भगवान् की मुख्य द्वादश शक्तियों में अन्यतम शक्ति अविद्या है। श्री, पुष्टि, गिरा, कान्ति, कीर्ति, तुष्टि, इला, ऊर्जा, विद्या, अविद्या, शक्ति और माया ये भगवान की मुख्य शक्तियाँ हैं। इनमें अविद्या शक्ति आवरण का काम करती है। माया शक्ति विक्षेप का काम करती है। अन्य शक्तियाँ भी अपने नाम के अनुरूप कार्य करती हैं। यह अविद्या शक्ति विद्या का अभाव रूप नहीं है किन्तु विद्या से विपरीत भाव रूप है (त.दी.नि.पृ. 78)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
अविहिता भक्ति
काम, क्रोध, भय, स्नेह, ऐक्य या सौहृद रूप उपाधि के वश से उत्पन्न भगवद्विषयक स्नेहभाव अविहिता भक्ति है। यद्यपि द्वेष रूप उपाधि में भगवान के प्रति स्नेह नहीं होता, फिर भी कामादि के समान ही शास्त्र द्वारा अविहित होने के कारण तथा भगवद् विषयक तन्मयता के कारण द्वेष भाव में भी अविहित भक्ति है, क्योंकि द्वेषभाव भी भगवान में प्रवेश का हेतु होता है।
माहात्म्य ज्ञान के साथ भगवान् के रूप में अपने प्रभु के प्रति निरुपाधिक (निर्व्याज) स्नेह विहिता भक्ति है। ऐसी भक्ति शास्त्र विहित होने से विहिता भक्ति कही जाती है (अ.भा.पृ. 1104)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
अव्यक्त
अव्यक्त से ही व्यक्त की उत्पत्ति होती है, अतः इस व्यक्त जगत् की पूर्वावस्था को अव्यक्त कहते हैं। अव्यक्त शब्द का अर्थ भगवत्कृपा भी है, क्योंकि भगवत्कृपा का ही परिणाम यह संपूर्ण जगत् है (अ.भा.पृ. 480)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
अष्ट अतिग्रह
प्राण, मन और वाक् सहित चक्षुरादि पंच ज्ञानेन्द्रियाँ अष्ट अतिग्रह हैं। इन्हें ही श्रुतियों में अष्ट ग्रह भी कहा गया है। विषय का ग्रहण करने के कारण ये ग्रह कहे जाते हैं तथा विषय के ग्रहण में इनका अतिशय योग होने से ये अतिग्रह शब्द से व्यवहृत होते हैं। प्राण श्वास-प्रश्वास क्रिया द्वारा जीवन प्रदान कर हर प्रकार के विषय ग्रहण में प्रयोजक है। मन भी विषय ग्रहण में सभी इन्द्रियों का सहायक होता है। वाक् शब्द को उत्पन्न कर श्रोतेन्द्रिय को विषय प्रदान करती है। इस प्रकार प्राण, मन और वाक् की सहायता से चक्षुरादि इन्द्रियाँ रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द को ग्रहण करती हैं। इसलिए ये आठों अतिग्रह हैं। वस्तुतः प्राण ही वृत्तिभेद से उक्त आठ भेदों में विभक्त है, क्योंकि प्राण सभी में अनुस्यूत है (अ.भा.पृ. 776)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
असुर
जो व्यक्ति श्रीकृष्ण को परम तत्त्व के रूप में न मान कर उनसे भिन्न किसी अन्य को ही परम तत्त्व मानता है, वह असुर है। पुराणों का वचन है - हे बुधजनों! यशोदा की गोद में लालित तत्त्व को ही परत तत्त्व समझो। उससे भिन्न को जो परम तत्त्व मानते हैं, उन्हें असुर समझो (अ.भा.पृ. 1439)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
अहल्लिक
मिथ्या शरीर अहल्लिक कहा जाता है। `अहनि लीयते` इस व्युत्पत्ति के अनुसार दिन में-प्रकाश में-ज्ञान में जिसका लय हो जाए, वह अहल्लिक है। यह शब्द शाकल्य ब्राह्मण में आया है। `कस्मिन्नु हृदयं प्रतिष्ठितं भवतीति शाकल्यप्रश्ने याज्ञवल्क्यो अहल्लिक इति होवाच`। (द्रष्टव्य. अ. भा. प्रकाश की रश्मि व्याख्या) (अ.भा.पृ. 578)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
आकूति
कर्मेन्द्रियों का एक धर्म आकूति है। इसी के कारण वागिन्द्रिय द्वारा वचन क्रिया, हाथ द्वारा आदान (ग्रहण) क्रिया, पैर द्वारा गमन क्रिया, गुदेन्द्रिय द्वारा मल विसर्ग क्रिया तथा जननेन्द्रिय द्वारा आनंद क्रिया की उत्पत्ति होती है (कर्मेन्द्रिय से संबद्ध होने के कारण आकूति बाह्य प्रयत्न रूप है (अ.भा.पृ. 500, 782)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
आगति
परलोक से जीव का इस लोक में आना आगति है तथा इस लोक से जीव का परलोक में गमन शास्त्रों में गति शब्द से कहा गया है (अ.भा.पृ. 710)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
आत्मगृहीति
आत्मा का अर्थात् ब्रह्म का ग्रहण आत्मगृहीति है। `तस्यैष एव शारीर आत्मा यः पूर्वस्य` यहाँ आनंदमय की आत्मा के रूप में ब्रह्म ही गृहीत किया गया है, जीव नहीं। अर्थात् जैसे अन्नमयादिकी आत्मा आनंदमय है, वैसे आनंदमय की भी आत्मा आनंदमय ही है और यह आंनदमय सर्वत्र ब्रह्म ही विवक्षित है (अ.भा.प. 1028)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
आत्ममाया
आत्मा पद से भगवान् का ग्रहण होने से भगवान की माया आत्ममाया है। माया भगवान् का स्वरूपभूत एवं उनकी चिच्छक्तिरूप है। यह माया सर्वभवन सामर्थ्य रूपा है, जिससे संपूर्ण जगत का उद्भव, स्थिति और लय होता है (भा.सु. 10/2/30)।