अणिमादि सिद्धियों में यह आठवीं सिद्धि है। भ्रमवश कुछ आधुनिक विद्वान् एवं अप्राचीन संस्कृत टीकाकार 'कामावसायित्व' नाम का प्रयोग करते हैं। 'यत्रकामावसायित्व' का अर्थ है - 'जिस विषय पर जैसी इच्छा हो, उसकी पूर्ति होना', पर योगशास्त्र में यह सत्यसंकल्प का वाचक है अर्थात् संकल्पानुसार भूतप्रकृतियों का होना। यह सिद्धि ब्रह्माण्डसृष्टिकर्ता प्रजापति हिरण्यगर्भ में रहती है। इस सिद्धि के बल पर ही उनके अहंकार के तामस भाग से (सृष्टिसंकल्प के कारण) तन्मात्र अभिव्यक्त होते हैं जो ब्रह्माण्ड का उपादान है (द्र. व्यासभाष्य 3/45)।
(सांख्य-योग दर्शन)
यम
योग के आठ अंगों में यम प्रथम है। इसके पाँच भेद हैं - अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह (योगसूत्र 2/30)। धर्मशास्त्र का अनुशासन है कि इन यमों का आचरण सतत करना चाहिए (नियमों के लिए ऐसा दृढ़ अनुशासन नहीं है)। अहिंसादि का आचरण जाति (जाति-विशेष), देश (देश, जैसे तीर्थादि), काल (कालविशेष) और समय (जीवन में स्वीकृत नियम) के द्वारा यदि सीमित न हो तो वह आचरण सार्वभौम कहलाता है (योगसूत्र 2/31)। यम की विरोधी भावना (हिंसा आदि) द्वारा यदि यम का आचरण बाधाप्राप्त न हो तो 'यम सुप्रतिष्ठ हुआ' यह माना जाता है। इस प्रकार सुप्रतिष्ठ अहिंसा आदि की कुछ सिद्धियाँ भी होती हैं, जो योगसूत्र में कही गई हैं। द्र. अहिंसा, सत्य आदि शब्द।
(सांख्य-योग दर्शन)
योग
योग के अधिकांश लक्षणों (परिभाषाओं) में योग को 'संयोगविशेष' कहा गया है। जीवात्मा या क्षेत्रज्ञ का परमात्मा या ईश्वर के साथ संयोग योग है। प्राण-अपान का संयोग योग है। इस प्रकार के लक्षणों में उपर्युक्त दृष्टि झलकती है। इन लक्षणों में योग अन्तिम लक्ष्य है और योगाङ्ग उस लक्ष्य के साधनभूत हैं।
विक्षेपनाश, अर्थात् एकाग्रता या मानसिक धैर्य के आधार पर भी योग का लक्षण किया गया है। कठोपनिषद् में 'स्थिर इन्द्रियधारणा' को योग कहा गया है। ऐसा स्थैर्य किसी आलम्बन का आश्रय लेकर ही होता होगा, यद्यपि मुख्य विक्षेपनाश ही है। विक्षेपनाश को प्रधान मानकर योग का लक्षण पतंजलिकृत योगसूत्र के 'योगः चित्तवृत्तिनिरोधः' (1/2) सूत्र में मिलता है। योगशास्त्रीय उपायों से जो वृत्तिरोध होता है - उस रोध को योग का लक्षण कहा गया है। यह वृत्तिरोध यदि चित्त की एकाग्रभूमि में हो तो वह संप्रज्ञातयोग कहलाता है और यदि निरोधभूमि में हो तो असंप्रज्ञातयोग कहलाता है। संप्रज्ञातयोग आलंबन-सापेक्ष है। अतः उसके अवान्तर भेद होते हैं। असंप्रज्ञातयोग आलम्बन-हीन है - इसमें सभी चित्तवृतियों का अत्यन्त निरोध होता है और यही मुख्य योग है।
इस योग के साधन अभ्यास और वैराग्य हैं। आठ योगाङ्गों के आचरण की सहायता से अभ्यास-वैराग्य का अनुष्ठान किया जाता है। योगांगों द्वारा अशुद्धि का क्षय होता है जिससे चित्त में अलौकिक ज्ञान एवं शक्ति का प्रादुर्भाव होता है। वृत्ति निरोध रूप योग के साथ सिद्धियों का निकटतम संबंध है, यद्यपि कैवल्य-रूप सर्वोच्च पद की प्राप्ति में सिद्धियों की उपयोगिता नहीं है। विवेक से अविद्या का नाश होना ही कैवल्य अर्थात् मोक्ष है। षडङ्ग-योग की भी प्राचीन परम्परा है; द्र. षडङ्गशब्द।
योग' शब्द का गौण प्रयोग भी है, अर्थात् निःश्रेयस की प्राप्ति के लिए उपायमात्र के अर्थ में भी 'योग' का प्रयोग होता है।
इसी अर्थ में 'कर्मयोग', 'ज्ञानयोग', 'भक्तियोग' आदि का व्यवहार होता है। कई पूर्वाचार्यों के मतानुसार 'क्रियायोग' या 'कर्मयोग' भी 'क्रिया या कर्मविशेष के माध्यम से वृत्तिरोध करना' के अर्थ में योग का साधनभूत है।
योगाङ्गों का अनुष्ठान किसी न किसी रूप में सभी धार्मिक एवं दार्शनिक संप्रदाय करते हैं। कुछ ऐसे भी संप्रदाय हैं जो योगविशेष के नाम से प्रसिद्ध हैं - जैसे हठयोग, राजयोग, नाथयोग, शिवयोग, स्वरोदययोग आदि।
(सांख्य-योग दर्शन)
योगनिद्रा
योगनिद्रा के स्थान पर कभी-कभी 'अजाड्यनिद्रा' शब्द भी प्रयुक्त होता है, जिससे इस निद्रा का स्वरूप ज्ञात होता है। साधारण जीव निद्राकाल में आत्मविस्मृत हो जाता है, अर्थात् 'में अपनी निद्रावृत्ति का ज्ञाता हूँ', ऐसा ज्ञान सुषुप्ति अवस्था में नहीं रहता। अभ्यासविशेष (जिसको कहीं-कहीं ज्ञानाभ्यास कहा गया है) से चित्त की जड़ता नष्ट होने पर ज्ञानशक्ति इतनी दृढ़ हो जाती है कि सदैव (निद्राकाल में भी) आत्मस्मृति की धारा अटूट चलती रहती है। योगनिद्रा की अवस्था बाह्य निद्रा के सदृश है। योगियों का कहना है कि बैठी हुई अवस्था में भी योगनिद्रा हो सकती है; प्रायः पद्मासनादि में बैठकर ही योगी योगनिद्रा में लीन होते हैं। पांतजलयोगशास्त्र में जो अक्लिष्टनिद्रावृत्ति है, उसकी ही उन्नततर अवस्था योगनिद्रा है।
(सांख्य-योग दर्शन)
योगांग
चित्तवृत्तिनिरोध रूप योग के आठ अंग कहे गए हैं, जिनके नाम हैं - यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। योगांग दो प्रकार के उपकारक हैं - ये अशुद्धियों (शरीर, इन्द्रिय, अन्तःकरण स्थित दोषों) के क्षयकारक हैं तथा विवेकख्याति के प्राप्ति कारक हैं। योगांगों में एक के बाद ही दूसरे योगांग का अनुष्ठान करना चाहिए - इस प्रकार का कोई क्रम योगशास्त्र में सर्वथा नहीं माना जाता। इस विषय में इतना ज्ञातव्य है कि आसन में स्थिर होकर बैठने की शक्ति होने पर ही प्राणायाम का अभ्यास करना चाहिए (आसन-सिद्धि के बाद ही प्राणायाम करणीय है - ऐसा नियम नहीं है)। प्राणायाम धारणा के अभ्यास में अत्यन्त सहायक है, यद्यपि प्राणायामक्रिया के बिना ही धारणा (ज्ञानमयधारणा-विशेष, तत्त्व-ज्ञानमय धारणा) हो सकती है। प्रत्याहार के लिए भी यही बात है। धारणा, ध्यान, समाधि अवश्य ही क्रमिक रूप से अनुष्ठेय हैं। यम-नियम में कोई क्रम नहीं है - दोनों ही एक साथ अनुष्ठेय हैं, एवं समाधिसिद्धिपर्यन्त यम-नियमों का अनुष्ठान अपरिहार्य है। जीवन्मुक्त भी यमनियमविरोधी कर्म नहीं करते हैं। विभिन्न योगविषयक ग्रन्थों में अष्टांगों का विवरण सर्वथा एकरूप नहीं है, यद्यपि सारतः वह विवरण योगसूत्रोक्त विवरण का विरोधी नहीं है।