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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

अक्षयचतुर्थी
मंगल के दिन पड़ने वाली चतुर्थी, जो विशेष पुण्यदायिनी होती है। इस दिन उपवास करने से अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है।

अक्षयफलावाप्ति (अक्षयतृतीया)
वैशाख शुक्ल तृतीया को विष्णुपूजा अक्षय फल प्राप्ति के लिए की जाती है। यदि कृतिका नक्षत्र इस तिथि को हो तब यह पूजा विशेष पुण्यप्रदायिनी होती है। दे. निर्णयसिन्धु, पृ. 92-94।
विष्णुमन्दिरों में इस पर्व पर विशेष समारोह होता है, जिसमें सर्वांग चन्दन की अर्चना और सत्तू का भोग लगाया जाता है।

अक्षयनवमी
कार्तिक शुक्ल नवमी। इस दिन भगवान विष्णु ने कूष्माण्ड नामक दैत्य का वध किया था। दे. व्रतराज, 34।

अक्षयवट
प्रयोग में गङ्गा-यमुना संगम के पास किले के भीतर अक्षयवट है। यह सनातन विश्ववृक्ष माना जाता है। असंख्य यात्री इसकी पूजा करने जाते हैं। काशी और गया में भी अक्षयवट हैं जिनकी पूजा-परिक्रमा की जाती है। अक्षयवट को जैन भी पवित्र मानते हैं। उनकी परम्परा के अनुसार इसके नीचे ऋषभदेवजी ने तप किया था।

अक्षर
(1) जो सर्वत्र व्याप्त हो। यह शिव तथा विष्णु का पर्याय है :
अव्ययः पुरुषः साक्षी क्षेत्रज्ञोऽक्षर एव च।' (महाभारत) अज (जन्मरहित) जीव को भी अक्षर कहते हैं।
(2) जो क्षीण नहीं हो :
येनाक्षरं पुरुषं वेद सत्यम्, प्रोवाच तं तत्त्वतो ब्रह्मविद्याम्।' (वेदान्तसार में उद्धृत उपनिषद्)
[जिससे सत्य और अविनाशी पुरुष का ज्ञान होता है उस ब्रह्मविद्या को उसने यथार्थ रूप से कहा।] और भी कहा है :
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्‍चाक्षर एव च। क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते।। (श्रीमद्भगवद्गीता)
[संसार में क्षर और अक्षर नाम के दो पुरुष हैं। सभी भूतों को क्षर कहते हैं। कूटस्थ को अक्षर कहते हैं।] ब्रह्मा से लेकर स्वथावर तक के शरीर को क्षर कहा गया है। अविवेकी लोग शरीर को ही पुरुष मानते हैं। भोक्ता को चेतन कहते हैं। उसे ही अक्षर पुरुष कहते हैं। वह सनातन और अविकारी है।
(3) 'न क्षरति इति अक्षरः' इस व्युत्पत्ति से विनाश-रहित, विशेषरहित, प्रणव नामक ब्रह्म को भी अक्षर कहते हैं। कूटस्थ, नित्य आत्मा को भी अक्षर कहते हैं :
क्षराद्विरुद्धधर्मत्वादक्षरं ब्रह्म भण्यते। कार्यकारणरूपं तु नश्वरं क्षरमुच्यते।। यत्किञ्चिद्वस्तु लोकेस्मिन् वाचो गोचरतां गतम्। प्रमाणस्य च तत्सर्वमक्षरे प्रतिषिध्यते।। यदप्रबोधात् कार्पण्यं बाह्मण्यं यत्प्रबोधतः। तदक्षरं प्रवोद्धव्यं यथोक्तेश्वरवर्त्‍मना ।।
[क्षर के विरोधी धर्म से युक्त होने के कारण अक्षर को ब्रह्म कहा गया है। कार्य-कारण रूप नश्वर को क्षर कहते हैं। इस विश्व में जो कुछ भी वस्तु वाणी से व्यवहृत होती है और जो प्रमेय है वह सब क्षर कहलाती है। जिसके अज्ञान से कृपणता और जिसके ज्ञान से ब्राह्मण्य है, उसे अक्षर जानना चाहिए।]
(4) अकार से लेकर क्षकार पर्यन्त 51 वर्ण होते हैं, ऐसा मेदिनीकोश में कहा गया है। उक्त वर्ण निम्नांकित हैं :
स्वर - अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ ॠ, ॡ, ए, ऐ, ओ, औ, अं अः। (15)
व्यञ्जन- क वर्ग से लेकर प वर्ग पर्यन्त। (25)
अन्तःस्थ, ऊष्म तथा संयुक्त - य,र, ल, व, श, ष, स, ह, क्ष, त्र, ज्ञ । (11)
षाण्मासिके तु सम्प्राप्ते भ्रान्तिः संजायते यतः। धात्राक्षराणि सृष्टानि पत्रारुढान्यतः पुरा।। (बृहस्पति)
[किसी घटना के छः मास बीत जाने पर भ्रम उत्पन्न हो जाता है, इसीलिए ब्रह्मा ने अक्षरों को बनाकर पत्रों में निबद्ध कर दिया है।]
लिपि पाँच प्रकार की है : मुद्रालिपिः शिल्पलिपिर्लिपिर्लेखनीसम्भवा। गुण्डिका घूर्णसम्भूता लिपयः पञ्चधा स्मृताः।।
[मुद्रालिपि, शिल्पलिपि, लेखनीसम्भव लिपि, गुण्डिकालिपि, घूर्णसम्भूत लिपि, ये पाँच प्रकार की लिपियाँ कही गयी हैं।] (वाराहीतन्त्र) दे. 'वर्ण'।

अक्षसूत्र
तान्त्रिक भाषा में 'अ' से लेकर 'क्ष' पर्यन्त वर्णमाला को अक्षसूत्र कहा गया है। यथा गौतमीय तन्त्र में :
पञ्चाशल्लिपिभिर्माला विहिता जपकर्मसु। अकारादिक्षकारान्ता अक्षमाला प्रकीर्तिता।। क्षर्णं मेरुमुखं तत्र कल्पयेन्मुनिसत्तम। अनया सर्वमन्त्राणां जपः सर्वसमृद्धिदः ।।
[मुनिश्रेष्ठ ! जप कर्म में पचास लिपियों (अक्षरों) द्वारा माला बनायी जाती है। अकार से लेकर क्षकार तक को अक्षमाला कहा गया है। अक्षमाला में 'क्ष' को मेरुमुख बनाना चाहिए। इस माला से सब प्रकार की समृद्धियाँ प्राप्त होती हैं।] दे. 'माला' और 'वर्णमाला '।

अखण्ड द्वादशी
(1) आश्विन शुक्ल एकादशी को यह व्रत प्रारम्भ होता है। उस दिन उपवास किया जाता है और द्वादशी को विष्णु-पूजा की जाती है। एक वर्ष के लिए तिथिव्रत होता है।
(2) मार्गशीर्ष शुक्ल द्वादशी को भी अखण्ड द्वादशी कहते हैं। यह यज्ञों, उपवासों और व्रतों में वैकल्य दूर करती है। दे. हेमाद्रि, व्रतकाण्ड, पृ. 1118-1124।

अगम्या
समागम के अयोग्य स्त्री। गम्या और अगम्या का विवरण यम ने इस प्रकार किया है :
या अगम्या नृणामेव निबोध कथयामि ते। स्वस्त्री गम्या च सर्वेषामिति वेदे निरूपिता।। अगम्या च तदन्या या इति वेदविदो विदुः। सामान्यं कथितं सर्वं विशेषं श्रृणु सुन्दरि।। अगम्याश्चैव या याश्च निबोध कथयामि ताः। शूद्राणां विप्रपत्नी च विप्राणां शूद्रकामिनी।। असत्यगम्या च निन्द्या च लोके वेदे पतिव्रते। शूद्रश्च ब्राह्मणीं गच्छेद् ब्रह्महत्याशतं लभेत्।। तत्समं ब्राह्मणी चापि कुम्भीपाकं व्रजेद् ध्रुवम्। यदि शूद्रां व्रजेद् विप्रो वृषलीपतिरेव सः।। स भ्रष्टो विप्रजातेश्च चाण्डालात् सोऽधमः स्मृतः। विष्ठासमश्च तत्पिण्डो मूत्रं तस्य च तर्पणम्। तत् पितृणां सुराणाञ्चा पूजने तत्समं सति। कोटिजन्मार्जितं पुण्यं सन्धयया तपसार्जितम।। द्विजस्य वृषळीभोगान्नश्यत्येव न संशयः। ब्राह्मणश्च सुरापीतो विड्भोजी वृषलीपतिः।। हरिवासरभोजी च कुम्भीपाकं व्रजेद् ध्रुवम्। गुरुपत्नीं राजपत्नीं सपत्नीमातरं प्रसूम्।। सुतां पुत्रबंधु श्वश्रूं सगर्भां भगिनीं सति। सोदरभ्रातृजायाश्च भगिनीं भ्रातृकन्यकाम्।। शिष्याञ्च शिष्यपत्नीञ्च भागिनेयस्य कामिनीम्। भ्रातृपुत्रप्रियाश्चैवात्यगम्यामाह पद्मजः।। एतास्वेकामनेकां वा यो व्रजेन्मानवाधमः। स मातृगामी वेदेषु ब्रह्मत्याशतं लभेत्।। अकर्मार्होऽपि सोऽस्पृंश्यो लोके वेदेऽतिनिन्दितः। स याति कुम्भीपाकं च महापापी सुदुष्करम्।। (ब्ह्म पु., प्रकृतिखण्ड, अ. 28)
[पुरुषों के लिए अगम्या स्त्री के सम्बन्ध में मैं कहता हूँ, सुनो। सबके लिए अपनी स्त्री गम्या है, ऐसा वेद में कहा है। दूसरे की भार्या अगम्या है ऐसा वेदज्ञों ने कहा है। हे सुन्दरी ! सामान्य नियम कह दिया है, अब विशेष नियम सुनो। जो जो स्त्रियाँ समागम के योग्य नहीं हैं उनके विषय में कहता हूँ। सुनो -पतिव्रते ! शूद्रों का ब्राह्मणपत्नी के साथ और ब्राह्मण का शूद्र स्त्री के साथ संगम वर्जित है। ऐसा करने वाला लोक और वेद में निन्द्य कहा गया है । ब्राह्मणी के साथ समागम करनेवाला शूद्र सौ ब्रह्महत्याओं का फल पाता है। शूद्र के साथ समागम करने वाली ब्राह्मणी शीघ्र कुम्भीपाक नरक को जाती है। शूद्रा के साथ संभोग करने वाला ब्राह्मण शूद्रा-पति कहलाता है। वह जातिभ्रष्ट हो जाता है। उसे चाण्डाल से भी अधम कहते हैं। उसके द्वारा किया गया पिण्डदान विष्ठा के समान और तर्पण मूत्र के सदृश होता है। पितरों और देवताओं के पूजन में भी यही होता है। सन्ध्या, पूजा और तप द्वारा करोड़ों जन्मों में सञ्चित ब्राह्मण का पुण्य शूद्रा स्त्री के साथ सम्भोग करने से नष्ट हो जाता है इसमें संश्य नहीं है। मदिरा पीने वाला, वेश्यागामी के गृह में भोजन करने वाला, शूद्रा का पति तथा एकादशी के दिन भोजन करने वाला ब्राह्मण निश्चित ही कुम्भीपाक नरक प्राप्त करता है।
गुरु-स्त्री, राजा की स्त्री, सौतेली माता तथा उसकी कन्या, पुत्री, पुत्र की स्त्री, गर्भवती स्त्री, सास, बहिन, भाई की पत्नी, शिष्या, भतीजी, शिष्य की पत्नी, भांजी, भतीजे की स्त्री, इन्हें ब्रह्मा ने सर्वथा समागम के अयोग्य कहा है। जो अधम पुरुष इनमें से किसी एक अथवा अनेक के साथ समागम करता है वह मातृगामी कहा गया है और उसे सौ ब्रह्महत्याओं का पाप होता है। वह किसी प्रकार धर्मकार्य नहीं कर सकता। वह अस्पृश्य है और लोक-वेद में निन्दित माना गया है। वह कुम्भीपाक नरक को जाता है और महापापी है।]
4

अगस्ति (अगस्त्य)
कुछ वैदिक ऋचाओं के द्रष्टा ऋषि (ऋग्वेद 1.165.191)। ऋग्वेद में कहीं- कहीं इनका उल्लेख है, विशेष कर इनके आश्चर्यजनक प्रादुर्भाव एवं पत्नी लोपामुद्रा के सम्बन्ध के बारे में चर्चा है। ये दक्षिण भारत के संरक्षक ऋषि थे, जहाँ आज भी इनसे सम्बन्धित अनेक पवित्र स्थान हैं। प्रयाग के समीप यमुना-तट पर इनकी कुटी का स्मृति-अवशेष है।
इनकी उत्पत्ति मित्र एवं वरुण के द्वारा कुम्भ (कलश) से मानी जाती है। दो पिताओं के कारण इन्हें 'मैत्रावरुणि' कहते हैं एवं कलश से उत्पन्न होने के कारण ये 'कुम्भसम्भव' तथा 'घटयोनि' कलाते हैं। अगस्त्य का एक वैदिक नाम 'मान्य' भी है क्योंकि कुम्भ से जन्म लेने के बाद वे 'मान' से 'मित' (मापे गये) हुए थे।
संन्यासी के रूप में वृद्धावस्था में अपनी और पितरों की नरक से रक्षा करने के लिए अगस्त्य को एक पुत्र उत्पन्न करने की कामना हुई। अतएव उन्होंने तपोबल से एक स्त्री लोपामुद्रा की सृष्टि सभी जीवों के सर्वोत्तम भागों से की तथा उसे विदर्भ के राजा को कन्या के रूप में सौंप दिया। अलौकिक सौन्दर्य होते हुए भी राजा के भय से किसी का साहस उसका पाणिग्रहण करने का नहीं हुआ। अन्त में अगस्त्य ने उस कन्या के साथ विवाह करने का प्रस्ताव राजा से किया, मुनि के क्रोध के भय से राजा ने उसे मान लिया। लोपामुद्रा अगस्त्य मुनि की पत्नी बनी। गङ्गाद्वार में तपस्या करने के उपरान्त जब अगस्त्य ने अपनी पत्नी का आलिंगन करना चाहा तो उसने तब तक अस्वीकार किया जब तक उसे उसके पिता के घर के समान रत्नाभूषणों से न विभूषित किया जाय। लोपामुद्रा की इस इच्छापूर्ति के लिए अगस्त्य कई राजाओं के पास धन के लिए गये, किन्तु उनके कोषों में आय-व्यय समान था और वे सहायता न दे सके। तब वे मणिमती के दानव राजा इल्वल के यहाँ गये, जो अपने धन के लिए प्रसिद्ध था। इल्वल ब्राह्मणों का शत्रु था। उसका वातापी नामक भाई था। किसी ब्राह्मण के आगमन पर इल्वल अपने भाई वातापी को मारकर उसका मांस ब्राह्मण को खिलाता था। जब ब्राह्मण भोजन कर चुकता तो वह जादू की शक्ति से वातापी को पुकारता जो ब्राह्मण का पेट फाड़कर निकल आता। इस प्रकार अपने शत्रु ब्राह्मणों का वह नाश किया करता था। दानव ने अपना प्रयोग अगस्त्य पर भी किया किन्तु उसकी जादूशक्ति वातापी को जीवित न कर सकी। अगस्त्य उसको पले ही पचा चुके थे। इल्वल ने क्रोधित होने के कारण अगस्त्य को धन देने से इनकार किया। ऋषि ने अपने नेत्रों से अग्नि उत्पन्न कर उसको भस्म कर दिया। अन्ततोगत्वा ऋषि को लोपामुद्रा से एक पुत्ररत्न उत्पन्न हुआ जिसका नाम 'दृधस्यु इध्मवाह' पड़ा। दे. 'इल्वल'।
अगस्त्य का दूसरा प्रसिद्ध कार्य नहुष को अभिशप्त कर सर्प बनाना था। नहुष इन्द्र का पद प्राप्त करके शची को ग्रहण करना चाहता था। शची की शर्त पूरी करने के लिए वह सात ऋषियों द्वारा ढोयी जाने वाली पालकी पर बैठ शची के पास जा रहा था। उसने रास्ते में अगस्त्य के सिर पर पैर रख दिया और शीघ्रता से चलने के लिए 'सर्प-सर्प' कहा। इस पर ऋषियों ने उसे 'सर्प' हो जाने का उस समय तक के लिए शाप दिया, जब तक युधिष्ठिर उसका उद्धार न करें। महाभारत का नहुषोपाख्यान इसी पुराकथा के आधार पर लिखा गया है।
संस्कृत ग्रन्थों में अगस्त्य का नाम विन्ध्य पर्वत-माला की असामान्य वृद्धि को रोकने एवं महासागर को पी जाने के सम्बन्ध में लिया जाता है। ये दक्षिणावर्त में आर्य संस्कृति के प्रथम प्रचारक थे।
शरीर-त्याग के बाद अगस्त्य को आकाश के दक्षिणी भाग में एक अत्यन्त प्रकाशमान तारे के रूप में प्रतिष्ठित किया गया। इस नक्षत्र का उदय सूर्य के हस्त नक्षत्र में आने पर होता है, जब वर्षा ऋतु समाप्ति पर होती है। इस प्रकार अगस्त्य प्रकृति के उस रूप का प्रतिनिधित्व करते हैं जो मानसून का अन्त करता है एवं विश्वास की भाषा में महासागर का जल पीता है (जो फिर से उस चमकीले सूर्य को लाता है, जो वर्षा काल में बादलों से छिप जाता है और पौराणिक भाषा में विन्ध्य की असामान्य वृद्धि को रोककर सूर्य को मार्ग प्रदान करता है)।
दक्षिण भारत में अगस्त्य का सम्मान विज्ञान एवं साहित्य के सर्वप्रथम उपदेशक के रूप में होता है। वे अनेक प्रसिद्ध तमिल ग्रन्थों के रचयिता कहे जाते हैं। प्रथम तमिल व्याकरण की रचना अगस्त्य ने ही की थी। वहाँ उन्हें अब भी जीवित माना जाता है जो साधारण आँखों से नहीं दीखते तथा त्रावनकोर की सुन्दर अगस्त्य पहाड़ी पर वास करते माने जाते हैं, जहाँ से तिन्नेवेली की पवित्र पोरुनेई अथवा ताम्रपर्णी नदी का उद्भव होता है।
हेमचन्द्र के अनुसार उनके पर्याय हैं (1) कुम्भसम्भव, (2) मित्रावरुणि, (3) अगस्ति, (4) पीताब्धि, (5) वातापिद्विट्, (6) आग्नेय, (7) आग्निमारुते, (8) घटोद्भव।

अगस्‍त्‍यदर्शन-पूजन
सूर्य जब राशि-चक्र के मध्य में अवस्थित होता है उस समय अगस्त्य तारे को देखने के पश्चात् रात्रि में उसका पूजन होता है। (नीलमत पुं., श्लोक 834 से 838।)


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