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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

अंश
(1) द्वादश आदित्यों में से एक। महाभारत में इनकी गणना इस प्रकार है :
धाता मित्रोऽर्यमा शक्रो वरुणस्त्वंश एव च। भगो विवस्वान् पूषा च सविता दशमस्तथा।। एकादशस्तथा त्वष्टा द्वादशो विष्णुरेव च। जघन्यस्त्वेष सर्वेषामादित्यानां गुणाधिकः।।
(1) पुराणों के अनुसार यदुवंश के एक राजा का नाम है :'ततः कुरुवत्सः। ततश्च अनुरथः। ततः पुरुहोत्रो जज्ञे। ततश्च अंश इति।' (श्रीमद्भागवत)
(3) धर्मशास्त्र के अनुसार पैतृक रिक्थ का विभागाङ्क : 'द्वावंशौ प्रतिपद्येत विभजन्नात्मनः पिता।'
(4) भगवद्गीता में जीवात्मा को ईश्वर का अंश कहा गया है : 'ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।'

अंशक (अंशभाक्)
धर्मशास्त्र के अनुसार पैतृक सम्पत्ति में अंश (भाग) पाने वाला दायाद :
स्रवन्तीष्वनिरुद्धासु त्रयो वर्णा द्विजातयः।, प्रातरुत्त्थाय कर्तव्यं देवर्षिपितृतर्पणम्।।, निरुद्धासु न कुर्वीरन्‍नंशभाक् तत्र सेतुकृत्।। (प्रायश्चित्ततत्त्व)
पारिवारिक, दैव तथा पितृकार्य करने का उसी को अधिकार होता है जिसे पैतृक सम्पत्ति में अंश मिलता है।

अंशी
पैतृक सम्पत्ति में अंश (भाग) पाने वाला दायाद :
विभागञ्चेत् पिता कुर्यात् स्वेच्छया विभजेत् सुताना। ज्येष्ठं वा श्रेष्ठभागेन सर्वे वा स्युः समांशिनः।। (याज्ञवल्क्य स्मृति)
[पिता अपनी सम्पत्ति का विभाग करते हुए स्वेच्छा से पुत्रों में विभाजन कर दे। ज्येष्ठ पुत्र को श्रेष्ठ भाग दे अथवा सभी पुत्र समानांशी हों।]

अंशुमान्
सूर्य का एक पर्याय (अंशवो विद्यन्ते अस्य इति)।
वंशावली के अनुसार सूर्यवंश के राजा असमञ्ज के पुत्र का नाम :
सगरस्यासमञ्जस्तु असमञ्जादयांशुमान्। दिलीपोंऽशुमतः पुत्रो दिलीपस्य भगीरथः।। (रामायण, बालकाण्ड)
[सगर का पुत्र असमञ्ज, असमञ्ज का अंशुमान्, अंशुमान् का दिलीप और दिलीप का पुत्र भगीरथ हुआ।]
ब्रह्मवैवर्त-पुराण (प्रकृति खण्ड, अष्टम अध्याय) में गङ्गावतररण के सन्दर्भ में अंशुमान् की कथा मिलती है।

अंशुमाली
सूर्य का पर्याय (अंशूनां माला अस्ति यस्य इति)। विष्णुपुराण में आदित्य और अंशुमाली की अभिन्नता बतायी गयी है : 'आदित्य इवांशुमाली चचार।'

अः
स्वर वर्ण का षोडश अक्षर (किन्हीं के मत में यह 'अयोगवाह' है। माहेश्वर सूत्रों में इसका योग (पाठ) नहीं है)।
कामधेनुतन्त्र में इसका माहात्म्य निम्नांकित है :
अःकारं परमेशानि विसर्गसंहितं सदा। अःकारं परमेशानि रक्तविद्युत्प्रभामयम्।। पञ्चदेवमयो वर्णः पञ्चप्राणमयः सदा। सर्वज्ञानमयो वर्ण आत्मादि तत्त्वसंयुतः।। बिन्दुत्रयमयो वर्णः शक्तित्रयमयः सदा। किशोरवयसः सर्वे गीतावाद्यादितत्पराः।। तन्त्रशास्त्र में इसके निम्नांकित नाम हैं :
अः कण्ठको महासेनः कालापूर्णामृता हरिः। इच्छा भद्रा गणेशश्च रतिर्विद्यामुखी सुखम्।। द्विबिन्दुरसना सोमोऽनिरुद्धो दुःखसूचकः। द्विजिह्वः कुण्डलं वक्रं सर्गः शक्तिर्निशाकरः।। सुन्दरी सुयशानन्ता गणनाथो महेश्वरः।।
एकाक्षर कोश में इसका अर्थ महेश्वर किया गया है। महाभारत (13.17.126) में कथन है :
बिन्दुर्विसर्गः सुमुखः शरः सर्वायुधः सहः।'

अकल
अखण्ड, एक मात्र परब्रह्म, जिसकी कला (अंश) या कलना (गणना, माप) नहीं है।

अकाली
सिक्खों में 'सहिजधारी' और 'सिंह' दो विभाग हैं। सहिजधारी वे हैं जो विशेष रूप या बाना नहीं धारण करते। इनकी नानकपंथी, उदासी, हन्दाली, मीन, रामरंज और सेवापन्थी छः शाखाएँ हैं। सिंह लोगों के तीन पंथ हैं-
(1) खालसा, जिसे गुरु गोविन्दसिंह ने चलाया,
(2) निर्मल, जिसे वीरसिंह ने चलाया और
(3) अकाली, जिसे मानसिंह ने चलाया। अकाली का अर्थ है 'अमरणशील', जो 'अकाल पुरुष' शब्द स्रे लिया गया है। अकाली सैनिक साधुओं का पंथ है, जिसकी स्थापनी सन् 1690 में हुई। उपर्युक्त नवों सिक्ख सम्प्रदाय नानकशाही 'पंजग्रंथी' से प्रार्थना आदि करते हैं। 'जपजी', 'रहरास', 'सोहिला', 'सुखमनी' एवं 'आसा- दी- वार' का संग्रह ही 'पंजग्रंथी' है।
अकाली सम्प्रदाय दूसरे सिक्ख सम्प्रदायों से भिन्न है, क्योंकि नागा तथा गोसाँइयों की तरह इनका यह सैनिक संगठन है। इसके संस्थापक मूलतः स्वयं गुरू गोविन्दसिंह थे। अकाली नीली धारीदार पोशाक पहनते हैं, कलाई पर लोहे का कड़ा, ऊँची तिकोनी नीली पगड़ी में तेज धारवाला लोहचक्र, कटार, छुरी तथा लोहे की जंजीर धारण करते हैं।
सैनिक की हैसियत से अकाली 'निहंग' कहे जाते हैं जिसका अर्थ है 'अनियंत्रित'। सिक्खों के इतिहास में इनका महत्त्वपूर्ण स्थान है। सन् 1818 में मुट्ठीभर अकालियों ने मुलतान पर घेरा डाला तथा उस पर विजय प्राप्त की। फूलसिंह का चरित्र अकालियों के पराक्रम पर प्रकाश डालता है। फूलसिंह ने पहले-पहल अकालियों के नेता के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त की जब उसने लार्ड मेट्कॉफ के अंगरक्षकों पर हमला बोल दिया था। फिर वह रणजीतसिंह की सेवा में आ गया। फूलसिंह के नेतृत्व में अकालियों ने सन् 1823 में यूसुफजइयों (पठानों) पर रणजीतसिंह को विजय दिलवायी। इस युद्ध में फूलसिंह को वीरगति प्राप्त हुई। उसका स्मारक नौशेरा में बना हुआ है, जो हिन्दू एवं मुसलमान तीर्थयात्रियों के लिए समान श्रद्धा का स्थान है।
अकालियों का मुख्य कार्यालय अमृतसर में 'अकाल बुंगा' है जो सिक्खों के कई पूज्य सिंहासनों में से एक है। अकाली लोग धार्मिक कृत्यों का निर्देश वहीं से ग्रहण करते हैं। ये अपने को खालसों का नेता समझते हैं। रणजीतसिंह के राज्यकाल में इनका मुख्य कार्यालय आनन्दपुर हो गया था, किन्तु अब इनका प्रभाव बहुत कम पड़ गया है।
अकाली संघ के सदस्य ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं। उनका कोई नियमित मुखिया या शिष्य नहीं होता, किन्तु फिर भी वे अपने गुरू की आज्ञा का पालन करते हैं। गुरू की जूठन चेले (शिष्य) प्रसाद रूप में खाते हैं। वे दूसरे सिक्खों की तरह मांस एवं मदिरा का सेवन नहीं करते, किन्तु भाँग का सेवन अधिक मात्रा में करते हैं। दे. सिक्खा।

अक्रूरघाट
वृन्दावन से मथुरा जाते समय श्री कृष्ण ने अक्रूर को यमुनाजल में दिव्य दर्शन कराया था। इसीलिए इसका महत्त्व है। इसको 'ब्रह्मह्रद' भी कहते हैं। यह मथुरा-वृन्दावन के बीच कछार में स्थित है। समीप में गोपीनाथजी का मन्दिर है। वैशाख शुक्ल नवमी को यहाँ मेला होता है।

अक्षमाला
(1) अक्षों (रुद्राक्ष आदि) की माला, सुमिरनी या जपमाला। इसको अक्षसूत्र भी कहते हैं।
(2) वसिष्ठ की पत्नी का एक नाम भी अक्षमाला है। मनु ने कहा है :
अक्षमाला वसिष्ठेन संयुक्ताधमयोनिजा।'
[नीच योनि में उत्पन्न अक्षमाला का वसिष्ठ के साथ विवाह हो गया।]


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