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Definitional Dictionary of Indian Philosophy Vol.-II

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उत्क्रमण
मृत्यु के उपरांत इस लोक का परित्याग कर जीव का अपने कर्म के अनुसार चन्द्रलोक, सूर्यलोक या ब्रह्मलोक आदि में जाना श्रुतियों में उत्क्रमण शब्द से कहा गया हैं। उत्क्रांति भी यही है। उत्क्रमण करता हुआ जीव पूर्व से प्राप्त प्राण इन्द्रिय आदि के साथ ही उत्क्रमण करता है। इसमें श्रुति प्रमाण है (अ.भा.पृ. 471)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

उद्गाता
गान द्वारा वागिन्द्रिय निमित्तक भोग (सुख विशेष) को देवों तक प्राप्त कराने वाला तथा शास्त्रानुसारी कल्याण को गान द्वारा अपने में प्राप्त कराने वाला उद्गाता कहा जाता है एवं गान द्वारा देवों को सुख तथा अपने को कल्याण प्राप्त कराना उद्गान है (अ.भा.पृ. 680)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

उद्वाप-आवाप
उद्वाप और आवाप एक प्रकार का पदसंबंधी विधान है। उद्वाप वह विधि है जिसमें प्रकरणगत अर्थ में प्रतीयमान पद को उससे भिन्न अन्यार्थपरक रूप में आपादित किया जाए तथा आवाप वह विधि है जिसमें अन्य अर्थ में प्रतीत हो रहे पद को प्रकृत अर्थ परक रूप में आपादित किया जाए। अर्थात् प्रकृत अर्थ का परित्याग कर देना उद्वाप है और अप्रकृत अर्थ का समावेश कर लेना आवाप है। सामान्यतः किसी समूह, किसी अंश को निकाल देना उद्वाप क्रिया है और उस समूह में किसी अन्य का प्रक्षेप कर देना आवाप है (अ.भा.पृ. 274)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

उन्मानव्यपदेश
परिमाणमूलक साम्य का प्रतिपादन उन्मानव्यपदेश है। `यावान् वा अयमाकाशस्तावनिष अन्तर्हृदय आकाशः`। इस श्रुति में बाह्य आकाश के समान ही हृदयवर्ती दहराकाश को परिच्छिन्न (सीमित) बताते हुए दोनों की समता बतायी गयी है।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

उपगमन
ज्ञानमार्ग के अनुसार ब्रह्म के समीप गमन या अक्षरात्मक ब्रह्म में प्रवेश करना उपगमन है तथा भक्तिमार्ग के अनुसार भजन के निमित्त साक्षात् प्रकट हुए पुरुषोत्तम के समीप जाना उपगमन है (अ.भा.पृ. 1266)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

उपचरितार्थत्व
किसी पद की लाक्षणिकता, अर्थात् अभिधायक न होकर उसका लाक्षणिक होना उपचरितार्थत्व है। अर्थात् जब कोई पद अपने अभिधेयार्थ (वाच्यार्थ) के बाधित होने के कारण वाच्यार्थ का बोध न कराकर लक्ष्यार्थ का बोध कराने लगता है, तब वह पद अभिधायक (वाचक) न होकर उपचरितार्थक या लाक्षणिक हो जाता है। जैसे, 'गंगायाँ घोषः' यहाँ पर गंगापद प्रवाह रूप अपने अभिधेयार्थ को इसलिए नहीं बोधित कराता है कि प्रवाह में घोष बाधित है। अतः यहाँ गंगापद तीररूप लक्ष्यार्थ का बोध कराने के कारण लाक्षणिक या उपचरितार्थक कहा जाता है। अभिधावृति से बोध कराने के कारण पद अभिधायक होता है और लक्षणावृत्ति से बोध कराने की स्थिति में वही पद लाक्षणिक या उपचरितार्थक कहा जाता है। जहाँ पद लाक्षणिक या उपचरितार्थक कहा जाता है, वहाँ अर्थ लक्ष्यार्थ, लक्षितार्थ या उपचरितार्थ कहा जाता है। इस प्रकार पद उपचरितार्थक (उपचरित अर्थ वाला) कहा जाता है और अर्थ उपचरितार्थ (उपचरि अर्थ) होता है।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

उपजीव्य
किसी वस्तु की उपपत्ति के लिए जो अपेक्षणीय है, वह उपजीव्य है तथा जो अपेक्षा करे वह उपजीवक है। अर्थात् जिस पर निर्भर रहा जाए वह उपजीव्य है और जो निर्भर रहे वह उपजीवक है। जैसे, प्रत्यक्ष के बिना अनुमान नहीं हो सकता, इसलिए प्रत्यक्ष प्रमाण अनुमान प्रमाण का उपजीव्य है और अनुमान प्रमाण प्रत्यक्ष प्रमाण का उपजीवक है (अ. भा.पृ. 691)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

उपपतन
भक्त विशेष की दृष्टि से आधिकारिक फल भी हेय है और उसमें हेयत्व का प्रयोजक उपपतन है। अर्थात् भक्ति भाव से च्युति का कारण होने से आधिकारिक फल उपपतन है, इसीलिए वह हेय है। (द्रष्टव्य - आधिकारिक फल शब्द की परिभाषा) (अ.भा.पृ. 1234)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

उत्क्रांति
मरणकाल में अर्चिरादिमार्ग से गमन उत्क्रान्ति कहलाता है (उद् = ऊर्ध्व; क्रान्ति = गमन)। उदान नामक प्राण को वश में करने वाले योगी की ही ऐसी उत्क्रान्ति होती है (द्र. 3/39 योगसूत्रभाष्य)।
(सांख्य-योग दर्शन)

उदान
उदान वायु के पाँच प्रकारों में से एक है (योगसू. भाष्य 3.39)। उन्नयन करने के कारण यह उदान कहलाता है। उन्नयन का सरल अर्थ है - रस आदि पदार्थों को ऊर्ध्वगामी करना, पर यह अस्पष्ट कथन है। योगग्रन्थों में उदानसंबंधी वचनों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि (1) उदान मेरुदण्ड के अभ्यन्तरस्थ बोधवाही स्रोतों में प्रधानतः स्थित है, (2) उदान तेज अर्थात् शरीर ऊष्मा का नियन्त्रक है, (3) उदान मरणव्यापार का साधक है, (4) स्वस्थता बोध और पीड़ा बोध उदान पर आश्रित है। शरीरधातुगत सभी नाड़ियाँ उदान के स्थान हैं, यद्यपि हृदय, कण्ठ, तालु और भ्रूमध्य में इसका व्यापार विशेष रूप से लक्षित होता है।
(सांख्य-योग दर्शन)


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