logo
भारतवाणी
bharatavani  
logo
Knowledge through Indian Languages
Bharatavani

Definitional Dictionary of Indian Philosophy Vol.-II

Please click here to read PDF file Definitional Dictionary of Indian Philosophy Vol.-II

भक्ताक्षर विज्ञान
भक्तों को होने वाला पुरुषोत्तम के अधिष्ठान के रूप में अक्षर का विज्ञान भक्ताक्षर विज्ञान है। पुष्टिमार्ग में अक्षर ब्रह्म का भी अधिष्ठाता पुरुषोत्तम भगवान् है, ऐसी मान्यता है (अ.भा.पृ. 1154)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

भगवच्छास्त्र
श्रीमद्भागवत-गीता एवं पंचरात्र ये तीन भगवच्छास्त्र हैं। क्योंकि ये तीनों ही स्वयं भगवान् द्वारा उक्त हैं तथा भगवत्तत्त्व के प्रतिपादक हैं (त.दी.नि.पृ. 12)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

भगवत् शक्तिद्रव्य
भगवान् की दो शक्तियाँ हैं - एक प्रवर्तकत्व शक्ति और दूसरी भजनीयत्व शक्ति। भगवान की प्रथम प्रवर्तकत्व शक्ति के कारण जगत की समस्त प्रवृत्तियाँ होती हैं तथा दूसरी भजनीयत्व शक्ति के कारण वे विशुद्ध रूप में भक्तों के भजनीय होते हैं। इनमें प्रवर्तकत्व शक्ति का प्राकट्य तो समस्त प्राणिमात्र के लिए है। किन्तु उनकी भजनीयत्व शक्ति का प्राकट्य केवल भक्तों में ही होता है (भा.सु. 11टी. पृ. 1111)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

भजनकृत्स्न भाव
भगवद् भजन में आन्तर और बाह्य सभी इन्द्रियों की सार्थकता का होना भजनकृत्स्न भाव है। उक्त सार्थकता गृहस्थों के ही भगवद् भजन में चरितार्थ है। त्यागियों के भगवद् भजन में तो केवल वाणी और मन ही सार्थक हो पाते हैं, अन्य हस्त, पाद, नेत्र, श्रवणादि इन्द्रियों की तो कोई उपयोगिता नहीं होती है (अ.भा.पृ. 1244)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

भजनानंद दान
भक्त की भक्ति के वशीभूत हुए भगवान् भक्त की इच्छा के अनुसार उसे सायुज्य आदि मुक्ति को न देकर भजनानंद प्रदान करते हैं क्योंकि भक्त को मुक्ति से भी अत्यधिक अभीष्ट भगवान् के भजन से उत्पन्न आनंद है। अतः उसे ही वह चाहता है और भगवान उसे प्रदान करते हैं। यही भगवान् का भक्त के लिए भजनानंद दान है (अ.भा.पृ. 1145)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

भूतभावन
बंध से छुटकारे के लिए जीवों को भगवद् भाव से भावित करने वाले भगवान् भूतभावन कहे जाते हैं। चूंकि भगवान् ही संसार में रहते हुए बंधरहित हैं, अतः भगवद् भाव से भावित जीव भी कृतार्थ हो जाता है। इस प्रकार जीव को कृतार्थ करने वाले भगवान् भूतभावन हैं (भा.सु.वे.प्रे.पृ. 7)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

भवप्रत्यय
भवप्रत्यय' एक प्रकार का चित्तवृत्तिनिरोध रूप समाधि या योग है; जो विदेहों एवं प्रकृतिलयों का होता है (द्र. योगसू. 1/19)। इस समाधि से युक्त जीवों का संसार में पुनः आना अवश्यंभावी है - इस दृष्टि से इस समाधि का नाम 'भवप्रत्यय' रखा गया है (भवः = जन्म, प्रत्ययः = कारण यस्य सः)। यद्यपि इस समाधि में निरोध की पराकाष्ठा है, तथापि यह कैवल्य की साधक नहीं है। इस समाधि से युक्त जीवों (विदेह आदि) में पुरुषतत्त्वज्ञान नहीं होता, अतः ये जीव निरोधभंग के बाद पुनः स्थल देह धारण करते हैं।
(सांख्य-योग दर्शन)

भाव
सांख्य में तीन प्रकार की सृष्टि मानी गई है - तत्त्वसृष्टि, भूतसृष्टि तथा भावसृष्टि। भाव का अभिप्राय धर्म आदि आठ भावों से है (धर्म, ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य तथा उनके विरोधी अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य, अनैश्वर्य) (द्र. सांख्यकारिका 43, 52)। ये भाव त्रयोदश करणों (पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, मन, अहंकार और बुद्धि) में आश्रित रहते हैं। ये भाव शरीर के उपादान कारणों से भी संबन्धित हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि विशेष प्रकार के शरीर धर्म -ज्ञानादि के साधन में विशेषतः उपयोगी होती हैं।
इन आठ भावों को सांसिद्धिक और वैकृतिक नामक दो भागों में बाँटा गया है (द्र. सांख्यका. 43)। सांसिद्धिक भाव वे हैं जो जन्म के साथ ही प्रकट होते हैं (पुरुषान्तर से उपदेश-ग्रहण के बिना)। ये प्राकृतिक भी कहलाते हैं। वैकृत भाव वे हैं जो साधनबल से क्रमशः प्रकट होते रहते हैं। कपिल मुनि प्रथम प्रकार के भाव के मुख्य उदाहरण हैं।
कुछ व्याख्याकार भावों के तीन प्रकार बताते हैं - सांसिद्धिक, प्राकृतिक तथा वैकृत (या वैकृतिक)। जन्म के साथ उत्पन्न होने वाले सांसिद्धिक; कुछ आयु बीतने पर आकस्मिक रूप से उत्पन्न होने वाले प्राकृतिक (इसमें पुरुषान्तर से उपदेश की आवश्यकता नहीं है); पुरुषान्तर से उपदेश लेकर साधन करने पर जो धर्मादि उत्पन्न होते हैं, वे वैकृतिक हैं।
(सांख्य-योग दर्शन)

भावफल
सांख्यशास्त्र में आठ भाव माने जाते हैं - धर्म-अधर्म, ज्ञान-अज्ञान, वैराग्य-अवैराग्य तथा ऐश्वर्य-अनैश्वर्य। इन आठों के जो फल हैं, वे भावफल हैं। इन फलों का उल्लेख सांख्यकारिका 844-45 में है, यथा - धर्म का फल है - ऊर्ध्वलोकों (सत्त्वप्रधान लोकों) में गमन; अधर्म का फल है - अधोलोक (तमः प्रधान निरयलोक) में गमन; ज्ञान का फल है - अपवर्ग (कैवल्य); अज्ञान का फल है - बन्धन; वैराग्य का फल है - प्रकृतिलय, अर्थात् आठ प्रकृतियों में चित्त का लीन हो जाना या तन्मय हो जाना (द्र. योगसूत्र 1/19 भी) जो तत्त्वज्ञानहीन केवल वैराग्य से होता है; अवैराग्य का फल है - संसार में बार-बार जन्म ग्रहण करते रहना; ऐश्वर्य का फल है - इच्छा का अनभिधात = बाधाहीनता; अनैश्वर्य का फल है - अभीष्ट अर्थ की अप्राप्ति (अर्थात् अप्राप्ति के कारण मन के क्षोभ आदि)।
(सांख्य-योग दर्शन)

भावसर्ग
सांख्यशास्त्र में दो प्रकार के सर्ग माने गए हैं - लिङ्गसर्ग एवं भावसर्ग (सांख्यकारिका 52)। (कहीं-कहीं लिङ्गसर्ग के लिए 'भूतसर्ग' शब्द भी प्रयुक्त होता है)। धर्म, ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य (बुद्धितत्त्व के चार सात्त्विक रूप) एवं अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य, अनैश्वर्य (बुद्धितत्त्व के चार तामस रूप) - ये आठ 'भाव' या 'रूप' कहलाते हैं (द्र. सांख्यकारिका 23, 43)। इन आठ पदार्थों की सृष्टि भावसर्ग है। प्रसंगतः यह ज्ञातव्य है कि सांख्य में कहीं-कहीं तत्त्व, भाव एवं लिङ्ग नामक त्रिविध सर्ग माने गए हैं (युक्तिदीपिका 21)।
(सांख्य-योग दर्शन)


logo