प्रयत्न से साध्य शास्त्र विहित ज्ञान एवं भक्ति की साधना मर्यादा है तथा इससे प्राप्त होने वाली मुक्ति मर्यादा मुक्ति है एवं इस मर्यादा से मिश्रित पुष्टिभक्ति मर्यादा पुष्टिभक्ति है। ऐसी भक्ति के उदाहरण भीष्म पितामह प्रभृति हैं (अ.भा.पृ. 1.067)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
महापतन
पुष्टि मार्ग में मुक्ति महापतन रूप है क्योंकि मुक्ति भक्ति रस की बहुत बड़ी बाधिका है। `न स पुनरावर्तते` के अनुसार मुक्ति प्राप्त हो जाने पर पुनरावृत्ति नहीं होने से भक्ति रस की आशा भी जाती रहती है (अ.भा.पृ. 1234)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
महापुष्टित्व
भगवत्प्राप्ति के मार्ग में आने वाली बाधाओं को निवृत्त करने हुए भगवत्पाद की प्राप्ति करा देने वाला भगवान् का अनुग्रह महापुष्टित्व है (प्र.र.पृ. 77)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
महिम
भगवान् भक्त को जब स्वीय के रूप में वरण कर लेते हैं, तब उस भक्त में सर्वात्म भाव या भगवदात्मकता का उदय हो जाता है। इस प्रकार उदय को प्राप्त सर्वात्म भाव या भगवदात्मकता ही महिम है। विप्रयोग भाव का उदय होने पर भक्त में यह महिमा स्पष्ट रूप में परिलक्षित होती है (अ.भा. 1141)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
मानसी सेवा
भगवान् के प्रति भक्त की भक्ति जब व्यसन का स्वरूप धारण कर लेती है, तो वैसी भक्ति भगवान् की मानसी सेवा है (शा.भ.सू.पृ. 1/1/2)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
माया
सर्वभवन सामर्थ्य रूपा भगवान् की शक्ति माया है। माया शब्द के सामान्यतः चार अर्थ होते हैं, सर्वभवन सामर्थ्य रूप शक्ति, व्यामोहिका शक्ति, ऐन्द्रजालिक विद्या तथा कापट्य या कपटभाव। इनमें प्रथम शक्ति भगवान् की माया है (त.दी.नि.पृ. 88)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
मूल रूप
पुरुषोत्तम शब्द का वाच्यार्थ भूत-नित्यानंदैक स्वरूप, सदा प्रकटीभूत है अलौकिक धर्म जिसमें, ऐसा नित्य सर्वलीला युक्त कृष्णात्मक पर ब्रह्म ही मूल रूप है (प्र.र.पृ. 48)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
मधुप्रतीक
इन्द्रिय-जय से होने वाली मनोजवित्व, विकरणभाव एवं प्रधानजप नामक तीन सिद्धियों का नाम मधुप्रतीक है (योगसू. 3/48)। वाचस्पति के अनुसार एक प्रकार की चित्तभूमि भी मधुप्रतीक कहलाती है (तत्त्ववैशारदी में 'मधुमती', मधुप्रतीका, विशोक और संस्कारशेष नामक चार चित्तभूमियाँ कही गई हैं; 1/1)। विज्ञानभिक्षु ने इस मत का खण्डन किया है (योगवार्त्तिक 3/48)।
(सांख्य-योग दर्शन)
मधुभूमिक
चार प्रकार के योगियों में मधुभूमिक (मधु = मधुमती नामक भूमि है जिसकी, वह द्वितीय है), (द्र. व्यासभाष्य 3/51)। ये योगी ऋतंभरा नामक प्रज्ञा (द्र. योगसू. 1/48) से युक्त होते हैं। ऋतंभरा प्रज्ञा रूप भूमि ही मधुमती भूमि कहलाती है (द्र. विवरण टीका)।
(सांख्य-योग दर्शन)
मनस्
मनस् अथवा मन को 'अन्तः इन्द्रिय' (अतःकरण) कहा गया है, क्योंकि शब्दस्पर्शादि रूप बाह्य विषय का ज्ञान साक्षात् मन से नहीं होता, इन्द्रियों के माध्यम से ही होता है। मन आन्तर विषयों का (सुख-दुःख-बोध तथा स्मृति आदि का) करण है। यह मन यद्यपि अहंकार अथवा अस्मिता से ज्ञानेन्द्रिय-कर्मेन्द्रिय की तरह ही उत्पन्न होता है (अतः मन को सोलह विकारों में एक माना जाता है) तथापि इसको इन इन्द्रियों का अधिपति अथवा परिचालक माना गया है। मन के योग के बिना ये इन्द्रियाँ अपना व्यापार करने में समर्थ नहीं होतीं - इस इन्द्रिय -परिचालकत्व के कारण ही मन को उभयात्मक कहा गया है (कारिका 27)। मन का धर्म 'संकल्प' माना गया है। 'संकल्प' के स्वरूप के विषय में मतभेद हैं। वाचस्पति संकल्प को 'विशेष्य-विशेषण-भाव रूप से विवेचन' समझते हैं। यही न्यायशास्त्र का सविकल्प ज्ञान है जिसमें किसी वस्तु का नाम, जाति आदि के साथ ज्ञान होता है। संकल्प, इच्छा, अभिलाषा या तृष्णारूप है - ऐसा भी कोई-कोई व्याख्याकार कहते हैं। संकल्प के विषय त्रैकालिक होते हैं, वर्तमानकालिक नहीं।
मन अन्तःकरण होने पर भी इन्द्रिय है, बुद्धि-अहंकार इन्द्रिय नहीं है। सात्त्विक अहंकार से ज्ञान-कर्मेन्द्रिय एवं मन के आविर्भाव होने के कारण ही मन को इन्द्रिय माना जाता है - यह वाचस्पति आदि कहते हैं। करण के रूप में मन बुद्धि-अहंकार का सजातीय है और इस मन का व्यापार है, संकल्प।