भगवान् दश दिशात्मक, दश देवात्मक, दश इन्द्रियात्मक, दश लीलात्मक या दश अवतारात्मक हैं। इससे भगवान् की सर्वात्मकता विदित होती है (त.दी.नि.पृ. 130)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
देवमधु
आदित्य ही देवमधु है। वसु आदि देवों का मोदन (आनंद) करने के कारण तथा मधु के समान छत्राकार होने से आदित्य देवमधु है। (अ.भा.पृ. 1278)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
दग्धबीजवद्भाव
अस्मिता, रोग, द्वेष और अभिनिवेश नामक क्लेशों की चार प्रसिद्ध अवस्थाएँ हैं - प्रसुप्त, तनु, विच्छिन्न और उदार (योगसूत्र 2/4)। इन चारों के अतिरिक्त एक पाँचवी अवस्था भी है, जो प्रसुप्त अवस्था (क्लेशों का शक्ति रूप में रहना, जिससे उचित अवलम्बन मिलने पर वे सक्रिय होकर कर्म को प्रभावित करते हैं) से भी सूक्ष्म तथा उससे विलक्षण स्वभाव की है। यह पाँचवीं अवस्था दग्धबीजावस्था कहलाती है। इस अवस्था में आलम्बन के साथ संयोग होने पर भी क्लेश सर्वथा निष्क्रिय ही रहता है। दग्धबीज की उपमा से यह भी ध्वनित होता है कि जिस प्रकार जले बीज का बाह्य आकार मात्र रह जाता है, इसी प्रकार इस अवस्था में भी बाह्यदृष्टि से ऐसा प्रतीत होता है कि योगी का कर्म क्लेशपूर्वक हो रहा है - पर वस्तुतः ऐसा नहीं होता।
(सांख्य-योग दर्शन)
दिव्यश्रोत्र
योगसूत्र (3/41) में कहा गया है कि श्रोत्र (=कर्ण इन्द्रिय) और आकाश (=शब्दगुणक द्रव्य; पंचभूतों में से एक) में संयम (यह योगशास्त्रीय प्रक्रिया विशेष है) करने पर दिव्यश्रोत्र की अभिव्यक्ति होती है। यह श्रोत दिव्य शब्द श्रवण का द्वार है। दिव्य शब्द सत्त्वप्रधान (अत्यन्त सुखकर) है, जो साधारण इन्द्रिय द्वारा श्रोतव्य नहीं है। योगियों का कहना है कि दिव्य शब्द शब्दतन्मात्र नहीं है, क्योंकि शब्दतन्मात्र अविशेष है और सुखकर नहीं है (सुख-दुःख-मोहकर नहीं है)। दिव्यश्रोत्र देवजाति के प्राणी में स्वाभाविक रूप से होता है।
(सांख्य-योग दर्शन)
दुःख
दुःख वह है जिससे आक्रांत होकर प्राणी उसका प्रतिकार करने के लिए उद्यत हो जाते हैं (व्यासभाष्य 1.31)। सांख्ययोग में दुःख को तीन भागों में बाँटा गया है - आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक। आत्मा अर्थात् शरीर और मन के कारण उत्पन्न दुःख आध्यात्मिक है, जैसे व्याधि (शारीरिक दुःख) और क्रोधादि (मानसिक दुःख)। वृष्टि, भूकम्प आदि प्राकृतिक कारणों से जात दुःख आधिदैविक है (प्राकृतिक वस्तु अभिमानी देव के अधीन है; उनके कारण यह नाम पड़ा है) भूतों अर्थात् प्राणियों के द्वारा जो पीड़ा दी जाती है, वह आधिभौतिक है।
(सांख्य-योग दर्शन)
दृढ़भूमिक
यह शब्द अभ्यास की एक उन्नत अवस्था का वाचक है ['दृढ़भूमि' शब्द भी प्रयुक्त हो सकता है]। योगसूत्र (1/14) के अनुसार दीर्घकालपर्यन्त, निरन्तर, सत्कार (श्रद्धाबुद्धि) - पूर्वक अभ्यास (प्रयत्न विशेष) का अनुष्ठान किया जाए, तो वह दृढ़भूमि होता है। अभ्यास दृढ़भूमि होने पर व्युत्थानसंस्कार से सहसा अभिभूत नहीं होता है।
(सांख्य-योग दर्शन)
दृशि
योगसूत्र में द्रष्टा (पुरुषतत्व) के लक्षण में दृशिमात्र (दृशिः मात्रा - मानं यस्य) कहा गया है (2/20)। दृशि = दर्शन, उपलब्धि। दृशिमात्र कहने का अभिप्राय यह है कि पुरुष रूप 'दर्शन' किसी भी विशेषण से विशेषित नहीं हो सकता - वह निर्धर्मक है - गुण-गुणीभाव या धर्मधर्मीभाव उसमें नहीं है। 'दृशि' रूप जो उपलब्धि, दर्शन या ज्ञान है, वह चित्तवृत्तिरूप ज्ञान नहीं है। जिस ज्ञान का कोई विषय होता है, जिस ज्ञान का कोई पृथक् ज्ञाता होता है - वह ज्ञान दृशिरूप ज्ञान नहीं है। इसको 'स्वप्रकाश' रूप ज्ञान जानना चाहिए (स्वप्रकाश का कोई शुद्ध उदाहरण त्रैगुणिक जगत् में नहीं है)। दृशि अपरिणामी ज्ञाता या द्रष्टा है। दृशि समानार्थक दृक् शब्द भी योगग्रन्थों में प्रयुक्त हुआ है।
(सांख्य-योग दर्शन)
दृश्य
योगसूत्र (2/17; 2/18) के अनुसार दृश्य त्रिगुण की व्यक्तावस्था है। चूंकि द्रष्टा से संयुक्त होने पर अव्यक्त त्रिगुण व्यक्त होता है, अतः दृश्य (अर्थात् द्रष्टा का जो दृश्य होगा, वह) व्यक्त त्रिगुण होगा। अतः दृश्य का अर्थ 'महत्तत्त्व से शुरु कर भूतपर्यन्त सभी पदार्थ' है। अव्यक्त प्रकृति के लिए यदि 'दृश्य' का प्रयोग हो तो वहाँ दृश्य का अर्थ 'द्रष्टा के द्वारा प्रकाशित होने योग्य' होगा।
(सांख्य-योग दर्शन)
दृष्ट उपाय
त्रिविध दुःख के नाशक उपाय दो प्रकार के हैं - दृष्ट एवं आनुश्रविक। दृष्ट वह उपाय है जो लौकिक (=लोकविदित) है। शास्त्रकारों का कहना है कि ऐसा उपाय कभी भी दुःखों का न एकान्त (अनिवार्यतः) नाश कर सकता है और न अत्यन्त नाश (=पुनः उत्पत्तिहीन नाश)। उदाहरणार्थ, आयुर्वेदशास्त्र के द्वारा शारीरिक रोगों का नाश होने पर भी मानस रोगों का नाश नहीं होता; दुःखों का नाश होने पर भी पुनः उनकी उत्पत्ति होती है। इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि दृष्ट उपाय दुःखों का अंशतः नाशक है तथा यह नाश भी चिरस्थायी नहीं है।
(सांख्य-योग दर्शन)
दृष्टजन्मवेदनीय
जिस कर्माशय का विपाक (फल) दृष्ट जन्म (वर्तमान जीवन) में ही पूर्णतः होता है, वह दृष्टजन्मवेदनीय कहलाता है (योगसूत्र 2/12)। जो कर्म तीव्र क्लेश या संवेग से किए जाते हैं, जो कर्म देवता आदि की उपासना, सेवा आदि पहले करके किए जाते हैं, और जो तपस्वी आदि का अपकार या हिंसा आदि करके किए जाते हैं, उनका फल इस जीवन में ही मिलता है। उपर्युक्त कर्मों से जो कर्माशय बनता है, वह 'दृष्ट-जन्म-वेदनीय' है। जीवविशेष में (जैसे नरकस्थ जीवों में) दृष्टजन्मवेदनीय कर्माशय नहीं होता - ऐसा योगियों की मान्यता है। नारक शरीर में पुरुषकार रूप कर्म करना संभव नहीं है, अतः इस शरीर को भोगशरीर कहा जाता है। देवजाति के प्राणियों में कुछ ऐसे हैं, जो पुरुषकार कर सकते हैं, अतः उनमें दृष्टजन्मवेदनीय कर्माशय है - यह स्वीकार्य होता है। कर्माशय का विपाक त्रिविध है, जाति, आयु और सुखदुःखभोग।