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Definitional Dictionary of Indian Philosophy Vol.-II

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हरित्रय
हरि के तीन रूप हैं - पूर्वमीमांसा में कहा गया यज्ञरूप, वेदान्त में कथित साकार ब्रह्म रूप तथा श्रीमद्धागवत में प्रतिपादित अवतारी श्री कृष्ण रूप (त.दी.नि.पृ. 38)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

हार्दानुगृहीत
हृदयाकाश में वर्तमान परमात्मा द्वारा अनुग्रह प्राप्त भक्त हार्दानुगृहीत पद से अभिहित है। `गुहां प्रविष्टौ परमे परार्धे`। इस श्रुति के अनुसार हृदयाकाशगत परमात्मा हार्द कहे जाते हैं (अ.भा.पृ. 1328)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

हिरण्मय पुरुष
सूर्य मंडलस्थ परमात्मा हिरण्मय पुरुष हैं। इसे `योSयमादित्ये ज्योतिषि हिरण्मयः पुरुषः` इत्यादि श्रुति द्वारा प्रतिपादित किया गया है। यह हिरण्मय पुरुष परमात्मा का प्रतीक रूप है (अ.भा.पृ. 221)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

हठयोग
हठयोग योगविद्या की एक विशिष्ट धारा का नाम है। यह विद्या बहुत ही प्राचीन है, पर इसके सभी उपलब्ध ग्रन्थ अप्राचीन हैं, यद्यपि इन ग्रन्थों में कुछ प्राचीन आचार्यों के वाक्य उद्धृत मिलते हैं। 'हठ' शब्द की प्रचलित व्याख्या हैः 'ह' (अर्थात् सूर्य) तथा 'ठ' (अर्थात् चन्द्र) का संयोग (सूर्य-चन्द्र के भी प्राण-अपान आदि कई तात्पर्य हैं)। यह व्याख्या काल्पनिक प्रतीत होती है, यद्यपि प्राण-अपान के एकीकरण का हठयोगाभ्यास में प्रमुख स्थान है। हम समझते हैं कि हठपूर्वक (= बलपूर्वक) अर्थात् प्रधानतः बाह्य उपाय-विशेष का प्रयोग करते हुए योग (=वृत्तिरोध) करना हठयोग है।
हठयोगी प्रायः योगांगों की गणना आसन से शुरू करते हैं। इससे यह न समझना चाहिए कि हठयोग में यम-नियम का अभ्यास वर्जित है। योगांग न होने पर भी हठयोगी इनका अभ्यास करते ही हैं, क्योंकि हठयोग में जिन भावना आदि का उपदेश दिया जाता है, वे यमनियम के बिना साध्य नहीं हैं। हठयोग के साधनों में प्राणायाम केन्द्रभूत है, यद्यपि प्रत्याहारादि का विधान भी इस शास्त्र में किया गया है। हठयोगीय प्रत्याहारादि तत्त्वतः योगसूत्रोक्त-प्रत्याहार से स्थूल हैं। हठयोग में विवेकाभ्यास प्रधान नहीं है, अतः अविद्या का अत्यन्त नाश हठयोगीय पद्धति द्वारा संभव नहीं। हठयोग से तपोजात सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं।
हठयोगीय प्रक्रिया के अनुशीलन से यह ज्ञात होता है कि मुद्रादि का अभ्यास सकोचन-प्रयत्न को बढ़ाता है, जिससे तंत्रिका-तंत्र निरोधाभिमुख होता है (कृत्रिम रूप से)। इससे रुद्धप्राण होकर रहना संभव होता है। इससे चित्तरोध यद्यपि नहीं होता, तथापि रोध में सहायता होती है। हठप्रक्रिया से शरीर को मृतवत् करने पर चिन्ता करने वाला मस्तिष्क रुद्ध हो जाता है, अतः एक प्रकार का दुःखनाश भी होता है। यह नाश दुःख का आत्यंतिक नाश नहीं है जो योगविद्या का अन्तिम लक्ष्य है।
हठप्रक्रिया का मुख्य फल नाडीशुद्धि, बिन्दुजय (ऊर्ध्वरेता होना), नादश्रवण, शरीररोधयोग्यता एवं अंशतः कृत्रिम वृत्तिरोध है। हठयोगीय प्रक्रिया की सहायता लेकर यदि कोई ज्ञानाभ्यास द्वारा संस्कारक्षय-पूर्वक चित्तरोध करने की चेष्टा करेगा तो वह प्रकृत कैवल्यमार्ग में जा सकेगा। केवल हठप्रक्रिया से संस्कारक्षय नहीं होता। उच्चकोटि का दार्शनिक ज्ञान हठयोगशास्त्र का विषय नहीं है। प्रसंगतः यह ज्ञातव्य है कि हठयोगीय इडादि नाडियाँ आयुर्वेदशास्त्र-सम्मत नहीं हैं।
हठयोग के ग्रन्थों में शिव को इस विद्या का मूल प्रवर्तक कहा गया है। मत्स्येन्द्र, गोरक्ष आदि इस योग के प्रधान आचार्यों में माने गए हैं। हठयोगसिद्धों के नामों की एक सूची हठयोगप्रदीपिका (1/5 -8) में मिलती है। घेरण्डसंहिता, हठयोगप्रदीपिका, योगचिन्तामणि आदि कई हठयोगीय ग्रन्थ इस समय सुप्रचलित हैं।
(सांख्य-योग दर्शन)

हान
व्यासभाष्य में योगशास्त्र को चिकित्साशास्त्र के समान 'चतुर्व्यूह' अर्थात् चार अंगों वाला शास्त्र कहा गया है (व्यासभाष्य 2/15), जिसमें हेय, हेयहेतु, हान एवं हानोपाय - ये चार विचार के विषय बताए गए हैं। हान का अर्थ है - त्याग। योगशास्त्र में हान का विशेष अर्थ है - बुद्धि और पुरुष के संयोग का अभाव। यह संयोगाभाव ही द्रष्टा का कैवल्य (= केवलीभाव) है, क्योंकि इस अवस्था में गुण के साथ द्रष्टा पुरुष का अमिश्रीभाव (= असंयोग) होता है और फलतः दुःख की आत्यंतिक निवृत्ति हो जाती है।
(सांख्य-योग दर्शन)

हानोपाय
अविद्यामूलक जो द्रष्टा-दृश्य संयोग है, उसका अभाव 'हान' कहलाता है। यह हान ही द्रष्टा का कैवल्य है - यह योगशास्त्रीय मान्यता है। अविप्लवा (= सर्वथा मिथ्याज्ञानहीन) विवेकख्याति ही इस हान का उपाय है (द्र. योगसू. 2/26)। इस विवेकख्याति के द्वारा सभी क्लेश सर्वथा नष्ट हो जाते हैं, अतः द्रष्टा का स्वरूप में अवस्थान होता है (यही कैवल्य है)।
(सांख्य-योग दर्शन)

हिंसा
अन्य को पीडित करना अथवा पीड़ा देने की इच्छा होना हिंसा है। हिंसा-कर्म की अपेक्षा हिंसा का मानस रूप (इच्छा-रूप) अधिक दूषित है (अध्यात्मशास्त्र की दृष्टि में)। केवल पीड़ा देना ही नहीं, अन्य को पीड़ित कर अपने को आनन्दित या सुखी करने का मनोभाव हिंसा के साथ युक्त रहता है। यह मनोभाव मूलतः द्वेषरूप क्लेश के कारण होता है। क्लेश चूकि अज्ञान है, इसलिए आत्मज्ञान के विकास के साथ-साथ हिंसावृत्ति क्रमशः नष्ट होती है। व्यवहारतः हिंसा लोभ, क्रोध और मोह पूर्वक होती है। यह हिंसा कृत होती है, कारित (दूसरों के द्वारा करवाई हुई) होती है तथा अनुमोदित (किसी के द्वारा प्रोत्साहित) भी होती है। संस्कारबल के अनुसार हिंसा मृदु, मध्य और तीव्र भी होती है। इस प्रकार हिंसा के 27 (= 3x3x3) भेद होते हैं। मृदु आदि के भी अवान्तर भेदों के अनुसार हिंसा के भेद बहुसंख्यक होते हैं - यह पूर्वाचार्यों ने दिखाया है। ऐसी मान्यता है कि हिंसाकारी व्यक्ति जीवित-अवस्था में नाना प्रकार के दुःख को भोगते रहते हैं।
(सांख्य-योग दर्शन)

हेतुवाद
योगसूत्र 2/15 के व्यासभाष्य में इस वाद की चर्चा है दुःखःहानकारी आत्मा (जो 'हाता' है) का स्वरूप हेय (= अपलाप करने योग्य) नहीं हो सकता और न उसका स्वरूप उपादेय (= उपादान के योग्य) ही होता है। उपादान अर्थात् कार्यकारणरूप में आने पर आत्मा में परिणाम स्वीकार करना होगा और इस प्रकार कभी भी परिणामहीन मोक्ष नहीं हो सकेगा, क्योंकि जो कार्य होता है, वह विनाशी होता है। यह दृष्टि ही हेतुवाद है।
(सांख्य-योग दर्शन)

हेय
हेय = त्याज्य। योगशास्त्र में अनागत दुःख ही 'हेय' शब्द से लक्षित होता है (योगसू. 2/16)। अतीत दुःख चूंकि उपभुक्त हो चुका है, अतः वह 'हेय' नहीं हो सकता; वर्तमान काल (जो वस्तुतः क्षणमात्र है) में जो दुःख अनुभूत हो रहा है, उसका परिहार अशक्य है; अतः अनागत दुःख ही ऐसा है जिसका परिहार किया जा सकता है। 'हेय' कहने का अभिप्राय यह है कि उसका परिहार सम्यक् दर्शन के द्वारा किया जा सकता है। दूरदर्शी योगी में अनागत दुःख भी क्लेशदायक के रूप में प्रतिभात होता है। चूंकि दुःख का जन्म के साथ अविनाभाव संबंध है, अतः योगी की दृष्टि में भविष्यत् जन्म ही हेय है, जिसके निरोध के लिए तत्त्वज्ञान का अभ्यास योगी करते हैं।
(सांख्य-योग दर्शन)

हेयहेतु
योगशास्त्र की दृष्टि में अनागत दुःख हेय है (योगसू. 2/16); अतः अनागत दुःख का जो हेतु है वह हेयहेतु है। द्रष्टा एवं दृश्य का जो संयोग है, वही अनागत दुःख रूप हेय का हेतु है - यह योगसूत्र 2/17 में कहा गया है।
(सांख्य-योग दर्शन)


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