लीलारूप कैवल्य या लीला रूप मोक्ष लीलाकैवल्य है। ब्रह्म की एकरसता अथवा उसका अन्य धर्म से रहित होना ही केवलता या कैवल्य है। यह केवलता अर्थात् ब्रह्म की शुद्धता लीलात्मिका ही है क्योंकि शुद्ध ब्रह्म लीला विशिष्ट ही होता है, लीला रहित नहीं। अतएव लीला शुद्ध ब्रह्म स्वरूप है और इसीलिए पुष्टि मार्ग में कैवल्य लीला रूप ही है (अ.भा.पृ. 602, 1414, 1422)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
लीलारस
भगवान् की लीलाओं का आनंद या आस्वादन लीलारस है अथवा भगवान् की लीलायें स्वयं ही रस हैं (अ.भा.पृ. 1014)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
लक्षणपरिणाम
द्रव्य अथवा धर्मों के जो तीन प्रकार के परिणाम होते हैं, उनमें लक्षणपरिणाम एक है। धर्मी का जो धर्म नामक परिणाम होता है, उस धर्म का ही यह 'लक्षण' नामक परिणाम होता है। इस परिणाम का संबंध काल-भेद के साथ है। जब हम किसी वस्तु को लक्ष्य कर यह कहते हैं कि 'यह पहले अभिव्यक्त नहीं हुई थी, अब अभिव्यक्त हुई है' या 'यह उत्पन्न वस्तु अब नष्ट हो गई है', तब वस्तु-संबंधी जिस परिणाम का बोध होता है, वह 'लक्षण' नामक परिणाम है। अभिभव-प्रादुर्भाव-रूप जो लक्षण परिणाम है उसका एक उदाहरण 3/9 योगसूत्र में है, जहाँ दो संस्कारों के अभिभव-प्रादुर्भाव का उल्लेख किया गया है। यह ज्ञातव्य है कि अभिभव-प्रादुर्भाव या आविर्भाव-तिरोभाव होने पर भी धर्म का धर्मत्व नष्ट नहीं होता अर्थात् अभिभव आदि किसी धर्म पर व्यपदिष्ट होते हैं। अभिभव और प्रादुर्भाव परस्पर भिन्न हैं, पर इनसे धर्म की भिन्नता नहीं होती अर्थात् जो धर्म अनागत था, वही उदित होता है और बाद में अतीत हो जाता है। इस लक्षण परिणाम का पुनः अवगत-परिणाम होता है।
(सांख्य-योग दर्शन)
लघिमा
अणिमा आदि अष्टसिद्धियों में लघिमा एक है (द्र. योगसू. 3/45)। भारवान् शरीर को संकल्पबल से तूल (रूई) की तरह लघु बनाना इस सिद्धि का मुख्य स्वरूप है; बाह्य पदार्थों को अल्पभारवान् बनाना भी इस सिद्धि के अन्तर्गत है। रश्मि में चलना, आकाशगमन आदि इस सिद्धि के बल पर सिद्ध होते हैं। इस सिद्धि के कारण ही अत्यन्त भारवान् पदार्थों को योगी अनायास उठा सकते हैं (मानसोल्लास 10/11)।
भूतों का 'स्थूल' नामक जो भेद है, उस पर संयम करने से लघिमा सिद्धि का प्रादुर्भाव होता है। लघिमा कायसिद्धि के अन्तर्गत है (तत्त्ववैशारदी 2/43)।
(सांख्य-योग दर्शन)
लय
सांख्ययोग-शास्त्र में लय का अर्थ है - कारण के साथ कार्य का एकीभाव या अविभाग की प्राप्ति। इस प्रकार 'लय प्राप्त होना' कार्य की ही एक अवस्था होती है, इसमें कार्यद्रव्य का अभाव नहीं हो जाता। कारण सूक्ष्म होता है (कार्य की अपेक्षा) और सूक्ष्म की जो स्थूलभाव-प्राप्ति है वही कार्य का स्वरूप माना जाता है। लय के लिए इस शास्त्र में 'नाश' शब्द का भी प्रयोग होता है। इस शास्त्र की मान्यता है कि जिससे जिसका जन्म होता है, उसमें ही उसका लय होता है, जैसे भौतिक का लय भूतों में, भूतों का तन्मात्रों में इत्यादि। लीन होने के इस क्रम को 'प्रतिलोमक्रम' कहा जाता है।
(सांख्य-योग दर्शन)
लययोग
महायोग के अन्तर्गत या स्वतन्त्र रूप से भी लययोग नामक योगमार्ग-विशेष का उल्लेख कई अनतिप्राचीन ग्रन्थों में (विशेषकर नाथयोगियों के ग्रन्थों में) मिलता है। योगशिखोपनिषद् (1/134 -135) तथा योगबीज (146 इत्यादि) में इस योग के विवरण में कहा गया है कि चित्त के ब्रह्म में लीन होने पर वायु का जो स्थैर्य होता है, वही लययोग है। चित्तलय से स्वात्मानन्द-रूप परमपद की प्राप्ति होती है। चित्त का लय करना ही लययोग है जो ध्यान-साध्य है - यह योगतत्त्वोपनिषद् (23) में कहा गया है। यह लय मन्त्र की सहायता से हो सकता है, यह वराह उपनिषद् में कहा गया है (लय-मन्त्र-हठ रूप तीन योग इस उपनिषद् में स्वीकृत हुए हैं)।
(सांख्य-योग दर्शन)
लिंग
लिंग शब्द सांख्ययोग में पदार्थविशेष के नाम के रूप में तथा वस्तुधर्म विशेष के वाचक के रूप में प्रयुक्त होता है। 'जिसका लय होता है वह लिंग है'। इस दृष्टि से महदादि सभी व्यक्त पदार्थों को लिंग कहा गया है (सांख्याका. 10 की टीकायें)। इसी प्रकार जो ज्ञापन करता है (लिंगयति ज्ञापयति) वह लिंग है। इस दृष्टि से भी बुद्धि आदि को लिंग कहा गया है, क्योंकि वे अपने-अपने कारण के ज्ञापक होते हैं (बुद्धि आदि अपने स्वभाव के द्वारा अपने उपादान के स्वरूप को ज्ञापित करते हैं)। कभी-कभी लिंग शब्द केवल बुद्धि के लिए और कभी-कभी बुद्धि-अहंकार-मन रूप अन्तःकरण-त्रय के लिए प्रयुक्त होता है।
लिंग सम्बन्धी एक विशेष कथन सांख्यकारिका 20 में मिलता है। वाचस्पति आदि व्याख्याकार कहते हैं कि महदादि-तन्मात्र-पर्यन्त समुदाय लिंग है जो चेतन पुरुष के सान्निध्य से चेतन की तरह होता है। ज्ञातृत्व और कर्तृत्व इस लिंग में आश्रित रहते हैं। वस्तुतः ज्ञातृत्व पुरुष का है और त्रैगुणिक लिंग का वास्तव कर्तृत्व उदासीन पुरुष में उपचरित होता है।
(सांख्य-योग दर्शन)
लिंगपरिणाम
योगसूत्र में गुणों के जो चार पर्व कहे गए हैं, लिंगरूप परिणाम उनमें से एक है (योगसू. 2/19)। यह लिंग महत्तत्त्व या बुद्धि भी कहलाता है जो त्रिगुण का प्रथम विकार है। (लिंग के उपादानभूत त्रिगुण अलिंग कहलाते हैं)। महत् को लिंग (= व्यंजक चिह्न) कहना साभिप्राय है क्योंकि व्यक्त महत् में पुरुष और प्रकृति दोनों का लिंग है - इसमें त्रिगुण का लिंग रूप जाड़्धर्म है तथा पुरुष का लिंग विषयप्रकाशन-सामर्थ्य है। इस लिंग में व्यक्तता की पराकाष्ठा है और यह अहंकार का साक्षात उपादान है। यह लिंग ही व्यावहारिक आत्मा है।
(सांख्य-योग दर्शन)
लिंगसर्ग
इस सर्ग का उल्लेख सां. का. 52 में मिलता है। व्याख्याकार वाचस्पति ने लिंगसर्ग को तन्मात्रसर्ग कहा है। सामान्यतया 'लिंग' शब्द सूक्ष्मशरीर का वाचक है, पर प्रस्तुत स्थल में लिंगसर्ग को तन्मात्रसर्ग के अर्थ में लेना युक्तिसंगत है - ऐसा विभिन्न टीकाकारों ने कहा है। किसी-किसी व्याख्या के अनुसार महत् आदि तत्त्वों का सर्ग 'लिंगसर्ग' है।