logo
भारतवाणी
bharatavani  
logo
Knowledge through Indian Languages
Bharatavani

Definitional Dictionary of Indian Philosophy Vol.-II

Please click here to read PDF file Definitional Dictionary of Indian Philosophy Vol.-II

गुणकर्तृत्व
सत्य, शौच, दया और क्षान्ति (क्षमा) ये गुण सृष्टि के हेतु हैं और इन गुणों के अधिष्ठाता ब्रह्मा आदि देव सगुण होकर सृष्टिकर्त्ता कहे जाते हैं। किन्तु ब्रह्म तो शुद्ध ही रूप में जगत् का कर्त्ता है। इस प्रकार ब्रह्मादि का कर्तृव्त गुणकर्तृत्व है।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

गुणातीत प्रपंच
दृश्यमान प्रपंच से भिन्न अलौकिक प्रपंच गुणातीत प्रपंच है। दृश्यमान प्रपंच प्राकृत गुणमय है और गुणातीत प्रपंच उससे भिन्न है तथा साक्षात् भगवत् लीला में उपयोगी होने से अलौकिक प्रपंच रूप है (अ.भा.पृ. 189)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

गुणोपसंहार
सामान्यतः प्राप्त का विशेष अर्थ में संकोचन रूप व्यापार विशेष उपसंहार है। यह व्यापार विशेष कहीं कथन रूप, कहीं अनुसंधान रूप और कहीं भावना रूप में होता है। उक्त प्रकार से गुणों का अनुसंधान करना या भावना करना गुणोपसंहार है। वेदांत के प्रसंग में अन्य देवता की उपासना में अन्य देवों के गुणों का अनुसंधान करना और उसी रूप में उपासना करना गुणोपसंहार शब्द से विवक्षित है (अ.भा.पृ. 991)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

गृहिणोपसंहार
गृहस्थ भी क्रमशः ब्रह्मलोक की प्राप्ति कर सकता है, इस बात का निष्कर्ष के रूप में प्रतिपादन करना गृहिणोपसंहार है। जैसे, `आचार्यकुलाद् वेदमधीत्य यथाविधानं गुरोः कर्मातिशेषेणाभिसमावृत्य कुटुम्बे शुचौ देशे स्वाध्यायमधीयानो धार्मिकान् विदधत् आत्मनि सर्वेन्द्रियाणि सम्प्रतिष्ठाप्याहिंसन् सर्वभूतान्यन्यत्र तीर्थेभ्यः स खल्वेवं वर्तयन् यावदायुषं ब्रह्म लोकम मिनिष्पद्यते न च पुनरावर्तते` (छा.उ.) इस मंत्र द्वारा कहा गया है। इस मंत्र में गृहस्थ के लिए ब्रह्मलोक प्राप्ति का मार्ग बताया गया है (अ.भा.पृ. 1243)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

गोकुलपरत्व
पुष्टिमार्ग में बैकुंठ से भी गोकुल का श्रेष्ठत्व अभिप्रेत है। `ता वां वास्तून्युष्मसि गमध्यै यम गावो भूरिश्रृंगा अयासः तदुरुगायस्य वृष्णः परमं पदमवभाति भूरि`। यह श्रुति गोकुल को परम पद प्रतिपादित करती है क्योंकि गोकुल में ही हृदय और बाहर उभयत्र लीलारसात्मक भगवान् का प्राकट्य होता है। यद्यपि बैकुंठ प्रकृति-काल आदि से अतीत है, तथापि उसमें भगवान की लीलायें नहीं हैं। अतः बैकुंठ से भी गोकुल का उत्कृष्टत्व है (अ.भा.पृ. 1323)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

गरिमा
योगसिद्धियों में से एक। इससे योगी अपने शरीर को महाभारवान् बना सकता है। शरीर बाह्य किसी पदार्थ को अत्यन्त भारवान् बनाना भी गरिमा-सिद्धि में आता है। पूर्वाचार्यों ने 'मेरुवद् गुरुत्वं गरिमा', 'गरिमा गुरुत्व प्राप्तिः' कहकर इस सिद्धि के स्वरूप को स्पष्ट किया है।
योगसूत्र की संप्रदायशुद्ध परंपरा में गरिमा को अष्टसिद्धियों (द्र. योग -सू. 3/45) में गिना नही जाता, जैसा कि व्यासभाष्य, तत्ववैशारदी तथा अन्यान्य व्याख्याग्रन्थों को देखने से ज्ञात होता है। तन्त्र एवं कुछ अ-पातंजलीय ग्रन्थों में गरिमा को अष्टसिद्धियों में गिना गया है। इस गणना में यत्रकामावसायित्व नहीं आता।
(सांख्य-योग दर्शन)

गुण
सत्त्व, रजस् और तमस् को गुण कहते हैं। यह 'गुण' शब्द वैशेषिकशास्त्रोक्त गुण से सर्वथा भिन्न है। चूंकि त्रिगुण पदार्थ हैं अर्थात् दूसरे यानी पुरुष के प्रयोजन (भोग और मोक्ष) के साधन हैं अतः स्वयं अप्रधान हैं। गुण = रज्जु; गुण पुरुष को संसार से बाँधने वाली रस्सी है; इस दृष्टि से सत्त्व आदि को गुण कहा गया है - यह एक और मत है जो अधिक संगत है।
सांख्ययोगशास्त्र में त्रिगुण सर्वाधिक महत्वपूर्ण पदार्थ हैं। योगसूत्र 2/18 -19 (भाष्य-टीकादिसहित), सांख्यसूत्र (1/126 -128) एवं सांख्यकारिका (12 -13) में त्रिगुण के स्वरूप की सूक्ष्म चर्चा की गई है। शान्तिपर्व के कई अध्यायों में, अश्वमेघपर्वान्तर्गत अनुगीता में, भगवत्गीता में त्रिगुण के स्वभावादि का विशद विवरण मिलता है। ये तीन गुण सभी अनात्म वस्तुओं (भूत, तन्मात्र, इन्द्रिय, मन, अहंकार तथा बुद्धि रूप तत्त्वों) के अंतिम उपादान हैं।
सांख्यकारिका (12 -13) में तीन गुणों का विवरण दिया गया है। वाचस्पति आदि के अनुसार कारिका का तात्पर्य यह है - सत्त्व, रजस् और तमस् क्रमशः सुख-दुःख और मोह-स्वरूप हैं। प्रकाश करना, सत्त्व का प्रवर्तन करना एवं रजस् का नियमन करना तमस् का प्रयोजन है। इनकी चार वृत्तियाँ (व्यापार) हैं - एक-दूसरे का अभिभव करना, एक-दूसरे का आश्रय करना, परस्पर मिलकर कार्य को उत्पन्न करना एवं परस्पर संयुक्त रहना। रजस् के द्वारा प्रवर्तित होकर तथा तमस् के द्वारा नियमित होकर सत्त्व ससीम प्रकाशनकर्म करता है।
सत्त्वगुण प्रकाशक होने के साथ-साथ लघु भी है; रजोगुण उपष्टम्भक (उद्घाटक, उत्तेजक) होने के साथ-साथ चल (चंचल) भी है; तमोगुण आवरक (आच्छादक) होने के साथ-साथ गुरु (जड़ता -युक्त) भी है। परस्पर विरुद्ध स्वभाव होने पर भी ये गुण पुरुष के हितार्थ एक-दूसरे का अनुवर्तन करके, एक-दूसरे को सहायता करते हुए कार्य उत्पन्न करते हैं।
सात्त्विक सुखादि के प्रादुर्भाव में धर्मापेक्ष सत्त्व हेतु होता है। इसी प्रकार राजस दुःखादि के एवं तामस मोहादि के प्रादुर्भाव में क्रमशः अधर्मापेक्ष रजः एवं अविद्यापेक्ष तमः हेतु होता है।
त्रिगुण की सुख-दुःख-मोहरूपता के विषय में व्याख्याकारों ने कुछ विशेष बातें कही हैं। उनका कहना है कि बाह्य विषय यदि सुखादिमय न होता तो उसके अनुभव में सुखादि न होता। इसलिए जिसके कारण सुखादि का बोध अन्तःकरण में होता है, वह स्वयं सुखादिमय है। इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि सभी वस्तुयें, सुख-दुःख-मोह द्वारा निर्मित हैं। प्रकाश, लाघव और प्रसाद भी सत्त्वगुण स्वभाव का है। इसी प्रकार प्रवर्तना, चांचल्य आदि भी रजेन्द्रिय स्वभाव है और जाड्य, आवरण आदि भी तमोगुण का स्वभाव है।
गुणों की दो स्थितियाँ - साम्यावस्था तथा वैषम्यावस्था होती हैं। जब सभी गुण समान बलशाली होते हैं तब साम्यावस्था होती हैं। इस अवस्था में भी गुणों का परिणाम होता है, जो सदृश्यपरिणाम कहलाता है। विषम -अवस्था में त्रिगुण का परिणाम विसदृष -परिणाम कहलाता है, क्योंकि इसमें किसी एक गुण का आधिक्य (अन्य दो की अपेक्षा) होता है। इस विसदृश -परिणाम का ही फल महदादि तत्त्वों का उदय है।
प्रस्तुत टिप्पणीकार का परम्परागत मत उपर्युक्त प्रचलित मत से अंशतः भिन्न है। हमारे मत में सुख-दुःख -मोह गुणों का स्वरूप नहीं है - ये गुणविकार हैं - वस्तुतः ये गुणवृत्तियाँ हैं।
त्रिगुण का निर्धारण जिस प्रकार से किया गया है, वह यह है - त्रिगुण अनात्मवस्तु का उपादान है। अनात्मवस्तु त्रिविध है - ग्राहय्, ग्रहण एवं ग्रहीता। ग्राह्य त्रिविध है - भौतिक, भूत एवं तन्मात्र। ग्रहण त्रिविध है - ज्ञानेन्द्रिय, कर्मेन्द्रिय एवं प्राण। ग्रहीता त्रिविध है - मन, अहंकार एवं बुद्धि। ग्राह्य में तीन धर्म हैं - प्रकाश्य, कार्य (= आहार्य) तथा धार्य; ग्रहण में भी त्रिविध धर्म हैं - प्रकाशन, करण (या आहरण) एवं विधारण। ग्रहीता में भी त्रिविध धर्म है - प्रकाशकत्व, कारकत्व या आहरकत्व एवं विधारकत्व। प्रकाश्य -प्रकाशन -प्रकाशकत्व का सामान्य धर्म है प्रकाश जो सत्त्वगुण का शील है। इसी प्रकार कार्य-करण-कारकत्व का सामान्य धर्म है क्रिया जो रजोगुण का शील है। इसी प्रकार धार्य-धारण-धारकत्व का सामान्य धर्म है धृति या स्थिति, जो तमोगुण का शील है।
गुण की विषम -अवस्था में प्रकाश-क्रिया-स्थिति सत्त्व आदि के धर्म हैं - ऐसा कहा जाता है; पर साम्यावस्था में धर्म-धर्मी-भेद (गुण-गुणी-भेद) नहीं रहता; उस अवस्था में प्रकाश-क्रिया-स्थिति ही चरम वस्तु हैं - ऐसा कहना पड़ता है।
(सांख्य-योग दर्शन)

गुणपर्व
सत्त्व आदि तीन गुणों की चार विशिष्ट अवस्थाएँ - विशेष, अविशेष, लिङ्गमात्र और अलिङ्ग (योगसूत्र 2.19)। यह विभाग उपादान दृष्टि से है अर्थात् विशेष का उपादान अविशेष है, अविशेष का लिङ्गमात्र और लिङ्गमात्र का अलिङ्ग। उपादानकारण चूंकि कार्य से सूक्ष्म एवं व्यापक होता है, अतः अविशेष विशेष से सूक्ष्म और व्यापक है। अन्यान्य पर्वों के विषय में भी यही ज्ञातव्य है। विशेष आदि सभी भेद अपनी विशिष्टता के कारण एक -दूसरे से भिन्न एवं स्फुट रूप से ज्ञात होते हैं - यह दिखाने के लिए 'पर्व' शब्द का प्रयोग किया गया है।
(सांख्य-योग दर्शन)

गुणवृत्ति
सत्त्व, रजस् और तमस् नामक तीन गुणों का व्यापार जो (सांख्यकारिका 12 के अनुसार) चार प्रकार का है - अन्योन्य-अभिभव, अन्योन्य-आश्रय, अन्योन्य-जनन और अन्योन्य मिथुन (द्र. अन्योन्याभिभव आदि शब्द)। यद्यपि तीन गुण परस्पर सर्वथा पृथक् हैं और कोई भी गुण किसी अन्य गुण का कारण या कार्य नहीं है, तथापि ये परस्पर के सहायक होकर ही कार्य को उत्पन्न करते हैं। गुणों की इस वृत्ति को समझाने के लिए 'प्रदीप' की उपमा पूर्वाचार्यों ने दी है - तेल, बत्ती और आग जिस प्रकार परस्पर भिन्न होकर भी रूप प्रकाशन का कार्य करते हैं, उसी प्रकार तीन गुण मिलकर परिणाम उत्पन्न करते हैं। एक अन्य दृष्टि से सुख, दुःख और मोह भी क्रमशः सत्व्, रजस् और तमस् की वृत्तियाँ माने जाते हैं।
(सांख्य-योग दर्शन)

गौण सिद्धि
सिद्धि का गौण-मुख्य रूप विभाग किसी प्राचीन ग्रन्थ में नहीं है। तत्त्वकौमुदी की टीका (51 का.) में वाचस्पति ने इस विभाग का उल्लेख किया है। यह 'सिद्धि' योगशास्त्रीय विभूति नहीं है; सांख्यशास्त्र में जो चतुर्विध प्रत्ययसर्ग उल्लिखित हुआ है (का. 46), सिद्धि उसमें एक है। ऊह आदि भेदों से यह सिद्धि आठ प्रकार की है (का. 51)। इन आठों में पाँच गौण सिद्धियाँ हैं, जिनके नाम है - ऊह, शब्द, अध्ययन, सुहृतप्राप्ति तथा दान। ये गौण सिद्धियाँ मुख्य तीन सिद्धियों (दुःखों का त्रिविध नाश) की हेतुरूपा हैं - यह भी वाचस्पति ने कहा है।
(सांख्य-योग दर्शन)


logo