logo
भारतवाणी
bharatavani  
logo
Knowledge through Indian Languages
Bharatavani

Definitional Dictionary of Indian Philosophy Vol.-II

Please click here to read PDF file Definitional Dictionary of Indian Philosophy Vol.-II

ब्रह्म
प्रपंच का बृंहण अर्थात् विस्तार करने के कारण तथा स्वयं बृहत् होने के कारण ब्रह्म कहा जाता है। यह ब्रह्म शब्द का योगार्थ है। यहाँ बृंहण करना उपलक्षण मात्र है। वस्तुतः प्रपंच की उत्पत्ति, स्थिति और लय का कारण ब्रह्म है। ब्रह्म का यही लक्षण `जन्माद्यस्य यतः` इस सूत्र में प्रतिपादित किया गया है। उक्त सूत्र में प्रतिपादित यह लक्षण ब्रह्म का तटस्थ लक्षण है। सत्चित्त और आनंद (सच्चिदानन्द) यह ब्रह्म का स्वरूप लक्षण है। नामरूपात्मक प्रपंच के अंतर्गत जैसे रूप प्रपंच के कर्त्ता ब्रह्म हैं वैसे वेद या नाम प्रपंच के भी विस्तार कर्त्ता ब्रह्म ही हैं। ब्रह्म का कार्य होने से वेद और नाम प्रपंच भी ब्रह्म शब्द से कहा जाता है (अ.भा. 1/1/2)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

ब्रह्म दृष्टि
`यह सब कुछ आत्मा ही है, यह सब कुछ ब्रह्म ही है`। यह दृष्टि ब्रह्म दृष्टि है। उक्त दृष्टि प्रतीकात्मक (आरोपात्मक) नहीं है, किन्तु श्रवण के अनन्तर होने वाला मनन रूप है क्योंकि सभी वस्तु वास्तव में ब्रह्म ही है (आ.भा.पृ. 1273)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

ब्रह्मपुच्छ
`ब्रह्मापुच्छं प्रतिष्ठा` यहाँ पर पुच्छ स्थानीय ब्रह्म आनंदमय का प्रतिष्ठा भूत है क्योंकि `ब्रह्मविदाप्नाति परम्`। इस श्रुति के अनुसार आनंद स्वरूप ब्रह्म की प्राप्ति का साधन ब्रह्मज्ञान है एवं साधनभूत ब्रह्मज्ञान के प्रति ज्ञेय रूप में (विषय रूप में) ब्रह्म शेष (अंग) है। इस प्रकार साधन कोटि के अंतर्गत होने से ब्रह्म उस आनंदमय का प्रतिष्ठाभूत पुच्छ स्थानीय है। अर्थात् आनंदस्वरूप ब्रह्म पुच्छ स्थानीय ज्ञेय ब्रह्म पर प्रतिष्ठित है। इसीलिए ज्ञेय ब्रह्म आनंद का पुच्छ रूप है (अ.भा.पृ. 207)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

ब्राह्म शरीर
भगवान् द्वारा अपने भोग के अनुरूप निर्मित सत्य-ज्ञान और आनंदात्मक शरीर ब्राह्म शरीर है (अ.भा.पृ. 1380)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

बन्ध
जीव की बद्ध अवस्था (संसारयुक्तता) को बन्ध कहा जाता है। सांख्ययोग की दृष्टि में बन्ध वस्तुतः चित्त की ही अवस्था है - चित्त ही बद्ध होता है, चित्त ही मुक्त होता है। पुरुष (तत्त्व) में बन्ध-मोक्ष का व्यवहार औपचारिक (गौण) है, अर्थात् चित्त की अवस्थाओं का गौण व्यवहार चित्तसाक्षी कूटस्थ पुरुष में किया जाता है। यह बद्धावस्था सहेतुक है; हेतु है अविद्या। अविद्या अनादि है, अतः यह सिद्ध होता है कि बद्धावस्था का भी आदि नहीं है, अर्थात् बद्ध पुरुष अनादि काल से बद्ध है ('अनादिकाल से' - ऐसा कहना न्याय की दृष्टि से सदोष है, पर इस विकल्पवृत्तिजात व्यवहार को करने के लिए हम बाध्य हो जाते हैं - यह ज्ञातव्य है)। जब तक भोग और अपवर्ग रूप दो पुरुषार्थ समाप्त नहीं होते, तब तक यह बद्धावस्था भी रहती है। प्रसंगतः यह ज्ञातव्य है कि बन्ध का अभाव ही मुक्ति है। यह मुक्ति अविद्या का पूर्णतः नाश होने पर ही होती है। अविद्यानाश विद्या (= विवेकख्याति) द्वारा ही साध्य है, जो योगांगों के अभ्यास से ही प्रकट होता है।
बन्ध शब्द का एक विशिष्ट अर्थ में प्रयोग योगसूत्र 3/38 में है। शरीर में मन की (कर्माशयवशता के कारण) जो स्थिति होती है, वह भी बन्ध कहलाता है। (धारणा के प्रसंग में भी 'बन्ध' शब्द का प्रयोग होता है, जिसके लिए द्रष्टव्य है 'देशबन्ध' शब्द)।
सांख्यशास्त्र में तीन प्रकार का बन्ध स्वीकृत हुआ है - प्राकृतिक, वैकृतिक (या वैकारिक) तथा दाक्षिण। अष्ट प्रकृति से सम्बन्धित जो बन्धन हैं, वह प्राकृतिक है। इस बन्धन से युक्त व्यक्ति भ्रमवश इन प्रकृतियों को आत्मा समझते हैं। सोलह विकारों (विकृतियों) से सम्बन्धित जो बन्धन है वह वैकृतिक है। इस बंधन से युक्त व्यक्ति भ्रमवश इन विकारों को आत्मा समझते हैं। दक्षिणासाध्य यज्ञादिकर्मों से संबंधित जो बन्ध है वह दाक्षिण बन्ध या दक्षिणाबन्ध है (दाक्षिणक शब्द भी प्रयुक्त होता है)। विभिन्न लोकों से संबंधित बन्धन वैकारिक बन्धन है - यह किसी-किसी का मत है।
(सांख्य-योग दर्शन)

बहिरंगयोग
धारणा, ध्यान और समाधि संप्रज्ञातयोग (द्र. योगसू. 1/17) के अंतरंग साधन माने जाते हैं (क्योंकि इस समाधि में आलम्बन रहता है)। संप्रज्ञात समाधि की दृष्टि में यम, नियम, आसन, प्राणायाम एवं प्रत्याहार ये पाँच योगाङ्ग बहिर्ङ्ग हैं। ये मुख्यतः शरीर आदि को मलहीन करते हैं, जिससे स्थैर्य उत्पन्न होता है। इसी प्रकार असंप्रज्ञात समाधि की दृष्टि में धारणा-ध्यान-समाधि बहिरङ्ग साधन हैं, क्योंकि असंप्रज्ञात समाधि निरालम्बन है। इस समाधि का अन्तरङ्ग साधन परवैराग्य है (परवैराग्य का स्वरूप योगसू. 1/16 में द्र.)।
(सांख्य-योग दर्शन)

बुद्धि
सांख्ययोग में बुद्धि शब्द दो अर्थों में प्रचलित है - (1) ज्ञान अर्थात् वृत्तिरूप ज्ञान तथा (2) बुद्धितत्व अर्थात् महत्तत्त्व (द्र. महत्तत्त्व)। यह ज्ञान निश्चयरूप (प्रमारूप) ज्ञान है। यह बुद्धि विषय-इन्द्रिय-संयोग से प्रकटित होती है। वाचस्पति ने बुद्धिरूपवृत्ति के आविर्भाव की प्रक्रिया के विषय में ऐसा कहा है - 'विषय के साथ इन्द्रिय का सन्निकर्ष होने पर बुद्धिस्थ आवरक तमोगुण का अभिभव होता है। इस अभिभव के कारण जो सत्वसमुद्रेक होता है वह ज्ञानरूप बुद्धि है' (तत्त्वकौमुदी 5)। यह ज्ञान इन्द्रिय का धर्म नहीं है, किन्तु बुद्धि का धर्म है।
सांख्ययोग में कुछ ऐसे स्थल हैं, जहाँ महत्तत्त्व या चित्त आदि शब्दों का प्रयोग न कर बहुधा बुद्धि शब्द का ही प्रयोग किया जाता है, जैसे 'पुरुष बुद्धि का प्रतिसंवेदी है', 'काल बुद्धिनिर्माण है', 'बुद्धिनिवृत्ति ही मोक्ष है', 'भोगापवर्ग बुद्धिकृत है', 'पुरुष बुद्धिबोधात्मा है' आदि। प्रसंगतः यह ज्ञातव्य है कि जो बुद्धि पुरुष की विषयभूत होती है, वह बुद्धिमात्र नहीं; बल्कि पुरुषार्थवती बुद्धि है (पुरुषार्थ = विवेकख्याति एवं विषय-भोग)। महत्तत्त्वरूप बुद्धि प्रकृति का प्रथम विकार है। द्र. महान् शब्द।
(सांख्य-योग दर्शन)

बुद्धिवृत्ति
बुद्धि का व्यापार रूप परिणाम बुद्धिवात्त कहलाता है; विषय के संपर्क से ही बुद्धि से वृत्तियों का आविर्भाव होता है। बुद्धि चूंकि द्रव्य है, इसलिए वृत्ति भी द्रव्य है। वृत्ति को बुद्धि का धर्म कहा जाता है। यह वृत्ति वस्तुतः विषयाकार परिणाम ही है। बुद्धि चूँकि सत्वप्रधान है, अतः वृत्ति ज्ञान रूपा ही होती है; 'वृत्ति प्रकाशबहुल धर्मरूप है' ऐसा प्रायः कहा जाता है। यह ज्ञातव्य है कि बुद्धि से वृत्तियों के उद्भव में विषय आदि कई पदार्थों की आवश्यकता होती है, पर वह वृत्ति विषय आदि का धर्म न होकर बुद्धि का ही धर्म मानी जाती है, क्योंकि वृत्ति सत्त्वबहुल होती है। सांख्य में जो बुद्धिवृत्ति है, योग में उसको चित्तवृत्ति कहा जाता है (द्र. चित्तवृत्ति शब्द)।
(सांख्य-योग दर्शन)

बुद्धिसर्ग
सांख्यकारिका में जिस प्रत्ययसर्ग का उल्लेख है (का. 46) उसका नामान्तर बुद्धिसर्ग है ('प्रतीयते अनेन इति प्रत्ययो बुद्धिः' - तत्त्वकौमुदी, 46)। इस प्रत्ययसर्ग के चार भेद हैं - विपर्यय, अशक्ति, तुष्टि और सिद्धि। द्र. प्रत्ययसर्ग तथा विपर्यय आदि शब्द।
किसी-किसी व्याख्याकार के अनुसार प्रत्ययसर्ग का अर्थ है - प्रत्ययपूर्वक=बुद्धिपूर्वक सर्ग, अर्थात् सृष्टिकारी प्रजापति का अभिध्यानपूर्वक जो सर्ग = सृष्टि है, वह प्रत्ययसर्ग है। यह सर्ग चार प्रकार का है - मुख्य स्रोत, (उद्भिज्जसर्ग, तिर्यक-स्रोत (पश्वादिसर्ग), ऊर्ध्वस्रोत (देवसर्ग) तथा अर्वाक् स्रोत (मानुषसर्ग)। इन चार प्रकारों में ही यथाक्रम विपर्यय, अशक्ति, तुष्टि और सिद्धि रहती हैं और तदनुसार इन चारों के नाम भी विपर्यय होते हैं (द्र. युक्तिदीपिका, 46 कारिका तथा पुराणोक्त सर्ग -विवरणपरक अध्याय)। इस बुद्धिपूर्वक सर्ग के अतिरिक्त एक अबुद्धिपूर्वक सर्ग भी है, जिसका विवरण पुराणों के उपर्युक्त अध्यायों में मिलता है।
(सांख्य-योग दर्शन)

ब्रह्मचर्य
पंचविध यमों में यह एक है (योगसू. 2/30)। यह मुख्यतः उपस्थसंयम (मैथुनत्याग) है, यद्यपि अन्यान्य इन्द्रियों का संयम भी ब्रह्मचर्य में अन्तर्भूत है। उपस्थसंयम से शरीरवीर्य की अचंचलता अभिप्रेत है। वीर्यधारण से प्राणवृत्ति में सात्त्विक बल बढ़ता है, जो योगाभ्यास के लिए अपरिहार्य है। ब्रह्मचर्य की प्रतिष्ठा होने पर योगी शिष्य के हृदय में ज्ञान का आधान करने में समर्थ होता है। व्याख्याकारों ने कहा है कि ब्रह्मचर्य का भंग आठ प्रकारों से होता है, स्मरण या श्रवण, कीर्तन, केलि, प्रेक्षण, गुह्यभाषण, संकल्प, अध्यवसाय तथा क्रियानिष्पत्ति। पुरुष के लिए स्त्रीसम्बन्धी बातों को सुनना या स्मरण करना तथा स्त्री के लिए पुरुष सम्बन्धी बातों को सुनना या स्मरण करना (रागपूर्वक, जिससे ब्रह्मचर्य की हानि होती है) श्रवण है। कीर्तन आदि को भी इसी प्रकार जानना चाहिए।
(सांख्य-योग दर्शन)


logo