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Definitional Dictionary of Indian Philosophy Vol.-II

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कर्मज्ञान मिश्रा भक्ति
वानप्रस्थाश्रयी के लिए अधिकृत भक्ति कर्मज्ञान मिश्रा भक्ति है। यह भक्ति सत्त्व गुण के तारतम्य से तीन प्रकार के भक्तों के भेद से (क) उत्तम भक्ति (ख) मध्यम भक्ति और (ग) प्राकृत भक्ति तीन प्रकार की होती है।
(क) उत्तम भक्ति
किसी भी प्राणी का इन्द्रियों द्वारा ग्रहण होने पर चित्त की द्रवावस्था के कारण उस प्राणी में प्रविष्ट भगवदाकारता के कारण सर्वत्र भगवद् भावनामय हो जाना उत्तम भक्ति है।
(ख) मध्यम भक्ति
ईश्वर प्रभृति में प्रेम आदि से युक्त भक्त के चित्त की किंचित द्रवावस्था मध्यम भक्ति है।
(ग) प्राकृत भक्ति
चित्त की द्रवावस्था से रहित होने पर भगवान् के निमित्त श्रवणादि भागवत धर्म के अनुष्ठान में संलग्न रहना प्राकृत भक्ति है।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

कर्म मिश्रा भक्ति
गृहस्थ के लिए अधिकृत भक्ति कर्म मिश्रा भक्ति है। यह भक्ति सात्त्विकी, राजसी और तामसी भेद से तीन प्रकार की होती है (शा.भ.सू.वृ.पृ. 162)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

कर्मभेदक
शब्दान्तर, अभ्यास (आवृत्ति), संख्या, गुण, प्रक्रिया और नामधेय ये छः कर्म के भेदक होते हैं, यह बात पूर्वमीमांसा में कही गयी है और यह नियम सर्वमान्य है। इस नियम के अनुसार अन्नमय, प्राणमय, मनोमय और विज्ञानमय से भिन्न आनंदमय परमात्मा है। यह बात अन्नमयादि शब्द से भिन्न आनन्दमय के प्रयोग से सिद्ध है। इसी प्रकार कर्मभेदक अभ्यास के समान ही `को हयेवान्यात् कः प्राण्यात् यदेष आकाश आनंदों न स्यात्, एष हयेवानन्दयाति` इत्यादि विभिन्न स्तुति वाक्यों में अन्नमयादि शब्द की आवृत्ति न कर आनन्द पद की बार-बार आवृत्ति किए जाने से भी अन्नमय आदि से भिन्न आनंदमय है - यह सिद्ध है। संख्यादि कर्मभेदकों के उदाहरण मीमांसा शास्त्र में वर्णित हैं।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

कामकार
विधिवचन से प्रयुक्त न होकर केवल परानुग्रह की दृष्टि से इच्छा मात्र से करना कामकार है। इसके अनुसार `कामेन इच्छामात्रेण कारः करणम्' ऐसी कामकार शब्द की व्युत्पत्ति है अथवा 'कामेन काऐ यस्य स कामकारः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार परानुग्रह के लिए इच्छा मात्र से किया गया कर्म कामकार है। जो ब्रह्मविद् है, उसमें ऐसे कर्म से गुण या दोष का संश्लेष नहीं होता है (अ.भा.वृ. 1282)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

कृतात्यय
कृत के सोमभाव का अत्यय नाश कृतात्यय है। द्युलोक, पर्जन्य, पृथ्वी, पुरुष और योषित् इनका वर्णन विभिन्न आहुतियों के निक्षेपार्थ पंचाग्नि के रूप में छान्दोग्य उपनिषद् में किया गया है। इनमें पर्जन्य रूप द्वितीय अग्नि में सोम भाव को प्राप्त अप् (जल) की आहुति होने पर अप् का सोमभाव नष्ट हो जाता है और वह अप् वृष्टि भाव को प्राप्त कर जाता है। यही कृत का अत्यय है अर्थात् सोम भाव का नाश है। यही अप् क्रमशः योषित् रूप पंचम अग्नि में आहुति रूप में निक्षिप्त होकर गर्भक्रम से पुरुष भाव को धारण कर लेता है (अ.भा. 3/118)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

कृष्ण
यद्यपि कृष्ण शब्द वासुदेव के अर्थ में सुप्रसिद्ध है, तथापि वल्लभ वेदांत में श्री कृष्ण साक्षात् ब्रह्म हैं। इसीलिए वल्लभ सम्प्रदायानुसार नित्य सत् एवं नित्य आनंद रूप पर ब्रह्म का बोधक है। कृष् धातु में 'ण' के योग से कृष्ण शब्द बना है। इसमें कृष् धातु सत्ता का वाचक है, तथा 'ण' निर्वृत्ति का (आनंद का) वाचक है एवं दोनों का ऐक्य रूप जो पर ब्रह्म है, वही कृष्ण है (त.दी.नि.पृ. 20)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

केशव
क + ईश + व के योग से केशव पद बनता है। क शब्द का अर्थ ब्रह्मा है, ईश का अर्थ शंकर है तथा व का अर्थ सुख है। पहले केश शब्द में द्वन्द्व समास होकर पुनः व शब्द के साथ अन्य पदार्थ प्रधान बहुव्रीहि समास से केशव शब्द बना है। इसके अनुसार ब्रह्मा और शंकर को भी जिससे सुख प्राप्त होता है, वह केशव है। अर्थात् अन्तर्यामी रूप में ब्रह्मा और शिव को भी सुख प्रदान करने वाले भगवान् श्री कृष्ण ही केशव हैं (भा.सु 11टी.पृ. 216)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

कैमुतिक न्याय
किमुत-सुष्ठु, तत्संबंधी न्याय कैमुतिक न्याय है। वेदांतों में उपास्य रूप में प्रतिपादित होने से आसन्य (आस्य में हुआ) प्राण भी ब्रह्मातिरिक्त नहीं है। इसीलिए सामगों ने उसे पापवेध से रहित कहा है। इस प्रकार प्राणादि रूप ब्रह्म की विभूति में जब निर्दोषत्व है, तब मूलभूत ब्रह्म की निर्दोषता को क्या कहना है? अर्थात् ब्रह्म की निर्दोषता तो सुष्ठु भांति अर्थात् अनायास सिद्ध है। यही कैमुतिक न्याय है (अ.भा.पृ. 1051)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

करणवैकल्य
करण (=इन्द्रियाँ) कभी-कभी अपने विषय के ग्रहण में या स्वव्यापार के निष्पादन में असमर्थ हो जाते हैं (यह असमर्थता 'अशक्ति' नाम से सांख्य में कही जाती है, द्र. सांख्यकारिका 46)। यह असामर्थ्य वैकल्य-हेतुक है - ऐसा पूर्वाचार्यों का कहना है - वैकल्पाद् असामर्थ्य 'अशक्ति': (युक्तिदीपिका 46)। सांख्यकारिका के व्याख्याकारों ने जैसी व्याख्या की है, उससे यह ज्ञात होता है कि यह विकलता इन्द्रियों के शरीरस्थ के अधिष्ठानों की है, इन्द्रियतत्त्व की नहीं। स्वरूपतः इन्द्रियाँ आभिमानिक (=अस्मिता से उद्भूत) हैं, भौतिक नहीं हैं; अतः उनमें विकलता संभव नहीं है। पर इन्द्रियों के शरीरस्थ अधिष्ठानों के विकल होने पर स्थूलविषय का ग्रहण या स्थूल विषय का व्यवहार अवरूद्ध हो जाता है, अतः गौणदृष्टि से यह शारीरिक असमर्थता इन्द्रिय की असमर्थता कही जाती है।
(सांख्य-योग दर्शन)

करुणा
चार परिकर्मों में करुणा द्वितीय है। करुणा = परदुःख को दूर करने की इच्छा। करुणा-वृत्ति का विषय वह प्राणी है जो दुःखी है। दुःखी प्राणियों पर करुणा-भावना करने से चित्त प्रसन्न होता है और वह क्रमशः 'स्थिति' को प्राप्त करता है। 'कोई भी दुःख मुझमें न हो' यह इच्छा सभी को रहती है। पर शत्रुओं के रहते ऐसा होना कभी भी संभव नहीं है। अतः शत्रुओं के प्रति अकरुणा की भावना या द्वेष की भावना होती है, जिससे चित्त अधिक विक्षिप्त होता रहता है। दुःखी शत्रु को भी दुःख न हो - इस प्रकार की करुणाभावना से चित्त अक्षुब्ध होकर एकाग्र हो जाता है।
(सांख्य-योग दर्शन)


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