logo
भारतवाणी
bharatavani  
logo
Knowledge through Indian Languages
Bharatavani

Definitional Dictionary of Indian Philosophy Vol.-II

Please click here to read PDF file Definitional Dictionary of Indian Philosophy Vol.-II

जीवघन
मुक्त जीवों के पिण्डी भाव का अर्थात् पिण्डी भूत मुक्त जीवों का आधारभूत ब्रह्मलोक ही जीवघन है (अ.भा.पृ. 390)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

जीवावस्थात्रय
शुद्धावस्था, संसारी अवस्था और मुक्तावस्था के भेद से जीव की तीन अवस्थायें हैं।
1. सच्चिदानंदात्मक अणु रूप शुद्धावस्था है।
2. पञ्चपर्वात्मक अविद्या से बद्ध और दुःखित अवस्था जीव की संसारी अवस्था है।
देहाध्यास, इन्द्रियाध्यास, प्राणाध्यास, अन्तःकरणाध्यास तथा स्वरूप विस्मृति ये ही अविद्या के पाँच पर्व हैं।
3. जन्म-मरण आदि संसारी धर्मों का अनुभव करता हुआ भी भगवत् कृपा से प्राप्त सत्संग द्वारा पंच पर्वात्मक विद्या पाकर परमानंद स्वरूप मुक्ति जीव की मुक्तावस्था है। वैराग्य, ज्ञान, योग, तप और केशव में भक्ति ये ही विद्या के पाँच पर्व हैं (प्र.र.पृ. 57)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

ज्ञानावेश
`मैं सर्वरूप हूँ` इस प्रकार का बोध प्रकट होना ज्ञानावेश है। उक्त ज्ञानावेश `अहंमनुरभवं सूर्यश्चाहम्` इत्यादि श्रुति वाक्यों में प्रतिपादित है (अ.भा.पृ. 262)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

ज्ञान्यक्षर विज्ञान
सच्चिदानंदत्व, देशकालापरिच्छिन्नत्व, स्वयंप्रकाशत्व, गुणातीतत्व आदि धर्मों से विशिष्ट भगवद् विषयक ज्ञान ज्ञानियों का अक्षर विज्ञान है तथा पुरुषोत्तम भगवान् के अधिष्ठान के रूप में भगवद्धाम विषयक ज्ञान भक्तों का अक्षर विज्ञान है (अ.भा. 3/3/55)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

जप
पवित्र मन्त्र (अक्षरमय या ध्वनिमय) का बार-बार उच्चारण करना जप-शब्द का अर्थ है। मन्त्रों में प्रणव (= ओंकार) मुख्य है। कठ आदि उपनिषदों में भी ओंकार-जप की श्रेष्ठता कही गई है। योगाङ्गभूत जप के लिए आवृत्ति अर्थात् बार-बार उच्चारण करना ही पर्याप्त नहीं है। मन्त्रार्थ (मन्त्रप्रतिपाद्य अर्थ) की भावना यदि न हो तो वह योगाङ्गभूत जप नहीं होगा। यह मन्त्रार्थ गुरुपरम्परा के माध्यम से ही विज्ञेय होता है। जपरूप स्वाध्याय के द्वारा इष्ट देवता के साथ सम्प्रयोग (अर्थात् देवता का साक्षात्कार तथा देवता से उपदेश की प्राप्ति) होता है (योगसू. 2/44)।
जप के तीन भेद कहे गए हैं - (1) वाचिक या वाचनिक, (2) उपांशु तथा (3) मानस। वाचिक जप वह है जिसमें वाक्यों का स्पष्ट उच्चारण होता है - यह परश्रवणयोग्य उच्चारण है; उपांशुजप वह है जिसमें ओष्ठ आदि का कम्पनमात्र होता है - उच्चारित ध्वनि अन्यों को सुनाई नहीं पड़ती; मानस जप मन में अर्थस्मरण रूप जप है। मानस जप की पराकाष्ठा मन्त्रचैतन्य में है; इस अवस्था में अर्थ स्मरण निरन्तर अनायास रूप से चलता रहता है। ये तीन प्रकार क्रमशः अधम, मध्यम और उत्तम है। जप्यमन्त्र के उच्चारण में नाना प्रकार का विभाग करके विभक्त अंशों के द्वारा अभीष्ट तत्त्व का स्मरण करके की नाना प्रकार की पद्धतियाँ विभिन्न योगग्रन्थों में मिलती हैं। जप-क्रिया से संबन्धित अनेक विषयों का विशद विवरण (जपमाला, जपसंख्या, जपकाल में वर्जनीय, जपकाल में विहित आसन आदि) तन्त्र ग्रन्थों में द्रष्टव्य है।
(सांख्य-योग दर्शन)

जातिविपाक
प्राणी का कर्माशय जब तक प्रबल क्लेशों के अधीन रहता है, तब तक उससे तीन प्रकार के फल उत्पन्न होते रहते हैं, जिनका नाम है, जाति, आयु और भोग। ये फल विपाक कहलाते हैं। जाति का अर्थ है जन्म; किसी जाति की देह का धारण करना ही जातिरूप विपाक है। सांख्यशास्त्र में प्राणी की जातियाँ मुख्यतः 14 मानी गई हैं - आठ प्रकार की देवयोनियाँ, पाँच प्रकार की तिर्यग्योनियाँ तथा एक प्रकार की मनुष्ययोनि। दृष्टजन्मवेदनीय कर्माशय का जाति रूप विपाक अवश्य होता है। किसी एक शरीर में जिस प्रकार का कर्म अधिक परिमाण में रुचि के साथ किया जायेगा, वह कर्म जिस जाति के शरीर के लिए सहज है, उस जाति में वह प्राणी (मृत्यु के बाद) जन्म ग्रहण करेगा।
(सांख्य-योग दर्शन)

जीवन्मुक्त
धर्ममेघसमाधि के द्वारा क्लेश और कर्मों की निवृत्ति होने पर ही कोई व्यक्ति जीवन्मुक्त होता है। इस अवस्था में क्लेश की स्थिति 'दग्धबीजवत्' हो जाती है, अर्थात् जीवन्मुक्त क्लेश के अधीन होकर कोई कर्म नहीं करते। नूतन विपाक को उत्पन्न करने में कर्माशय असमर्थ हो जाता है, केवल प्रारब्ध कर्म का भोग होता रहता है और योगी अनासक्त होकर इस भोग का अनुभव करते रहते हैं (द्र. योगसू. 4/30)। जीवन्मुक्त का स्वेच्छासाध्य मुख्य कर्म है - मोक्ष विद्या का उपदेश जिसको वे निर्माणचित्त का आश्रय करके करते हैं। किसी-किसी का मत है कि जीवन्मुक्त अवस्था में जाति-आयु-भोग रूप त्रिविध विपाकों में केवल आयुविपाक ही सक्रिय रहता है। जीवन्मुक्त अवस्था कैवल्यप्राप्ति की पूर्वावस्था है। जीवन्मुक्ति के बाद पुनः संसारबन्धन नहीं हो सकता। इस अवस्था के बाद विदेहमुक्ति (शरीरत्यागपूर्वक कैवल्यप्राप्ति) होने में कुछ काल लगता है जो अवश्यंभावी है। इस काल की उपमा कुम्भकार -चक्र का भ्रमण है। नूतन वेग-कारक क्रिया न करने पर भी प्राक्तन वेग के संस्कार से जिस प्रकार चक्र कुछ काल तक घूमता रहता है, उसी प्रकार देहधारण -संस्कार के कारण नूतन कर्म संकल्प से शून्य जीवन्मुक्त का शरीर कुछ काल के लिए जीवित रहता है।
(सांख्य-योग दर्शन)

ज्ञान
बुद्धितत्त्व के आठ रूपों में ज्ञान एक है (सांख्यका. 23)। यह बुद्धि का सात्त्विक रूप है। प्रमाण आदि ज्ञान इस ज्ञान के ही विभिन्न रूप हैं। टीकाकारों ने बुद्धि के इस सात्त्विक ज्ञान को तत्त्वज्ञान (25 तत्त्वों का ज्ञान) कहा है, जिसका सर्वोच्च रूप है - गुणपुरुषभेदज्ञानरूप विवेकज्ञान। कुछ व्याख्याकार कहते हैं कि यह ज्ञान दो प्रकार का है - बाह्य (वेदादिशास्त्रों का ज्ञान) तथा आन्तर (पूर्वोक्त तत्त्वज्ञान एवं विवेकज्ञान)। वस्तुतः शब्दादि -ज्ञान रूप भोग एवं गुणपुरुषभेदज्ञान रूप अपवर्ग - यह द्विविध ज्ञान ही उपयुक्त ज्ञान का स्वरूप है (युक्तिदीपिका) - यही मानना युक्तियुक्त है। द्र. प्रमाण, प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम शब्द।
(सांख्य-योग दर्शन)

ज्ञानेन्द्रिय
ज्ञानेन्द्रिय का तात्पर्य है वह इन्द्रिय जो ज्ञान का साधन हो। यहाँ ज्ञान का अर्थ बाह्य ज्ञान है। बाह्य ज्ञान पाँच प्रकार के हैं - शब्दज्ञान, स्पर्शज्ञान, रूपज्ञान, रसज्ञान तथा गन्धज्ञान। अतः ज्ञानेन्द्रियाँ भी पाँच हैं - शब्दग्राहक कर्ण (श्रोत्र), स्पर्शग्राहक त्वक् (स्पर्श का अभिप्राय शीत-ऊष्ण स्पर्श से है, कठिनस्पर्श, कोमलस्पर्श आदि नहीं - यह ज्ञातव्य है), रूपाग्राहक चक्षु, रसग्राहक जिह्वा तथा गन्धग्राहक नासा (नासिका)। सांख्यीय दृष्टि के अनुसार ज्ञानेन्द्रियाँ वस्तुतः अहंकार की विकारभूत (स्थूलरूप) हैं; संबद्ध शारीरिक अवयव प्रकृति इन्द्रियों के अघिष्ठान हैं। यही कारण है कि ज्ञानेन्द्रियाँ (तथा कर्मेन्द्रियाँ भी) आहंकारिक कहलाती हैं। शास्त्रीय दृष्टि में प्रत्येक प्रकार के जीव (प्राणी) में पाँच प्रकार की ज्ञानेन्द्रियाँ रहती हैं, यद्यपि उनकी विद्यमानता सर्वथा स्फुट रूप से ज्ञात नहीं होती। योगज प्रत्याहार के द्वारा इन ज्ञानेन्द्रियों को निरुद्ध किया जा सकता है।
(सांख्य-योग दर्शन)

ज्योतिष्मती प्रवृत्ति
जिन उपायों से मन स्थिति (= प्रशान्तवाहिता) को प्राप्त कर सकता है, उन उपायों का विवरण योगसूत्र 1/33 -39 में दिया गया है। ज्योतिष्मती प्रवृत्ति इनमें से एक है (द्र. 1/36)। इसका नामान्तर विशोका भी है। यह एक प्रकार का ह्लादयुक्त ज्ञान है जिसके उदय होने पर चित्त बाह्य विषयजनित विक्षेपों से चंचल नहीं होता और आत्मभाव के सूक्ष्मतम रूप में समाहित होने के लिए समर्थ हो जाता है। इस प्रवृत्ति के दो अंश हैं। प्रथम अंश का नाम विषयवती है, इसमें अस्मिता का ध्यान उसके वैकल्पिक रूप (सूर्य आदि की प्रभा) की सहायता से किया जाता है; द्वितीय अंश का नाम अस्मितामात्रा है; इसमें हृदय में अस्मिता का ध्यान किया जाता है।
(सांख्य-योग दर्शन)


logo