धनुष पर शरसन्धान करके सावधान हो लक्ष्य वेधन की पद्धति शरधनुर्न्याय है। जीव को ब्रह्म से योजित करने के लिए यह न्याय है। इस पद्धति का स्वरूप यों है - प्रणव (ओंकार) रूप धनुष के माध्यम से आत्मा रूप बाण को लक्ष्यभूत ब्रह्म तक सावधान होकर पहुँचाना चाहिए (अ.भा.पृ. 371)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
शुद्ध पुष्टि भक्ति
जिसमें प्रेम की ही प्रधानता हो, स्नेह से ही परिचर्या, गुणगान आदि क्रियायें की जाती हैं, वह शुद्ध पुष्टि भक्ति है। (द्रष्टव्य चतुर्विध पुष्टि भक्ति शब्द)। (प्र.र.पृ. 83)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
श्रद्धा होम
पुरुष संज्ञा को प्राप्त करने के लिए श्रुति में प्रतिपादित पंच आहुतियों में प्रथम आहुति श्रद्धा है। यह आहुति द्युलोकरुपी अग्नि में प्रक्षिप्त की जाती है। यही आहुति क्रमशः सोम आदि भाव में रूपांतरित होती हुई योषित् (स्त्री) रूपी पंचम अग्नि में रेतः के रूप में पहुँचकर पुरुष का स्वरूप प्राप्त कर जाती है। इस प्रकार श्रद्धा एक प्रकार का आध्यात्मिक होम (आहुति) है। (द्रष्टवय कृतात्यय शब्द की परिभाषा) (अ.भा. 823)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
शाश्वतवाद
योगसूत्र 2/15 के व्यासभाष्य में इस वाद का उल्लेख है। यह सांख्ययोगीय मत है। पुरुष या आत्मा का जो स्वरूप है वह ग्रहणरूप क्रिया का विषय है (वह ग्रहणयोग्य है) या त्याग क्रिया का विषय है, ऐसा मानने पर अपरिणामी कूटस्थपुरुष जन्य या परिणामी हो जाते हैं। अतः ये दो मत (यथाक्रम हेतुवाद और उच्छेदवाद नामक) असंगत हैं। इससे भिन्न शाश्वतवाद है, जिसके अनुसार यह कहा जाता है कि पुरुष न हेय है, न ग्राहय है। इस शाश्वतवाद को सम्यक्दर्शन माना गया है। बौद्धशास्त्र का जो शाश्वतवाद है, वह इससे भिन्न है।
(सांख्य-योग दर्शन)
शुक्लकर्म
चतुर्विध कर्मों में शुक्ल कर्म एक है (द्र. व्यासभाष्य 4/7)। शुक्ल कर्म वे हैं जिनमें परपीड़ा आदि नहीं होते तथा जो बाह्य-साधन-निरपेक्ष होते हैं, जैसे तपस्या, स्वाध्याय (= जप), ध्यान आदि। शुक्लकर्म वस्तुतः मानस कर्म हैं। शुक्लकर्मकारी में कर्मफल की इच्छा रह सकती है; यही कारण है कि जीवन्मुक्त को ध्यानादि कर्म 'अशुक्ल' कहे जाते हैं। (अशुक्ल का अभिप्राय 'कृष्ण' नहीं है; शुक्ल कर्म से भी उच्चस्तर का जो कर्म होता है, वह 'अशुक्ल' अर्थात् 'शुक्ल का अतिक्रमणकारी' है)। स्वर्गकामी द्वारा निष्पाद्य ज्योतिष्टोम आदि यज्ञ शुक्लकर्म नहीं हैं, क्योंकि इन कर्मों से जन्म-मरण-प्रवाह का उच्छेद नहीं होता। यज्ञकर्मों में हिंसा आदि दोष होते हैं, इस दृष्टि से भी ये शुक्ल कर्मों में नहीं आते हैं। अशुक्ल-अकृष्ण कर्म फलकामना शून्य है।
(सांख्य-योग दर्शन)
शुक्लकृष्णकर्म
कर्म के चार विभागों में यह एक है (अन्य तीन हैं - कृष्ण, शुक्ल तथा अशुक्लाकृष्ण)। शुक्लकृष्ण कर्म वे हैं जो परपीड़ा आदि से कुछ युक्त रहने पर भी पुण्य या सात्त्विक भाव से युक्त रहते हैं। ये कर्म बाह्यसाधन से किए जाते हैं तथा ये सुख-दुःख-फलप्रद होते हैं। बाह्यसाधन सापेक्ष यज्ञ आदि कर्म शुक्लकृष्णकर्म के उदाहरण हैं। गृहस्थधर्म के अन्तर्गत प्रायः सभी कर्म शुक्लकृष्ण वर्ग में आते हैं।
(सांख्य-योग दर्शन)
शेषवत्
अनुमान के तीन भेदों में से यह एक है (अन्य दो हैं - पूर्ववत् तथा सामान्यतोदृष्ट)। इसकी व्याख्या में मतभेद हैं। एक मत के अनुसार शेषवत् कार्यभूत कर्दमादियुक्त जलप्रवाह को देखकर कारणभूत अतीव वृष्टि का अनुमान (कार्य को देखकर अतीव कारण का ज्ञान) है।
दूसरी व्याख्या यह है - समुद्र के कुछ जल को लवणाक्त देखकर अवशिष्ट जल को भी लवणाक्त समझना। 'समुद्रजल क्षार है, समुद्रजल होने के कारण, उद्धृतसमुद्रजल की तरह' - यह इस अनुमान का आकार है। यहाँ एकांश से अन्यांश का ज्ञान किया जा रहा है। व्यतिरेक से होने वाला (अर्थात् व्यतिरेक सहचारमात्रग्रहजनित व्याप्ति से होने वाला) अनुमान शेषवत् है - ऐसा वाचस्पति कहते हैं। व्यतिरेक = 'तदसत्वे तदसत्वम्' - 'किसी के न रहने पर किसी का न रहना'। द्र. अवीत।
(सांख्य-योग दर्शन)
शौच
अष्टांगयोग में 'नियम' नामक जो द्वितीय अंग है, उसके पाँच भेदों में शौच एक है। शौच का अर्थ है - शुचिता, जो चित्त का धर्म है। यह शौच बाह्य और आन्तर (आभ्यन्तर) भेद से द्विविध है। मिट्टी, जल आदि से जब शरीर को मलहीन किया जाता है, तब यह शुद्धि बाह्य शौच कहलाती है। उपवास तथा मेध्य आहार भी इस शौच के उपायभूत हैं। मानस मल (क्रोध, द्वेष, मान, असूया आदि योगविरोधी भाव) का दूरीकरण आभ्यन्तर शौच करता है। शौचाभ्यासी योगी में अपने शरीरांगों के प्रति हेयबुद्धि उत्पन्न होती है तथा उनमें परशरीरसंगलिप्सा नहीं होती। शौच से सत्वशुद्धि (= बुद्धि की रजः -तमोमल-हीनता भी होती है (योगसूत्र 2/40-41)।
(सांख्य-योग दर्शन)
श्रद्धा
श्रद्धा प्रथम उपायप्रत्यय है (द्र. योगसू. 1/20)। योगाभ्यास के क्षेत्र में श्रद्धा का स्थान कितना महत्वपूर्ण है, यह व्यासभाष्य के 'श्रद्धा जननी की तरह योगी की रक्षा करती है' वाक्य से जाना जाता है।
मोक्ष एवं मोक्षमार्गश्रवण के लिए चित्त का जो संप्रसाद (= मेरा अभीष्ट सिद्ध हो - ऐसा अकपट अभिलाष) है, वह श्रद्धा है - यह बहुसंख्यक व्याख्याकारों का मत है। यह श्रद्धा विवेकार्थों में ही होती है, अन्यजनों में श्रद्धा का एक स्थूल रूप या श्रद्धा का आभासमात्र रहता है। जिसमें श्रद्धा होगी, उसमें योग-साधनमार्ग में जाने के लिए वीर्य अवश्य होगा - यह पूर्वाचार्यों ने कहा है। गुरुवाक्य एवं शास्त्रवाक्य में अविचल विश्वास श्रद्धा है, अर्थात् आस्तिक्य-बुद्धि की श्रद्धा है - ऐसा भी एक मत प्रचलित है।
(सांख्य-योग दर्शन)
श्रावणसिद्धि
पुरुषज्ञान होने से पहले जो सिद्धियाँ स्वाभाविक रूप से आविर्भूत होती हैं। श्रावण उनमें से एक अन्यतम है। इस सिद्धि से दिव्य शब्द का श्रवण होता है (योगसूत्र 3/36)। विषयवती वृत्ति के प्रसंग में भी शब्दसंविद् का उल्लेख मिलता है (योगसूत्र 1/35 भाष्य)। यह भी दिव्य शब्द ही है। इन दो दिव्य शब्दों में अवान्तर भेद है - ऐसा प्रतीत होता है।