रसस्वरूप एवं रतिसंज्ञक स्थायी भाव फलभक्ति है, जिसमें भक्त का मन परमेश्वर के चरण की सेवा में पूर्ण समुल्लास से युक्त हो जाता है, तथा जो आत्मानन्द को प्रकट करने वाली है, एवं कार्य-कारण-लिंग आदि से अभिव्यक्त होने वाली है, तथा जो मोक्ष को भी तिरस्कृत करने वाली है (शा.भ.सू.वृ.पृ. 62)।