नामरूपात्मक भगवान् की दो लीलाओं में एक लीला नामलीला है। इस नामलीला के अंतर्गत ही वेद सहित संपूर्ण शब्दात्मक लीलायें समाविष्ट हैं। रूपलीला के समान ही नामलीला भी प्रपञ्च के अंतर्गत ही है और भगवान् द्वारा की गयी है (अ.भा.पृ. 63)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
नारायण
नार अर्थात् जीव समूह को प्रेरित करने वाला या जीव समूह में प्रविष्ट हुआ परमात्मा नारायण है। अथवा सब कुछ जिसमें प्रविष्ट हो, ऐसा जो जगत का आधार है, वह नारायण है।
ब्रह्मवाद का ही एकवेशीवाद नियत धर्म जीववाद है। जैसे, भगवान् ने अपने भोग की निष्पत्ति के लिए अग्नि के विस्फुलिंग (चिंगारी) के समान अपने अंश के रूप में जीवों को बनाया - यह आश्मरथ्य का जीव संबंधी सिद्धान्त है। शरीरादि संघात में प्रविष्ट चैतन्यमात्र अनादिसिद्ध जीव है - यह औडुलोमी आचार्य का मत है। इनके अनुसार साक्षात् चैतन्य ही शरीरादि संघात में प्रविष्ट हुआ जीव है। भगवान् का ही विषय भोक्तृ स्वरूप जीव है - यह काशकत्स्न का जीववाद है। अर्थात् भगवान् ही विषय भोक्ता के रूप में जीव कहलाता है (अ.भा.पृ. 525)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
निरोधलीला
भक्तों को प्रपञ्च की स्फूर्ति से रहित बना देने वाली भगवान् की लीला निरोधलीला है। इस लीला में प्रविष्ट भक्त सारे प्रपञ्च को भूल जाता है और भगवान के लीलारस का साक्षात् अनुभव करता है। (दृष्टव्य त्रिविध निरोध शब्द की परिभाषा) (भा.सु.11टी. पृ. 285)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
निष्काम गति
ब्रह्मानुभूति के अभाव में होने वाली जीव की शुभ गति निष्काम गति है। इसके दो भेद हैं - यम गति और सोम गति। दम्भरहित होकर गृह्य सूत्रों में प्रतिपादित स्मार्तकर्मों के अनुष्ठान से प्राप्त होने वाली गति यम गति है तथा श्रौत कर्मों के अनुष्ठान से प्राप्त होने वाली गति सोम गति है। ये दोनों ही निष्काम गति हैं और शुभ हैं। ब्रह्मानुभूति से होने वाली गति इससे भी उत्कृष्ट है और वह मुक्ति रूप है (अ.भा.पृ. 852)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
नैष्कर्म्य
समस्त ऐहिक और आमुष्मिक उपाधियों से निरपेक्ष होकर भगवान् में ही अंतःकरण को लगा देना नैष्कर्म्य है। लौकिक फल की कामना आदि ऐहिक उपाधि है तथा स्वर्गादि की कामना आदि आमुष्मिक उपाधि है। इनसे रहित होकर भगवदनुरक्ति नैष्कर्म्य है (अ.भा.पृ. 1062, 1240)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
नाड़ीशुद्धि
प्राणायाम विशेष के अभ्यास से नाडियों में जो शुद्धि होती है, वह नाडीशुद्धि कहलाती है। मल के कारण शरीर योगाभ्यास के लिए समर्थ नहीं होता या अत्यल्प योगाभ्यास से ही कातर हो जाता है। शीत, ग्रीष्म, जल, हवा आदि से अत्यधिक पीड़ित होते रहना भी नाडीगत मल के कारण होता है। विभिन्न प्रकार के प्राणायामों द्वारा नाडीशुद्धि होने पर शरीर रोगहीन, उज्जवलकान्तिमय, लघुतायुक्त, सौम्यदर्शन होता है। नाडी शुद्धिकारक प्राणायामों का विशद विवरण हठयोग के ग्रन्थों में (हठयोगप्रदीपिका, घेरण्डसंहिता आदि में) मिलता है।
(सांख्य-योग दर्शन)
निद्रा
पाँच प्रकार की वृत्तियों में निद्रा एक है। वृत्ति चित्तसत्व का परिणाम है, अतः वृत्ति वस्तुतः एक प्रकार का ज्ञान है। योगसूत्रोक्त निद्रा सुषुप्ति-अवस्था नहीं है। इस अवस्था में जो ज्ञानवृत्ति रहती है, उसका नाम निद्रा है। जाग्रत् और स्वप्न रूप दो अवस्थाओं का अभाव होता है - तमोगुण के प्राबल्य के कारण। सुषुप्ति अवस्था आने से पूर्व जो तामस आच्छन्न भाव चित्तेन्द्रिय में उद्भूत होता है (जिससे प्राणी सुप्त हो जाता है) उस आच्छन्न भाव या जड़ता का ज्ञान ही निद्रारूप वृत्ति है। यह निद्रारूप ज्ञान विशेष ज्ञान है न निर्विशेष ज्ञान है, जिसका वर्णन 'मैं कुछ नहीं जानता था' इस रूप से किया जाता है।
सुषुप्ति-अवस्था में एक प्रकार की ज्ञानवृत्ति रहती है - यह अनुमान से सिद्ध होता है - जैसा कि व्याख्याकारों ने दिखाया हैं चित्तस्थैर्यकारी योगी निद्रावृत्ति का अनुभव प्रत्यक्षादि वृत्तियों की तरह ही करते हैं। मूर्छा आदि अवस्थाओं में भी जिस वृत्ति की सत्ता रहती है - वह भी यह 'निद्रा' ही है - यह वर्तमान लेखक का मत है, क्योंकि वह वृत्ति 'अभावप्रत्ययालम्बना' है (द्र. योगसूत्र 1/10)।
(सांख्य-योग दर्शन)
नियम
योग के आठ अंगों में नियम द्वितीय है (द्र. योगसूत्र 2/29)। नियम पाँच हैं - शौच, सन्तोष, तपः, स्वाध्याय तथा ईश्वरप्रणिधान (योगसूत्र 2/32)। यम मुख्यतया निषेधरूप है (हिंसा न करना, मिथ्या न कहना इत्यादि), नियम मुख्यतया विधिरूप है। वितर्कों के कारण नियम विरोधी भाव (अशौच, असन्तोष आदि) यदि चित्त में न उठे तो नियम स्थैर्य को प्राप्त होता है। इस प्रकार के स्थैर्यप्राप्त नियमों के कुछ असाधारण फल भी हैं; द्र. शौच आदि शब्द।
(सांख्य-योग दर्शन)
निरालम्बनचित्त
जो चित्त आलम्बन से शून्य होता है, वह निरालम्बन कहलाता है। वैराग्य की पराकाष्ठा रूप जो परवैराग्य है, उसके अभ्यास से ही यह आलम्बन-हीनता होती है। चूंकि आलम्बन के कारण ही चित्त सक्रिय होता है (अर्थात् चित्त की सत्ता ज्ञात होती है), अतः जब चित्त आलम्बनहीन हो जाता है तब वह 'अभाव प्राप्त की तरह' हो जाता है (अभावप्राप्तमिव, व्यासभाष्य 1/18)। यह निर्बीजसमाधि की अवस्था है। परवैराग्य के बिना अन्य किसी भी उपाय से चित्त की यह अवस्था नहीं हो सकती।