logo
भारतवाणी
bharatavani  
logo
Knowledge through Indian Languages
Bharatavani

Definitional Dictionary of Indian Philosophy Vol.-II

Please click here to read PDF file Definitional Dictionary of Indian Philosophy Vol.-II

धर्मिग्राहक मान
धर्मिस्वरूप का ग्रहण कराने वाला प्रमाण धर्मिग्राहक मान है एवं जो प्रमाण धर्मिस्वरूप का ग्रहण कराने वाला होता है, उसी से धर्मिगत अनेक धर्मों की भी सिद्धि हो जाती है। जैसे - जिस प्रमाण से जगत् के कर्त्ता ईश्वर की सिद्धि होती है, उसी प्रमाण से ईश्वर में सर्वज्ञता, सर्वशक्तिमत्ता आदि धर्मों की भी सिद्धि हो जाती है। क्योंकि बिना सर्वज्ञत्व, सर्वशक्तिमत्त्व के ईश्वर में जगत्कर्तृत्व बन ही नहीं सकता है। यही धर्मिग्राहक मान की विशेषता है (अ.भा.पृ. 989)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

धर्म
बुद्धि के चार सात्विक रूपों में यह एक है। अन्य तीन हैं - ज्ञान, विराग (वैराग्य) और ऐश्वर्य (सिद्धि)। (द्र. सांख्यका. 23)। यह धर्म यम-नियम ही है - ऐसा माठर आदि वृत्तिकार कहते हैं। अन्य व्याख्याकार कहते हैं कि विवेकज्ञान के साक्षात् साधनभूत कर्म (जो भोग की निवृत्ति करते हैं) तथा यज्ञादिकर्म - ये दो धर्म के भेद हैं। यज्ञादिकर्मों में यमादि का जो पालन किया जाता है, वह यज्ञादि के अनुष्ठान की तुलना में अधिकतर सात्त्विक हैं।
(सांख्य-योग दर्शन)

धर्मपरिणाम
धर्मी द्रव्य के जो तीन प्रकार के परिणाम होते हैं - धर्म -परिणाम उनमें से एक है (लक्षण और अवस्था अन्य दो परिणाम हैं)। धर्मपरिणाम का अर्थ है - धर्मी द्रव्य में एक धर्म का उदय। उसके बाद वह धर्म लीन होता है एवं अन्य धर्म उदित होता है (जो उदित होता है, वही इन्द्रिय द्वारा साक्षात् विज्ञेय होता है)। यथा - सुवर्ण रूप धर्मी का पिंडाकार एक धर्म है; पिंडाकार परिवर्तित होकर जब कोई अलंकार-विशेष बनता है तब धर्मान्तर का उदय होता है (पिंडाकार का नाश होने के अनन्तर)। यह ज्ञातव्य है कि धर्मपरिणाम किसी एक धर्मी का ही होता है, धर्मी से सर्वथा निरपेक्ष कोई परिणाम नहीं होता। विभिन्न अलंकार सुवर्णपिंडा के ही धर्म हैं, क्योंकि उन धर्मरूप अलंकारों में सुवर्णरूप धर्मी का अन्वय देखा जाता है। धर्मपरिणाम में धर्मी अपने स्वरूप में ही रहता है - यह माना जाता है।
धर्मी का जो धर्म है, वह अन्य धर्म की तुलना में धर्मी भी होता है। जब एक धर्म का पुनः परिणाम होता है तो वहाँ वह धर्म उदित परिणाम की दृष्टि में धर्मी होगा। धर्मों का परिणाम लक्षण (कालभेद) की अन्यता से होता है - यह पूर्वाचार्यों ने कहा है (द्र. लक्षण-परिणाम)। सांख्ययोग की मान्यता है कि धर्मी और धर्म यद्यपि परमार्थतः अभिन्न हैं (धर्मसमष्टि ही धर्मी है) तथापि व्यवहारतः भिन्न ही माने जाते हैं। प्रसंगतः यह जानना चाहिए कि धर्म शब्द कभी-कभी लक्षण-परिणाम और अवस्था-परिणाम का भी वाचक होता है।
(सांख्य-योग दर्शन)

धर्ममेघसमाधि
जिस समाधि के द्वारा क्लेशों एवं कर्मों की निवृत्ति होती है, वह धर्ममेघसमाधि है। सर्वज्ञता -रूप प्रसंख्यान पर भी जब योगी का वैराग्य होता है, तभी यह समाधि आविर्भूत होती है (योगसू. 4/29)। इस अवस्था में विवेकख्याति की पूर्णता हो जाती है और योगी इस ख्याति को भी निरुद्ध करने के लिए उद्यत हो जाता है। धर्ममेघ रूप ध्यान को 'पर प्रसंख्यान' कहा जाता है। आत्मज्ञान रूप धर्म का ही मेहन (= वर्षण) करने के कारण ही इस समाधि का 'धर्ममेघ' नाम है। योगियों का कहना है कि इस समाधि का लाभ होने पर अनायास कैवल्य की प्राप्ति होती है।
(सांख्य-योग दर्शन)

धर्मी
सांख्ययोग शास्त्र के अनुसार धर्मों के समाहारभूत पदार्थ धर्मी हैं - धर्मों का आश्रयभूत पदार्थ नहीं, जैसा कि वैशेषिक शास्त्र में माना जाता है। एक धर्मी के धर्म बहुसंख्यक होते हैं, जो कालभेद की दृष्टि से त्रिधा विभक्त हैं - शान्त (जो धर्म नष्ट हो गया), उदित (जो धर्म वर्तमान है - इन्द्रियवेद्यरूप में अवस्थित है) तथा अव्यपदेश्य (अर्थात् जो विशेष रूप से ज्ञातव्य नहीं है; यह अनागत है)। धर्मी के जो शान्त एवं अव्यपदेश्य धर्म हैं, वे सामान्य धर्म कहलाते हैं और जो उदित धर्म हैं, वे विशेष धर्म कहलाते है। यही कारण है कि धर्मी को सामान्य -विशेषात्मा कहा जाता है (धर्मी के लिए कभी-कभी 'द्रव्य' अथवा 'अर्थ' शब्द प्रयुक्त होता है)। प्रत्येक धर्म में धर्मी का अनुगम रहता है - रुचक, स्वस्तिक आदि अलंकारों में सुवर्ण रूप धर्मी के अनुगम की तरह धर्मों की भिन्नता होने पर भी उनमें धर्मी अभिन्न रूप से रहता है - यही धर्मी का अनुगम या अन्वय है (भिन्नेषु अभिन्नात्मा धर्मी, विवरणटीका 3/13)।
धर्म -धर्मी में भेद व्यावहारिक है; पारमार्थिक नहीं; परमार्थतः धर्म -धर्मी में अभेद है। यही कारण है कि धर्म -धर्मी के सम्बन्ध में सांख्य एकान्तवादी (भेदवादी या अभेदवादी) नहीं है (द्र. व्यासभाष्य 3/13 का वाक्य एकान्तानम्भुपगमात्)। इसी दृष्टि के कारण व्याख्याकारगण सदैव कहते हैं कि धर्म -धर्मी में कथंचित् भेद और कथंचित् अभेद है। प्रत्येक धर्म की अपनी योग्यता होती है, जो धर्मी में नहीं देखा जाता। मृत्पिंड से उत्पन्न घट में जल-आहरण की योग्यता है, जो मृत्पिंड में नहीं है। इस योग्यता के कारण ही धर्म-धर्मी में भेद मानना पड़ता है। धर्मी में धर्म की योग्यता सूक्ष्म रूप से रहती है, पर उस सूक्ष्म भाव से व्यक्त धर्म द्वारा निष्पन्न होने वाला कार्य निष्पन्न नहीं होता। यह सूक्ष्म रूप या अनभिव्यक्त रूप से रहना शक्ति कहलाता है। धर्मी में जो एसी शक्तियाँ रहती हैं, यह विभिन्न प्रकार के व्यक्त फलों को देखकर अनुमित होता है - ऐसा माना जाता है। यदि धर्म -धर्मी -भाव न माना जाए (अर्थात् प्रत्येक धर्म स्वप्रतिष्ठ है, परस्पर असंबद्ध है - ऐसा माना जाए, तो दार्शनिक दृष्टि से कई दोष होते हैं, द्र. व्यासभाष्य 3/14)।
(सांख्य-योग दर्शन)

धातु
शरीर के उपादानभूत (शरीर के मुख्य घटक) धातुओं की चर्चा योगग्रन्थों में मिलती है। यह विषय आयुर्वेदशास्त्र में मुख्यतया प्रतिपादित हुआ है। धातु सात हैं - (1) रस (आहार का प्रथम परिणाम), (2) लोहित या रक्त, (3) मांस, (4) स्नायु, (5) अस्थि, (6) मज्जा तथा (7) शुक्र। कहीं-कहीं रस के स्थान पर त्वक् शब्द का प्रयोग मिलता है; ऐसे स्थलों में त्वक् का लक्ष्यार्थ रस ही समझना चाहिए; त्वक् या चमड़ा कोई धातु नहीं है। ये सात उत्तरोत्तर अधिक आभ्यंतर हैं - रस सर्वाधिक बाह्य है और शुक्र सर्वाधिक अन्तस्तल में अवस्थित है (द्र. व्यासभाष्य 3/21)। धातु का शब्दार्थ है - धारण करने वाला। योगग्रन्थों में कदाचित् उपधातुओं की चर्चा मिलती है; स्तनदुग्ध, आर्तव आदि सात उपधातु हैं।
(सांख्य-योग दर्शन)

धारणा
धारणा योग का छठा अंग है। किसी बाह्य देश या आध्यात्मिक देश (द्र. 'देशबंध') में चित्त को बाँधना धारणा है (योगसू. 3/1)। जिस चित्तबन्धन में उस देश से अतिरिक्त अन्य किसी देश में चित्त का संचरण नहीं होता है (यह प्रत्याहार के द्वारा ही संभव होता है) वही धारण योगशास्त्रीय धारणा है ('धारणा' शब्द का प्रयोग भावना के अर्थ में भी होता है)। प्रकृत विभूति का आरंभ भी धारणा-क्षेत्र से ही होता है। विभिन्न योगग्रन्थों में नाना प्रकार की धारणा एवं उनके फलों का विशद विवरण मिलता है, जैसे 'आग्नेयी धारणा' के द्वारा शरीर को भस्मीभूत करना (बाह्य अग्नि के बिना)। स्थूल-सूक्ष्म रूपों में या सगुण-निर्गुण-रूपों में नाना प्रकार के धारणाभेदों का विवरण योगग्रन्थों में मिलता है।
(सांख्य-योग दर्शन)

ध्यान
यह सातवाँ योगांग है। धारणा का ही उन्नततर रूप ध्यान है। धारणा देश में ध्येय विषयक प्रत्यय (=ज्ञानवृत्ति) की जो एकतानता (=अविच्छिन्न रूप से प्रवाह) है, वह ध्यान है (योगसू. 3/2)। धारणा में एकविषयिणी वृत्ति रहती है, पर उसकी धारा अविच्छिन्न रूप से नहीं चलती। धारणा में देश का ज्ञान रहता है, ध्यान में देशज्ञान नहीं रहता। धारणा में देश-विशेष में चित्तबन्धन होने पर भी प्रत्ययों का प्रवाह सर्वथा सदृश नहीं होता। ध्यान में वृत्तियों की सदृशता तथा अविच्छिन्नता आवश्यक है। ध्यान के नाना प्रकार के भेदों का उल्लेख योगियाज्ञवल्क्य आदि ग्रन्थों में मिलता है।
(सांख्य-योग दर्शन)


logo