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Definitional Dictionary of Indian Philosophy Vol.-II

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आकूति
कर्मेन्द्रियों का एक धर्म आकूति है। इसी के कारण वागिन्द्रिय द्वारा वचन क्रिया, हाथ द्वारा आदान (ग्रहण) क्रिया, पैर द्वारा गमन क्रिया, गुदेन्द्रिय द्वारा मल विसर्ग क्रिया तथा जननेन्द्रिय द्वारा आनंद क्रिया की उत्पत्ति होती है (कर्मेन्द्रिय से संबद्ध होने के कारण आकूति बाह्य प्रयत्न रूप है (अ.भा.पृ. 500, 782)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

आगति
परलोक से जीव का इस लोक में आना आगति है तथा इस लोक से जीव का परलोक में गमन शास्त्रों में गति शब्द से कहा गया है (अ.भा.पृ. 710)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

आत्मगृहीति
आत्मा का अर्थात् ब्रह्म का ग्रहण आत्मगृहीति है। `तस्यैष एव शारीर आत्मा यः पूर्वस्य` यहाँ आनंदमय की आत्मा के रूप में ब्रह्म ही गृहीत किया गया है, जीव नहीं। अर्थात् जैसे अन्नमयादिकी आत्मा आनंदमय है, वैसे आनंदमय की भी आत्मा आनंदमय ही है और यह आंनदमय सर्वत्र ब्रह्म ही विवक्षित है (अ.भा.प. 1028)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

आत्ममाया
आत्मा पद से भगवान् का ग्रहण होने से भगवान की माया आत्ममाया है। माया भगवान् का स्वरूपभूत एवं उनकी चिच्छक्तिरूप है। यह माया सर्वभवन सामर्थ्य रूपा है, जिससे संपूर्ण जगत का उद्भव, स्थिति और लय होता है (भा.सु. 10/2/30)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

आधिकारिक फल
ध्रुव आदि के समान जिन्हें ब्रह्मादि लोक का अधिकार प्राप्त हो, वे आधिकारिक कहे जाते हैं तथा उन्हें प्राप्त होने वाला फल आधिकारिक फल है। भगवान् अपने मर्यादा पुष्टि भक्त को आधिकारिक फल और अधिकार भी प्रदान नहीं करते हैं, क्योंकि अधिकार और आधिकारिक फल दोनों ही पतनशील हैं। अर्थात् इसकी अवधि पूरी होने के अनन्तर पुनः इस लोक में पतन निश्चित है (अ.भा.पृ. 1233)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

आधिकारिक रूप
भगवान् द्वारा देशकाल भेद से अनेक रूप धारण कर अनेक प्रकार की लीलायें की जाती हैं। उनमें जिस-जिस लीला में जो भक्त अधिकृत होते हैं, उनके भी उतने ही रूप होते हैं, जितने भगवान के। भगवान द्वारा प्रदत्त भक्त के वे रूप आधिकारिक रूप हैं (अ.भा.पृ. 1424)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

आयाम शब्द
आत्मा के व्यापकत्व का बोध कराने वाला श्रुति वाक्य आयाम शब्द है। जैसे - `आकाशवत् सर्वगतश्च नित्यः, ज्यायान् दिवो ज्यायान् आकाशात् वृक्ष इव स्तब्धो दिवि तिष्ठत्येक स्तेनेदं पूर्णं पुरुषेण सर्वम्` इत्यादि श्रुतिवाक्य आत्मा के व्यापकत्व को बताने वाले हैं, अतः ये वाक्य आयाम शब्द हैं (अ.भा.पृ. 968)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

आर्थक्रम
प्रयोजन वश स्वीकार किया गया क्रम आर्थक्रम है। जैसे `अग्निहोत्रजुहोति` का पाठ पहले होने पर भी बाद में पठित `यवागूं पचति`। इस वाक्य द्वारा विहित यवागू पाक ही पूर्व में अनुष्ठित होता है। क्योंकि पहले अग्निहोत्र हो चुकने पर यवागू का पाक निरर्थक हो जाएगा। इसी प्रकार `दृष्टव्यः श्रोत व्यः` इस वाक्य में भी शब्द क्रम का परित्याग कर आर्थक्रम द्वारा श्रवण का ही प्रथम अनुष्ठान होता है और दर्शन का बाद में (अ.भा.पृ. 1262)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

आलय
वल्लभ सम्प्रदाय के अनुसार आलय शब्द का प्रयोग दो अर्थों में किया गया है - एक भगवान् के अर्थ में और दूसरा भागवत रस के अर्थ में। क्योंकि भगवान् समस्त जगत के आधारभूत हैं तथा समस्त प्रपंच के लय के हेतुभूत हैं, इसलिए वे आलय हैं। एवं लय अर्थात् मोक्ष भी जिसकी तुलना में 'आ' अर्थात् 'ईषत', (अल्प) है, वह भागवत रस भी आलय है (भा.सु. 11 टी.पृ. 48)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

आसक्ति
पुष्टिमार्ग में आसक्ति एक प्रकार का भगवद्विषयक भाव है। इसके आविर्भूत होने पर भक्त के हृदय में भगवत् संबंध से रहित सभी गृहसम्बन्धी विषय बाधक हैं - ऐसा भासित होने लगता है (प्र.र.पृ. 125)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)


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