लय का एकमात्र आधार ब्रह्म एकायन है। जैसे, जलादि रूप अंशों का एकायन जलाशय समुद्रादि होता है, वैसे ही सदात्मक समस्त कार्यों का लयाधार सदात्मक ब्रह्म है। इससे सब पदार्थ शुद्ध ब्रह्म रूप सिद्ध होता है अथवा जिसका एकमात्र प्रकृति या अक्षर आश्रय है, ऐसा संसार वृक्ष भी एकायन है।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
एकतत्त्वाभ्यास
यह एक अभ्यास-विशेष है। योगसूत्र (1/32) का कहना है कि विक्षेपों के प्रतिषेध के लिए एकतत्त्व का अभ्यास करना चाहिए। यह 'एकतत्त्व' क्या है - यह अस्पष्ट है। भाष्यकार ने `एकतत्त्वावलम्बन चित्त का अभ्यास करना चाहिए`, इतना ही कहा है। वाचस्पति और रामानन्द यति कहते हैं कि एकतत्त्व का अर्थ ईश्वर है। यह अर्थ सांशयिक है, क्योंकि ईश्वराभ्यास `ईश्वरप्रणिधान` से पृथक् कुछ नहीं हो सकता। चूंकि ईश्वरप्रणिधान को पहले ही एक उपाय कहा जा चुका है (1/23 सूत्र में), अतः एकतत्त्वाभ्यास को पृथक् रूप से कहने की आवश्यकता नहीं रह जाती। अन्य टीकाकारों ने एकतत्त्व का अर्थ `कोई भी एक अर्थ` ऐसा किया है, जो सर्वथा अस्पष्ट है। अवश्य ही इस अभ्यास का स्वरूप संप्रदाय में विज्ञात रहा होगा। स्वामी हरिहरानन्द आरण्य ने योगसूत्र की हिन्दी टीका में तथा संस्कृत टीका 'भास्वती' में इस अभ्यास के स्वरूप को स्पष्ट किया है : जिस आलम्बन की भावना की जाए (ध्येय के रूप में) उसके किसी एक गुण या अंश पर ही चित्त को स्थिर रखने का अभ्यास 'एकतत्त्वाभ्यास' है। दूसरे शब्दों में एक विषय के अन्तर्गत अवान्तर विषयों से चित्त को हटाकर एक ही तत्त्व के रूप में आलम्बन को देखने का अभ्यास एकतत्त्वाभ्यास है।
(सांख्य-योग दर्शन)
एकाग्रता
एकाग्र का अर्थ है - एक ही अग्र (= अवलम्बन) है जिसका। चित्त जब एक ही आलम्बन को जानता रहता है तब उस चित्त को एकाग्र कहा जाता है। यह प्रयत्नपूर्वक साध्य है, क्योंकि स्वभावतः प्राणी का चित्त प्रतिक्षण नाना आलम्बनों में विचरण करता रहता है। पिछले क्षण में जो प्रत्यय (= आलम्बन प्रतिष्ठ वृत्ति) होता है, यदि उसके सदृश प्रत्यय अगले क्षण में भी हो, तो वह एकाग्रता का उदाहरण है।
(सांख्य-योग दर्शन)
एकाग्रभूमि
जिस चित्त की भूमि एकाग्र है, वह एकाग्रभूमि है। चित्त सहज रूप से जिस अवस्था में रह सकता है, वह भूमि कहलाती है। जब चित्त अनायास से सदैव एकाग्र रह सकता है तब वह चित्त एकाग्रभूमि कहलाता है। एकाग्रभूमि चित्त में यदि समाधि होती है तो उसे संप्रज्ञात समाधि कहा जाता है। क्षिप्त, मूढ एवं विक्षिप्त भूमि में भी कदाचित् समाधि हो सकती है, पर उसमें योग (अर्थात् संप्रज्ञात या असंप्रज्ञात नामक योग) का सम्बन्ध नहीं है, क्योंकि इस प्रकार की समाधि विक्षेप के द्वारा आसानी से नष्ट हो जाती है। क्षिप्त आदि भूमियों में उत्पन्न समाधि से विभूति उत्पन्न नहीं होती। एकाग्रभूमि में आलम्बन (=अग्र) रहता है, अतः एकाग्रभूमि में उत्पन्न समाधि चाहे कितनी ही उत्कृष्ठ क्यों न हो, वह सबीज ही होती है। यह बात ध्यान में रखने योग्य है कि एकाग्रभूमि में चित्त प्रतिष्ठित होने पर कभी-कभी विक्षेप (आत्मज्ञान का अभिभवकारी) उत्पन्न नहीं होता। निद्रा आदि अवस्थाओं में भी ऐसे चित्त में आत्मज्ञान अविलुप्त ही रहता है।