logo
भारतवाणी
bharatavani  
logo
Knowledge through Indian Languages
Bharatavani

Definitional Dictionary of Indian Philosophy Vol.-II

Please click here to read PDF file Definitional Dictionary of Indian Philosophy Vol.-II

संघात
देहेन्द्रिय (देह+इन्द्रिय), प्राण, अंतःकरण और जीव ये चारों संघात भगवद् विभूति रूप हैं। इनमें देहेन्द्रिय रूप प्रथम संघात स्थूल शरीर रूप है। द्वितीय संघात प्राणमय रूप है। तृतीय संघात मनोमयरूप है। मन सभी इन्द्रियों से सम्बद्ध है। यह स्वयं इन्द्रिय भी है और अंतःकरण भी है। चतुर्थ संघात जीव तत्त्व रूप है। ये परस्पर में संहन्यमान (संहत) होकर ही पुरुषार्थ के साधक होते हैं, इसलिए संघात कहे जाते हैं (अ.भा.पृ. 187)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

संनिपात
लौकिक समस्त व्यवहार संनिपात है। अर्थात् `तू, मैं` इत्यादि बुद्धि तथा मन इन्द्रिय आदि पर आश्रित समस्त व्यवहार संनिपात है (अ.भा.पृ. 137)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

संयद्वाम
आनन्दात्मक सभी कर्मफलों का एकमात्र उपजीव्य (स्रोत) संयद्वाम है। अथवा सभी सुखों का घनीभूत जो अपवर्ग रूप फल है, उसका प्रदाता ब्रह्म संयद्वाम है। संयद्=प्रदाता, वाम=सुख, यह व्युत्पत्ति लभ्य अर्थ है (अ.भा.पृ. 318)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

संसार वृक्ष
संसार एक ऐसा आदिवृक्ष है, जिसकी पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार, ये आठ शाखायें हैं। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चार रस हैं। दश इन्द्रियाँ जिसके पत्ते हैं, जिस पर जीव और ईश्वर रूप दो पक्षी हैं, सुख और दुःख रूप दो फल हैं तथा देहवर्ती नव द्वार ही जिसके कोटर हैं।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

सकाम गति
कामना के अनुरूप प्राप्त होने वाली गति सकाम गति है अथवा सकाम कर्म के अनुष्ठान से प्राप्त होने वाली गति सकाम गति है। यह गति कामना के अनन्त होने से अनन्त प्रकार की होती है (अ.भा.पृ. 852)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

समाकर्ष
समीचीन आकर्ष समाकर्ष है। अथवा निश्चय का हेतु भूत आकर्ष समाकर्ष है। आकर्ष का अर्थ है - अपने स्थान से च्युत किया जाना। यह आकर्ष निश्चय का हेतु होने से समाकर्ष कहा जाता है। जैसे - असद्वा इदमग्र आसीत्, तद्धैक आहुः असदेवेदमग्र आसीत्, अव्याकृत मासीत्, तमआसीत् इत्यादि श्रुतियों में `असत्-अव्याकृत-तम आदि पद अपने अर्थ से च्युत कर दिए जाते हैं और केवल ब्रह्म की सद्रूपता निश्चित या सिद्ध की जाती है। प्रकृत में यही समाकर्ष है (अ.भा.पृ. 507)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

समाधि भाषा
समाधि में ऋषियों द्वारा स्वयं अनुभव कर जो कहा गया हो, वह समाधि भाषा है। इसमें ऋषि स्वानुभूत विषय का प्रतिपादन करते हैं (त.दी.नि.पृ. 26)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

सम्पराय
परलोक सम्पराय है। अथवा सम्=सम्यक, पर=पुरुषोत्तम, अय=ज्ञान। अर्थात् जिससे पर पुरुषोत्तम सम्यक् ज्ञान प्राप्त हो, वह भक्ति मार्ग सम्पराय है (अ.भा.पृ. 1060)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

सम्पातलय
कर्म का लय सम्पातलय है अथवा कर्माशय का लय सम्पातलय है। कर्म को या कर्माशय को सम्पात कहा गया है, क्योंकि वह पात का, बंधन का विशिष्ट कारण है। इस प्रकार बंधकारणीभूत कर्म की या कर्माशय की निवृत्ति ही सम्पातलय है (अ.भा. 841, 1308)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

सामिकृत कर्म
अधूरा किया कर्म सामिकृत कर्म है। लोक में सुषुप्ति के पूर्व किए जा रहे कर्म के शेष भाग की पूर्ति पुनः जागरण के अनन्तर की जाती है। ऐसे ही शयन के पूर्व का व्यक्ति `सति सम्पद्य न विदुः सति सम्पद्यामहे`, (इस श्रुति वचन के अनुसार) सुषुप्ति दशा में भगवत् स्वरूप में मिल जाता है, और वही पुनः जग कर शेष कार्य को पूर्ण करता है, दूसरा व्यक्ति नहीं। इस प्रसंग से आत्मा की स्थिरता सिद्ध होती है (अ.भा.पृ. 893)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)


logo