logo
भारतवाणी
bharatavani  
logo
Knowledge through Indian Languages
Bharatavani

Definitional Dictionary of Indian Philosophy Vol.-II

Please click here to read PDF file Definitional Dictionary of Indian Philosophy Vol.-II

चतुर्विध पुष्टि भक्ति
पुष्टि भक्ति चार प्रकार की होती है -
1. पुष्टि पुष्टि भक्ति, 2. प्रवाह पुष्टि भक्ति, 3. मर्यादा पुष्टि भक्ति और 4. शुद्ध पुष्टि भक्ति।
1. जो पुष्टि भक्त पुष्टि से अर्थात् भजनोपयोगी भगवान् के विशिष्ट अनुग्रह से युक्त होते हैं; उनकी पुष्टि पुष्टि भक्ति होती है।
2. शास्त्र विहित क्रिया में निरत भक्तों की प्रवाह पुष्टि भक्ति है।
3. भगवत् गुण ज्ञान से युक्त भक्तों की मर्यादा पुष्टि भक्ति है।
4. भगवत् प्रेम से युक्त भक्तों की शुद्ध पुष्टि भक्ति है।
(प्र.र.पृ. 83)
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

चतुर्विध मूल रूप
1. श्री कृष्ण शब्द का वाच्य जो पुरुषोत्तम स्वरूप है, वह भगवान् का ही एक मूल रूप है।
2. अक्षर शब्द का वाच्यार्थ भूत व्यापक बैकुण्ठ रूप जो पुरुषोत्तम का धाम है, वह भी भगवान् का ही एक मूल रूप है।
3. भगवान् का एक मूल रूप वह भी है, जिसमें भगवान् की समस्त शक्तियाँ तिरोहित होकर रहती हैं, अर्थात् प्रकट रूप में नहीं रहती हैं तथा भगवान का वह मूल रूप सभी व्यवहारों से अतीत रहता है।
4. भगवान् का वह भी एक मूल रूप है जिस स्वरूप से वह अंतर्यामी होकर सभी पदार्थों में रहता है।
उक्त चारों ही भगवान् के मूल स्वरूप माने गए हैं।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

चतुष्पात्त्व
चतुष्पात्त्व भगवान का एक विशेषण है। भगवान के एक पाद के रूप में समस्त भूत भौतिक जगत्-तत्त्व है, तथा तीन अमृत पाद हैं, ये हैं - जनलोक, तपःलोक और सत्य लोक। (द्रष्टव्य अमृतपाद शब्द की परिभाषा) (अ.भा.पृ. 963)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

चित्र तांडव
यह एक प्रकार का नृत्य विशेष है। इसका अनुष्ठान भगवान् कृष्ण ने किया था। चित्र तांडव का तन्योक्त लक्षण निम्नलिखित है -
`धाधा धुक् धुक् णङ णिङ णङ -णिङ् ङण्णिङां ङण्णिङांणाम्`। `तुक् तुक् तुं तुं किडगुड् किडगुड् द्रां गुडु द्रां गुडुड्राम्`।। धिक् धिक् धोंधों किटकिट किटधां दम्मिधां दम्मिधां धाम्। आगत्यैवं मुहुरिह तु सदः श्रीमदीशो ननर्त।। (भा.सु.वे.प्रे.पृ. 57)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

चक्र
तन्त्र, हठयोग आदि शास्त्रों में चक्रसम्बन्धी विवरण विशेष रूप से मिलता है। कभी-कभी 'पद्म' शब्द भी प्रयुक्त होता है। इन शब्दों से शरीर के विभिन्न मर्मस्थल लक्षित होते हैं, जिनको लक्ष्य कर या जिनका आश्रय कर भावना -विशेष या ध्यान -विशेष का अभ्यास किया जाता है। ये चक्र वस्तुतः चक्राधार या पद्माकार नहीं हैं। ध्यान करने की सुविधा के लिए उन आकारों की कल्पना की गई है। ध्यानादि के समय चक्रगत बोधविशेष ही आलम्बन होता है - मांसादिमय शरीरांश नहीं। शरीरविद्या की दृष्टि से देखने पर ये चक्र वस्तुतः शास्त्रवर्णित रूप में शरीर में प्राप्त नहीं होते हैं। सर्वनिम्नस्थ मूलाधार चक्र में स्थित अधोगामी कुण्डलिनी नामक शक्ति (यह वस्तुतः देहाभिमान का काल्पनिक रूप है) को अभ्यास विशेष के बल पर ऊर्ध्वस्थ चक्रों में क्रमशः उठा कर मस्तिष्कस्थ सहस्रार पद्म में स्थित शिवरूपी परमात्मा में लीन करना षट्चक्र -मार्ग का मुख्य उद्देश्य है। शारीरिक क्रियाओं का रोध इस अभ्यास में अवश्य ही अपेक्षित होता है। इन चक्रों के साथ पृथ्वी आदि तत्व, भूः आदि लोक तथा अन्यान्य आध्यात्मिक पदार्थों का संबंध है।
चक्रों की संख्या में मतभेद है। षट्चक्र प्रसिद्ध हैं - (1) मूलाधार, (गुह्यदेशस्थित), (2) स्वाधिष्ठान (उपस्थदेश स्थित), (3) मणिपूर (नाभिदेश स्थिति), (4) अनाहत (हृदयदेशस्थित), (5) विशुद्ध (कण्ठदेशस्थित) तथा (6) आज्ञा (भ्रूमध्यस्थित)। मस्तिष्कस्थ सहस्रारिचक्र इनसे भिन्न है। नाथयोग आदि के ग्रन्थों में राजदन्तचक्र, तालुचक्र, घण्टिकाचक्र आदि चक्रों का उल्लेख भी मिलता है।
(सांख्य-योग दर्शन)

चिच्छायापत्ति
विषयों के साथ साक्षात् सम्बन्ध बुद्धि का है, पुरुष का नहीं। यह बुद्धि पुरुष के प्रकाश से प्रकाशित होती है। बुद्धिगत इस पौरुष प्रकाश को 'चित्-छाया का पतन' कहा जाता है। चित् -रूप पुरुष चूंकि प्रतिसंचारशून्य है - निर्विकार है, अतः 'छाया' शब्द प्रयुक्त होता है; कभी-कभी प्रतिबिम्ब शब्द भी प्रयुक्त होता है। चित्-छायापत्ति चैतन्याध्यास, चिदावेश आदि शब्दों से भी अभिहित होता है।
बुद्धिगत इस चित्-छाया के कारण अचेतन बुद्धि और बुद्धिधर्म अध्यवसाय - दोनों चेतनसदृश प्रतिभात होते हैं। व्याख्याकारों का कहना है कि चित्त इन्द्रिय माध्यम से विषयाकार में आकारित होने पर (यह विषयाकार-परिणाम की वृत्ति कहलाता है) विषयविशिषिट चित्तवृत्ति पुरुष में प्रतिफलित होती है। यह प्रतिफलित होना प्रमा है और चित्तवृत्ति प्रमाण है। अन्य मत के अनुसार पुरुष चित्तवृत्ति में प्रतिबिम्बित होता है। यह प्रतिबिम्बित होना ही पुरुष छायापत्ति है। चैतन्य में बुद्धि का भी प्रतिबिम्ब पड़ता है - यह भिक्षु ने कहा है।
(सांख्य-योग दर्शन)

चिति
चिति एवं चितिशक्ति शब्द अविकारी पुरुषतत्व के लिए प्रयुक्त होते हैं। चिति के साथ 'शक्ति' शब्द का जो प्रयोग किया जाता है, उससे यह प्रकट होता है कि चिति अविकृत रूप में रहकर ही चित्त की विषयी होती है। चिति के जो पाँच विशेषण व्यास-भाष्य (1/2) में दिए गए हैं (अपरिणामिनी, अप्रतिसंक्रमा, दर्शितविषया, शुद्धा और अनन्ता) उनसे पुरुष (चिति) का स्वरूप स्पष्ट हो जाता है। 'चिति' शब्द के साथ 'शक्ति' शब्द के प्रयोग की तरह 'भोक्ता' एवं 'दृक्' शब्द के साथ भी 'शक्ति' शब्द प्रयुक्त होता है जिसकी सार्थक्य व्याख्या ग्रन्थों में दिखायी गई है। 'चिति' के लिए 'चित्' शब्द भी प्रयुक्त होता है।
(सांख्य-योग दर्शन)

चितिशक्ति
चितिशक्ति' या 'चिति' पुरुष (तत्व) का समानार्थक है। 'चिति' शब्द पुरुष के स्वप्रकाश स्वभाव को प्रकट करने के लिए प्रयुक्त हुआ है। पुरुष के द्वारा बुद्धि प्रकाशित होती है - यह अभिप्राय भी 'चिति' से ध्वनित होता है। चिति रूप पुरुष अविकृत रूप में रहकर ही 'विषयी' होता है - इसको सूचित करने के लिए चिति शब्द के साथ शक्ति शब्द का भी प्रयोग किया गया है (द्र. विवरण टीका)। उपनिषद् में जो 'चेता' शब्द है (द्र. श्वेताश्वतर 6/11) वह चिति का समानार्थक है।
(सांख्य-योग दर्शन)

चित्त
चित्त शब्द यद्यपि मन का पर्याय है और इस अर्थ में यह कभी-कभी पांतजल योग के ग्रन्थ में भी प्रयुक्त होता है (द्र. 4/2 योगवा.) तथापि यह स्पष्टतया ज्ञातव्य है कि योगसूत्र में जो चित्त शब्द है (चित्तवृत्तिनिरोध के प्रसंग में), वह मन नहीं है। यह चित्त प्रत्यय और संस्कार रूप धर्मों का धर्मी द्रव्य है; यह द्रष्टा और दृश्य से उपरक्त रहता है (योगसूत्र 4/23); इसकी वृत्तियाँ सदैव ज्ञात रहती हैं (योगसूत्र 4/22)। यह सत्त्वप्रधान है (इसीलिए चित्तसत्व शब्द प्रायः प्रयुक्त भी होता है)। धर्मज्ञान-वैराग्यादि इसके ही धर्म माने गए हें (व्यासभाष्य 1/2)। प्रतीत होता है कि योगसूत्र का चित्त सांख्य की बुद्धि या महतत्त्व है अर्थात् व्यावहारिक आत्मभाव ही चित्त है जो विषय से साक्षात् संबद्ध है। 'चित्तं महदात्मकम्' इस प्रकार के जो वचन मिलते हैं, उनसे भी उपर्युक्त मत सिद्ध होता है। योग में संस्कार को चित्त का धर्म माना गया है (3/15 भाष्य) और सांख्यसूत्र (2/42) कहता है - 'तथाशेषसंस्कारधारत्वात्' अर्थात् बुद्धितत्व सभी संस्कारों का आधार है - संस्काररूप धर्म का धर्मी है - यह भी उपर्युक्त मत की पुष्टि करता है। इस चित्तसत्त्व की पाँच वृत्तियाँ हैं - प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति (द्र. प्रमाणादि शब्द)।
(सांख्य-योग दर्शन)

चित्तप्रसादन
इसका अर्थ है - प्रसन्न अवस्था में चित्त का होना। यह प्रसन्नता एकाग्रता का सोपान है। प्रसन्न चित्त ही योगशास्त्रोक्त विशिष्ट उपायों (योग सू. 1/34 आदि में उक्त) की सहायता से स्थिति को प्राप्त कर सकता है। श्रद्धा आदि उपायों (द्र. योगसू. 1/20) का भी सफल अभ्यास तभी किया जा सकता है, जब चित्तप्रसादन उत्पन्न हो। गीता एवं योगग्रन्थों में 'प्रसन्नमनाः', 'प्रसन्नचेताः' आदि जो विशेषणपद योगी के लिए दिए गए हैं, वे इस चित्तप्रसादन को ही लक्ष्य करते हैं।
(सांख्य-योग दर्शन)


logo