सांख्योक्त प्रसिद्ध त्रिगुण में यह एक है - (अन्य दो हैं - सत्त्व और तमस्)। रजोगुण के लक्षण, स्वभाव आदि के विषय में गुण शब्द के अंतर्गत देखिए।
शब्दादि पाँच गुणों में रूप रजःप्रधान है; पृथ्वी आदि पाँच भूतों में तेजस्, पाँच तन्मात्रों में रूपतन्मात्र, पाँच ज्ञानेन्द्रियों में चक्षु, पाँच कर्मेन्द्रियों में पाद, तीन अन्तःकरणों में अहंकार रजःप्रधान हैं। जाग्रत् आदि अवस्थाओं में स्वप्नावस्था रजःप्रधान है, देवादि प्राणियों में मनुष्य रजःप्रधान है। इसी प्रकार विवेक-वैराग्य-निरोध में वैराग्य रजःप्रधान है।
(सांख्य-योग दर्शन)
राग
पाँच क्लेशों में राग एक है (द्र. योगसू. 2/3,7)। सुखसाधक पदार्थ में (उसके स्मृत या दृश्यमान होने पर) या सुख में सुख के अनुभवकारी प्राणी का सुखानुस्मृति-पूर्वक जो गर्ध (= आकांक्षा, सदैव चाहते रहना), तृष्णा (अप्राप्त विषय को पाने की इच्छा) या लोभ (= लोलुपता = विषयप्राप्ति होने पर भी पाने की इच्छा) होता है, वह राग है। दूसरे शब्दों में, सुखवासना का अनुस्मरणपूर्वक तदनुकूल जो प्रवृत्ति या चित्तावस्था होती है, वह राग है। यह ज्ञातव्य है कि सुख आदि स्मर्यमाण है तो राग सुखानुस्मृतिपूर्वक होता है; सुख यदि अनुभूयमान है तो सुखानुस्मृति की आवश्यकता नहीं होती।
(सांख्य-योग दर्शन)
राजयोग
यद्यपि प्राचीन योगग्रन्थों में राजयोग शब्द नहीं मिलता, तथापि अर्वाचीन ग्रन्थों में (हठयोग, नाथयोग आदि के ग्रन्थों में) यह शब्द योगविशेष के लिए बहुशः प्रयुक्त हुआ है। केवल राजयोगपरक कोई ग्रन्थ प्रचलित नहीं है। राजयोगपरक कुछ ग्रन्थों के उद्धरण मिलते हैं, जिनसे ज्ञात होता है कि कभी इस योग पर स्वतन्त्र ग्रन्थ भी लिखे गए थे। शंकराचार्य के नाम से प्रसिद्ध एक राजयोगभाष्य नामक ग्रन्थ प्रचलित है, जो न शंकराचार्यकृत है और न ही किसी ग्रन्थ में यह ग्रन्थ स्मृत या उद्धृत हुआ है।
विभिन्न ग्रन्थों में राजयोग के स्वरूप एवं साधन पर जो कहा गया है, वह इस प्रकार है - राजयोग का अर्थ है - योगों का राजा (अर्थात् श्रेष्ठयोग)। इस शब्द की अन्य व्याख्या भी हैं। योग चार हैं - मन्त्र, हठ, लय एवं राजा (द्र. मन्त्रयोग आदि शब्द)। ये चार उत्तरोत्तर बढ़कर हैं अर्थात् राजयोग सर्वोच्च योग है। हठयोग के ग्रन्थों में स्पष्टतया हठयोग को राजयोग का साधन ही माना गया है।
यह राजयोग योगसूत्रोक्त निर्जीवसमाधि अथवा असंप्रज्ञात योग है - यह स्पष्ट रूप से योगचिन्तामणि तथा हठयोगप्रदीपिका की ज्योत्स्नाटीका में कहा गया है। एक मत यह भी है कि रजः (अर्थात् शक्ति) तथा रेतः (अर्थात् शिव) का योग इस मार्ग से होता है। इसी प्रकार यह भी कहीं-कहीं कहा गया है कि राजयोग के अभ्यास से जीवात्मा सब उपाधियों का त्याग करके परमात्मा के साथ एकीभूत हो जाता है। राजयोग के साधन शंकराचार्य कृत अपरोक्षानुभूति, योगतारावली तथा वाक्यसुधावली में विशेषतः बताए गए हैं। उन्मनीमुद्रा, भ्रूमध्यदृष्टि, नादानुसन्धान आदि इस मार्ग के प्रधान साधन हैं।