अपनी शक्तियों से युक्त भगवान् द्वारा जगत में की जाने वाली क्रीडाएँ निरोध हैं। तामस, राजस, सात्त्विक तीन प्रकार के निरोध्य भक्तों के अनुसार निरोध भी तीन हैं - तामस, राजस और सात्त्विक। इन विविध निरोधों के द्वारा भक्तजन प्रपञ्च की ओर से निरोध पाकर भगवान् में आसक्ति प्राप्त कर लेते हैं (प्र.र.पृ. 159)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
त्रिविध भगवत्तनु
शांत, अशांत, मूढ़योनि ये तीन प्रकार के भगवत्तनु (शरीर) हैं। शांत शरीर सात्त्विक है, अशांत शरीर राजस है तथा मूढ़योनि शरीर तामस है। ये तीनों ही शरीर भगवान् की लीलाओं के साधन होने से भगवान् के ही तनु हैं (भा.सु. 11टी. पृ. 626)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
त्रिविधाक्षर ब्रह्म
अक्षर ब्रह्म तीन हैं। प्रथम - पुरुषोत्तम का व्यापि बैकुण्ठादि स्वरूप धाम अक्षर ब्रह्म हैं। `अव्यकतोSक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम्। यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।।` (गीता) द्वितीय - जिसकी संपूर्ण शक्तियाँ तिरोहित हैं, ऐसा सर्वव्यवहारातीत द्वितीय अक्षर ब्रह्म है। तृतीय - पुरुषोत्तम शब्द वाच्य श्रीकृष्ण स्वरूप तृतीय अक्षर ब्रह्म है (प्र.र.पृ. 55)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
त्रिविधात्मा
सामान्य जीव रूप, अंतर्यामी भगवद् रूप तथा विभूति रूप ये आत्मा के तीन भेद हैं (भा.सु.11 टी. पृ. 500)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
त्रिवृत्करण
तेज, अप् (जल) और पृथ्वी इन तीनों के प्रत्येक में अपने से भिन्न दो तत्त्वों का सम्मिश्रण त्रिवृत्करण है। जैसे, तेजस्तत्त्व में अप् और पृथ्वी तत्त्व का मिश्रण, अप् तत्त्व (जल) में तेजः और अप् तत्त्व का मिश्रण तथा पृथ्वी में तेजः और अप् तत्त्व का मिश्रण। इस प्रकार त्रिवृत्करण प्रक्रिया द्वारा प्रत्येक तत्त्व निरूपात्मक बन जाते हैं (अ.भा.पृ. 806)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
त्रिवृत्जन्म
शुक्ल, सावित्र और दैक्ष (याज्ञिक) ये त्रिवृत् जन्म हैं। ब्राह्मणादि के रूप में जन्म शुक्ल है। गायत्री में अधिकार की प्राप्ति सावित्र जन्म है तथा यज्ञ में दीक्षा प्राप्त हुए का दैक्ष जन्म है (भा.सु.पृ 74)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
त्रिसत्य
भूः, भुवः, और स्वःरूप तीनों लोक अथवा जीव, अन्तर्यामी और विभूति रूप त्रिविध आत्मा सत्य हैं जिसके, ऐसे भगवान् त्रिसत्य हैं। अथवा ज्ञान, बल और क्रियारूप त्रिविध शक्तियों से युक्त होने के कारण भगवान् त्रिसत्य हैं (त.दी.नि.पृ. 78)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
त्रिसर्ग
तीनों गुणों का कार्य देह सर्ग, इन्द्रिय सर्ग और अन्तःकरण सर्ग, ये त्रिसर्द हैं। भगवान् इन त्रिविध सृष्टि कल्पना के अधिष्ठानमात्र हैं, उन्हें वस्तुतः देहादि नहीं है। अथवा आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक भेद से त्रिविध सृष्टि त्रिसर्ग है (भा.सु.11 टी. पृ. 22)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
तत्त्वसर्ग
सांख्य में तीन प्रकार का सर्ग माना गया है - तत्त्वसर्ग, भूतसर्ग एवं भावसर्ग। तत्त्वसर्ग = तत्त्वों का सर्ग = सृष्टि। तत्त्व = महत - अहंकार - तन्मात्र - इन्द्रिय - मन - भूत। इन तत्त्वों के मूल उपादान अव्यक्त (साम्यावस्था प्राप्त त्रिगुण) हैं और मूल निमित्त अपरिणामी चेतन पुरुष है। इन तत्त्वों की सृष्टि का क्रम नियत है। क्रम यह है - प्रकृति से महत्तत्त्व, महत् से अहंकार, अहंकार के सात्त्विक भाग से दस इन्द्रियाँ तथा मन एवं उसके तामस भाग से पाँच तन्मात्र; पाँच तन्मात्रों से पाँच भूत। कहीं-कहीं क्रम का यथावत् निर्देश न करते हुए भी तत्त्वों का उद्भव कहा गया है, जैसे महत्तत्त्व से ही तन्मात्र हुए हैं - ऐसा भी कहा गया है पर इससे व्यवस्थित क्रम अप्रामाणिक नहीं हो जाता।
(सांख्य-योग दर्शन)
तनु
अस्मिता आदि क्लेशों की चतुर्विध अवस्थाओं में यह एक है। तनु (=क्षीण) - अवस्था वह है जिसमें क्लेशों की कार्य करने की शक्ति प्रतिपक्ष-भावना के कारण शिथिल हो गई हो। इस अवस्था में स्थित क्लेश तभी सान्द्रिय हो सकते हैं (अर्थात् अपने अनुरूप वृत्ति को उत्पन्न कर सकते हैं) जब उद्बोधक सामग्री अधिक शक्तिशाली हो। क्रिया-योग (द्र. योगसू. 2/1) के द्वारा यह अवस्था उत्पन्न होती है। योगाभ्यास के बिना जो तनुत्व देखा जाता है, वह कृत्रिम है। तनु -अवस्था में स्थित क्लेश विवेक का सर्वथा अभिभव नहीं कर सकता। तनु-अवस्था को कभी-कभी सूक्ष्म-अवस्था भी कहा जाता है, यद्यपि 'सूक्ष्मावस्था' शब्द का प्रायः दग्धबीज अवस्था के लिए ही प्रयोग होता है।