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Definitional Dictionary of Indian Philosophy Vol.-II

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षट्कोश
माता-पिता से उत्पन्न शरीर को 'षाट्कौशिक' (छह कोशों से अन्वित) कहा जाता है। व्याख्याकारों के अनुसार स्त्रीबीज से प्राप्त लोम, लोहित (= रोहित = रक्त) और मांस तथा पुंबीज से प्राप्त स्नायु, अस्थि और मज्जा - ये छः कोश हैं (द्र. सां. का. 39, तत्वकौमुदी)। लोम का तात्पर्य त्वक् से है। 'षाट्कौशिक शरीर' का उल्लेख गर्भोपनिषद् में भी है।
(सांख्य-योग दर्शन)

षडंग योग
अष्टांग योग की तरह षडंग योग की भी एक परम्परा है, जो पर्याप्त प्राचीन है, क्योंकि मैत्रायणी आरण्यक (6/18) में इसका उल्लेख मिलता है। इसके छः अंगों की गणना में भिन्नता पाई जाती है जैसा कि निम्नोक्त उदारहणों से प्रकट है - (1) प्रत्याहार, ध्यान, प्राणायाम, धारणा, तर्क एवं समाधि (अमृतनाद उप., दक्षस्मृति आदि द्र.)। (2) आसन, प्राणसंरोध (= प्राणायाम), प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि (ध्यान-बिन्दु उप.; योगचूडामणि उप. आदि द्र.)। (3) प्राणायाम, जप, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि (गुरुडपु. आदि) इनमें द्वितीय प्रकार का षडंगयोग बहुत प्रसिद्ध है और शैवशास्त्र में प्रायः स्वीकृत हुआ है।
(सांख्य-योग दर्शन)

षष्टि पदार्थ
सांख्यशास्त्र को लक्ष्य कर 'षष्टितन्त्र' शब्द पूर्वाचार्यों द्वारा प्रयुक्त हुआ है, जिससे अनुमित होता है कि कभी सांख्याचार्यों ने साठ भागों में विभक्त कर प्रमेय पदार्थों पर विचार किया था। राजवार्त्तिक में इस विभाग का विवरण मिलता है। इस विवरण के अनुसार 60 विचार्य पदार्थ हैं (वाचस्पतिकृत तत्त्वकौमुदीटीका में राजवार्त्तिक के वचन उद्धृत हुए हैं) - (1) प्रधान और पुरुष का अस्तित्व, (2) प्रधान का एकत्व, (3) भोग-अपवर्ग रूप अर्थ, (4) प्रधान से पुरुष की भिन्नता, (5) प्रधान की परार्थता (पुरुष-प्रयोजन की सिद्धि करना), (6) पुरुष की असंख्यता, (7) प्रकृति-पुरुष का वियोग, (8) इन दोनों का संयोग, (9) शेषवृत्ति अर्थात् प्रधान का स्थूलसूक्ष्मरूपेण विद्यमान रहना, (10) पुरुष का अकर्तृत्व (11 -15) पाँच प्रकार का विपर्यय अर्थात् अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश, (16 -25) नौ तुष्टियाँ (द्र. तुष्टिशब्द), (25 -52) अट्ठाईस अशक्तियाँ (द्र. अशक्ति शब्द) और (53 -60) आठ सिद्धियाँ (अह आदि; द्र. सिद्धि शब्द) (विपर्यय-तुष्टि-अशक्ति-सिद्धि के लिए द्र. सांख्यकारिका 46 -51)। इन साठों में प्रथम दस 'मूलिकार्थ' कहलाते हैं।
षष्टि पदार्थों की अन्यविध गणना अहिर्बुध्न्यसंहिता (12/19-30) में मिलती है। इसमें ये 60 पदार्थ इस प्रकार गणित हुए हैं - षष्टितन्त्र में दो मंडल हैं, प्राकृतमण्डल, जिसमें 32 तन्त्र (खण्ड) है तथा वैकृत मण्डल, जिसमें 28 तन्त्र (खण्ड) हैं। 60 तन्त्रों के विषय ये हैं ' ब्रह्म, पुरुष, शक्ति, नियति, काल, सत्त्वगुण, रजोगुण, तमोगुण, अक्षर, प्राण, कर्ता, सामि ('स्वामी' होना चाहिए), पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच तन्मात्र, पाँच भूत (32 विषय); पाँच कृत्य, भोग, वृत्ति, पाँच क्लेश, तीन प्रमाण, ख्याति, धर्म, वैराग्य, ऐश्वर्य, गुण, लिंग, दुःख, सिद्धि, काषाय, समय, मोक्ष (28 विषय; गिनती के अनुसार 26 होते हैं, संभवतः गुण का अर्थ तीन गुण है, इस प्रकार 28 संख्या की पूर्ति हो जाती है)। ऐसा प्रतीत होता है कि मूल षष्टितन्त्र शास्त्र का जो वैष्णवसंप्रदायीय-रूप परवर्तीकाल में हुआ था, उसमें ये विषय थे।
(सांख्य-योग दर्शन)


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