शारीरिक शुक्र (वीर्य) की अधोगति जिस योगी में चिरकाल के लिए रूद्ध हो जाती है - कभी भी किसी भी प्रकार से जब शुक्र का स्खलन नहीं होता तब वह योगी ऊर्ध्वरेता कहलाता है। वीर्य या रेतस् ऊर्ध्वगामी होकर ओजस् रूप से परिणत हो जाता है - इस दृष्टि से 'ऊर्ध्व' शब्द का प्रयोग किया गया है। ऊर्ध्वरेता के लिए ऊर्ध्वस्रोता शब्द भी प्रयुक्त होता है। (कदाचित् 'आयमितरेता' शब्द भी प्रयुक्त होता है)। योगियों की तरह देवजाति-विशेष भी ऊर्ध्वरेता होती है, यह व्यासभाष्य (3/26) में कहा गया है। जिस प्रकार केवल ज्ञानयोग मार्ग का अवलम्ब करके कोई ध्यानबल से ही ऊर्ध्वरेता हो सकता है, उसी प्रकार हठयोगीय प्रक्रिया विशेष से भी ऊर्ध्वरेता हुआ जा सकता है। हठयोगीय प्रक्रिया का विशद ज्ञान परम्परागम्य है। ऊर्ध्वरेता के शरीर में सुगन्ध की उत्पत्ति होती है, इत्यादि बातें हठयोगीय ग्रन्थों में कही गई हैं।
(सांख्य-योग दर्शन)
ऊर्ध्वसर्ग
ऊर्ध्वसर्ग सत्त्व विशाल (= सत्त्वप्रचुर) है - यह सांख्य का मत है (सांख्यका. 54)। इसमें ऊर्ध्व स्वः, मह, जन, तपः और सत्य लोक आते हैं। किसी-किसी के अनुसार भुवः लोक भी ऊर्ध्व में आता है। इन लोकों में सत्त्वगुण का क्रमिक उत्कर्ष है और चित्तगत सत्त्वोत्कर्ष के अनुसार प्राणी इन लोकों में जा सकते हैं। ये सूक्ष्म लोक हैं अतः दैशिक परिमाण के अनुसार इन लोकों की दूरी है, ऐसा नहीं समझना चाहिए। ऊर्ध्वसर्ग देवसर्ग भी कहलाता है। देवयोनि के आठ अवान्तर भेद माने जाते हैं। आठों प्रकार के देवों का निवास-स्थान इन ऊर्ध्व लोकों में है।