही है।

अच्चान दीक्षित
प्रसिद्ध आलंकारिक, वैयाकरण एवं दार्शनिक अप्पय्य दीक्षित के लघु भ्राता। इनके पितामह आचार्य दीक्षित एवं पिता रङ्गराजाध्वरी थे।

अच्युत कृष्णानन्द तीर्थ
अप्पय्य दीक्षित कृत 'सिद्धान्तलेश' के टीकाकार। इन्होंने छायाबल निवासी स्वयंप्रकाशानन्द सरस्वती से विद्या प्राप्त की थी। ये काबेरी तीरवर्त्‍ती नीलकण्ठेश्वर नामक स्थान में रहते थे और भगवान् कृष्ण के भक्त थे। इनके ग्रन्थों में कृष्णभक्ति की ओर इनकी यथेष्ट अभिरुचि मिलती है। 'सिद्धान्तलेश' की टीका का नाम 'कृष्णालङ्कार' है, जिसमें इन्हें अद्भुत सफलता प्राप्त हुई है। विद्वान् होने के साथ ही ये अत्यन्त विनयशील भी थे। कृष्णालङ्कार के आरम्भ में इन्होंने लिखा है :
आचार्यचरणद्वन्द्व-स्मृतिर्लेखकरूपिणम्। माँ कृत्वा कुरुते व्याख्यां नाहमत्र प्रभुर्यतः।।
[गुरुदेव के चरणों की स्मृति ही मुझे लेखक बनाकर यह व्याख्या करा रही है, क्योंकि मुझमें यह कार्य करने की सामर्थ्य नहीं है।]
इससे इनकी गुरुभक्ति और निरभिमानिता सुस्पष्ट है। कृष्णालंकार के सिवा इन्होंने शांकरभाष्य के ऊपर 'वनमाला' नामक टीका भी लिखी है। इससे भी इनकी कृष्णभक्ति का परिचय मिलता है।

अच्युतपक्षाचार्य
ये अद्वैतमत के संन्यासी एवं मध्वाचार्य के दीक्षागुरु थे। मध्वाचार्य ने ग्यारह वर्ष की अवस्था में ही सनककुलोद्भव अच्युतपक्षाचार्य (नामान्तर शुद्धानन्द) से दीक्षा ली थी। संन्यास लेकर इन्होंने गुरु के पास वेदान्त पढ़ना आरम्भ किया, किन्तु गुरु की व्याख्या से इन्हें संतोष न होता था और उनके साथ ये प्रतिवाद करने लगते थे। कहते हैं कि मध्वाचार्य के प्रभाव से इनके गुरु अच्युतपक्षाचार्य भी बाद में द्वैतवादी वैष्णव हो गये।

अच्युतव्रत
पौष कृष्णा प्रतिपदा को यह व्रत किया जाता है। तिल तथा घृत के होम द्वारा अच्युतपूजा होती है। इस दिन 'ओं नमो भगवते वासुदेवाय' मंत्र द्वारा तीस सपत्नीक ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए। दे. अहल्या- का. धे. (पत्रात्मक), पृ. 230।

अच्युतशतक
एक स्तोत्रग्रन्थ। इसके रचयिता वेदान्ताचार्य वेङ्कटनाथ थे। रचनाकाल लगभग सं. 1350 विक्रमीय है।

अच्युतावास
अच्युत (विष्णु) का आवास (स्थान),' अश्वत्थ (पीपल) वृक्ष।


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