भगवान् की लीलाओं से विरुद्ध सभी लोकिक अर्थ विकार हैं। भगवान् की लीलायें सदा निर्विकार एवं शुद्ध हैं (अ.भा.पृ. 1425)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
विनिगमकाभाव
दो पक्षों में किसी एक पक्ष का समर्थक प्रमाण विनिगमक प्रमाण कहा जाता है तथा उसका अभाव विनिगमकाभाव है। जहाँ पर विनिगमक प्रमाण का अभाव होता है, वहाँ दोनों ही पक्ष असिद्ध माने जाते हैं (अ.भा.पृ. 1018)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
विप्रयोग रस
प्रभु के साथ वियोग होना एक रस है और वह विप्रयोग रस कहलाता है क्योंकि विप्रलम्भ श्रृंगार के समान प्रभु के साथ वियोग (विरह) युक्त भक्ति उत्कृष्ट रस का स्वरूप धारण कर लेती है। इसीलिए इसे विप्रयोग रस कहा जाता है (अ.भा.पृ. 1236)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
विभाव
अखण्ड ब्रह्म का मान विभाव है। यह विभाव भक्ति मार्ग में सर्वात्म भाव का उद्दीपक माना गया है अर्थात् अखण्ड ब्रह्म का मान होने पर भक्त के मन में सर्वात्मभाव प्रज्वलित हो जाता है। इसके प्रभाव से भक्त को राग-द्वेष से सर्वथा छुटकारा मिल जाता है। (अ.भा.पृ. 177)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
विषयता
अविद्या की आवरण और विक्षेप नामक दो शक्तियों की तरह वल्लभ दर्शन में आच्छादिका विषयता और अन्यथा प्रतीति की हेतुभूता विषयता नाम की दो विषयतायें स्वीकृत हैं। ये दोनों ही विषयतायें माया जनित होती हैं तथा विषय से भिन्न हैं। विषयता से जनित ज्ञान भ्रमात्मक होता है और विषयजन्य ज्ञान प्रमात्मक होता है (प्र.र.पृ. 14)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
विस्फुलिंग न्याय
अग्नि से निकलने वाली चिंगारी के समान अपनायी गयी प्रक्रिया विस्फुलिंग न्याय है। वेदान्त में दो प्रकार की सृष्टि का वर्णन है। एक यह कि सभी भूत-भौतिक पदार्थों की ब्रह्म से उत्पत्ति अग्नि विस्फुलिंग न्याय से होती है अर्थात् बिना किसी क्रम का अनुसरण किए ही होती है। दूसरी सृष्टि आकाशादि के क्रम से होती है (अ.भा.पृ. 679)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
वेद युक्ति
वेदोक्त या वेद के अविरुद्ध युक्ति वेद युक्ति है क्योंकि, `अलौकिको हि वेदार्थो न युकया प्रतिपद्यते। तपसा वेदयुकयातु प्रसादात् परमात्मनः।।` इस वचन के अनुसार अलौकिक वेदार्थ का ज्ञान शुष्क तर्क द्वारा संभव नहीं है, किंतु वेदोक्त या वेदाविरुद्ध तर्क से ही वेदार्थ का ज्ञान हो सकता है। `आर्षं धर्मोपदेशंच वेदशास्त्राविरोधिना यस्तर्केणानुसन्धत्ते स धर्मं वेद मेतरः।।` यह वचन भी इस पक्ष का समर्थक है (भा.सु.वे.प्रे. पृ. 93)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
व्यभिचारिभाव
पुष्टि मार्ग में विप्रयोग भाव का उद्रेक होने पर उत्पन्न अश्रु-प्रलाप आदि भाव व्यभिचारिभाव है। अश्रु-प्रलाप आदि के साथ ही भक्ति के अति विगाढ़भाव को प्राप्त हो जाने पर होने वाली भगवान् के साथ अभेदस्फूर्ति भी एक व्यभिचारिभाव ही है। वह अभेद स्फूर्ति भक्ति का फल नहीं है (अ.भा.पृ. 1099)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
वरणभेद
एक जाति की वस्तु को जब योगी संकल्पबल से अन्य जाति में रूपान्तरित करते हैं तब जिस प्रक्रिया के आधार पर वह वस्तु अन्य जाति में परिणत होती है उस प्रक्रिया का परिचय 'वरणभेद' शब्द से योगसूत्रकार ने दिया है (4/3)। वरणभेद का अर्थ है वरण (= प्रतिबन्ध) का नाश। सूत्रकार का कहना है कि किसी वस्तु में जिस जाति की अभिव्यक्ति करानी है उस जाति की प्रकृति वस्तु में पहले से ही रहती है, पर विरुद्ध प्रकृति उसकी अभिव्यक्ति को रोके रहती है। इस आवरण (वरण) को भंग कर देने मात्र से सूक्ष्म रूप से अवस्थित अभीष्ट प्रकृति स्वतः अभिव्यक्त हो जाती है - इस अभिव्यक्ति के लिए अन्य कोई व्यापार पृथक् रूप से नहीं करना पड़ता। उदाहरणार्थ, धर्माचरण से तामस आवरण नष्ट होता है और सत्त्वप्रधान प्रकृतियाँ व्यक्त होती हैं। उसी प्रकार अधर्म से सात्त्विक आवरण नष्ट होता है और तमःप्रधान प्रकृतियाँ व्यक्त होती हैं। ये धर्म-अधर्म प्रकृतियों को प्रवर्तित नहीं करते, केवल उनके आवरणों का नाश करते हैं - यह वरणभेद है।
(सांख्य-योग दर्शन)
वशित्व
अणिमादि आठ सिद्धियों में वशित्व ('वशिता' शब्द भी प्रयुक्त होता है) एक है (व्यासभाष्य 3/45)। इस सिद्धि के दो पक्ष हैं - भूत (पंचभूत) एवं भौतिक (पंचभूत-निर्मित-घटादि) को अपने वश में रखना तथा अन्यों के वश में न रहना। भूत-भौतिक के कारण-पदार्थ पर आधिपत्य करने पर ही यह सिद्धि उत्पन्न होती है। इस सिद्धि के कारण सभी भूत योगी के नियंत्रण में रहते हैं और वे उसकी इच्छा के अनुसार विपरिणाम को प्राप्त करते हैं। भूतभौतिक की प्राकृतिक शक्तियों का प्रतिबन्ध करने की शक्ति भी इस सिद्धि से होती है। भूतों का सूक्ष्मनामक जो रूप है, उस पर संयम करने से यह सिद्धि प्राप्त होती है।