ध्रुव आदि के समान जिन्हें ब्रह्मादि लोक का अधिकार प्राप्त हो, वे आधिकारिक कहे जाते हैं तथा उन्हें प्राप्त होने वाला फल आधिकारिक फल है। भगवान् अपने मर्यादा पुष्टि भक्त को आधिकारिक फल और अधिकार भी प्रदान नहीं करते हैं, क्योंकि अधिकार और आधिकारिक फल दोनों ही पतनशील हैं। अर्थात् इसकी अवधि पूरी होने के अनन्तर पुनः इस लोक में पतन निश्चित है (अ.भा.पृ. 1233)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
आधिकारिक रूप
भगवान् द्वारा देशकाल भेद से अनेक रूप धारण कर अनेक प्रकार की लीलायें की जाती हैं। उनमें जिस-जिस लीला में जो भक्त अधिकृत होते हैं, उनके भी उतने ही रूप होते हैं, जितने भगवान के। भगवान द्वारा प्रदत्त भक्त के वे रूप आधिकारिक रूप हैं (अ.भा.पृ. 1424)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
आयाम शब्द
आत्मा के व्यापकत्व का बोध कराने वाला श्रुति वाक्य आयाम शब्द है। जैसे - `आकाशवत् सर्वगतश्च नित्यः, ज्यायान् दिवो ज्यायान् आकाशात् वृक्ष इव स्तब्धो दिवि तिष्ठत्येक स्तेनेदं पूर्णं पुरुषेण सर्वम्` इत्यादि श्रुतिवाक्य आत्मा के व्यापकत्व को बताने वाले हैं, अतः ये वाक्य आयाम शब्द हैं (अ.भा.पृ. 968)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
आर्थक्रम
प्रयोजन वश स्वीकार किया गया क्रम आर्थक्रम है। जैसे `अग्निहोत्रजुहोति` का पाठ पहले होने पर भी बाद में पठित `यवागूं पचति`। इस वाक्य द्वारा विहित यवागू पाक ही पूर्व में अनुष्ठित होता है। क्योंकि पहले अग्निहोत्र हो चुकने पर यवागू का पाक निरर्थक हो जाएगा। इसी प्रकार `दृष्टव्यः श्रोत व्यः` इस वाक्य में भी शब्द क्रम का परित्याग कर आर्थक्रम द्वारा श्रवण का ही प्रथम अनुष्ठान होता है और दर्शन का बाद में (अ.भा.पृ. 1262)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
आलय
वल्लभ सम्प्रदाय के अनुसार आलय शब्द का प्रयोग दो अर्थों में किया गया है - एक भगवान् के अर्थ में और दूसरा भागवत रस के अर्थ में। क्योंकि भगवान् समस्त जगत के आधारभूत हैं तथा समस्त प्रपंच के लय के हेतुभूत हैं, इसलिए वे आलय हैं। एवं लय अर्थात् मोक्ष भी जिसकी तुलना में 'आ' अर्थात् 'ईषत', (अल्प) है, वह भागवत रस भी आलय है (भा.सु. 11 टी.पृ. 48)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
आसक्ति
पुष्टिमार्ग में आसक्ति एक प्रकार का भगवद्विषयक भाव है। इसके आविर्भूत होने पर भक्त के हृदय में भगवत् संबंध से रहित सभी गृहसम्बन्धी विषय बाधक हैं - ऐसा भासित होने लगता है (प्र.र.पृ. 125)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
आसीन
भक्त के समक्ष भगवान् का प्रकट होना आसीन होना है। आदित्य आदि देवताओं की उपासना उन्हें भगवान का अंग समझ कर करने से ही भक्त के प्रति भगवान् को उत्कट स्नेह होना संभव है और तभी भगवान् उस उपासक के समक्ष आसीन अर्थात् प्रकट होते हैं। इसके विपरीत ज्ञानमार्गियों के प्रति भगवान् का ऐसा स्नेह नहीं होने से भगवान् उसके लिए परोक्ष ज्ञान के ही विषय होते हैं, प्रकट नहीं होते (अ.भा.पृ. 1281)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
इज्यज्ञान
ब्रह्म का यजनीय रूप में ज्ञान होना इज्यज्ञान है। ब्रह्म यज्ञ में ब्रह्म ही यजनीय (जिसको उद्देश्य कर यज्ञ किया जाए) देवता है और यजनीय ब्रह्म का ज्ञान उस ब्रह्म यज्ञ का पूर्ववर्ती अंग है। ऐसी स्थिति में ब्रह्म उस यज्ञ का शेषभूत अंग होगा। जिसका ज्ञान जिस यागका पूर्वांग होता है, वह उस भाग का शेष कहा जाता है, यह नियम है। अतः ब्रह्म ब्रह्मयज्ञ का शेष होगा। किन्तु सिद्धांत पक्ष में ब्रह्म किसी का भी शेष (अङ्ग) नहीं है (अ.भा.पृ. 1180)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
उत्क्रमण
मृत्यु के उपरांत इस लोक का परित्याग कर जीव का अपने कर्म के अनुसार चन्द्रलोक, सूर्यलोक या ब्रह्मलोक आदि में जाना श्रुतियों में उत्क्रमण शब्द से कहा गया हैं। उत्क्रांति भी यही है। उत्क्रमण करता हुआ जीव पूर्व से प्राप्त प्राण इन्द्रिय आदि के साथ ही उत्क्रमण करता है। इसमें श्रुति प्रमाण है (अ.भा.पृ. 471)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
उद्गाता
गान द्वारा वागिन्द्रिय निमित्तक भोग (सुख विशेष) को देवों तक प्राप्त कराने वाला तथा शास्त्रानुसारी कल्याण को गान द्वारा अपने में प्राप्त कराने वाला उद्गाता कहा जाता है एवं गान द्वारा देवों को सुख तथा अपने को कल्याण प्राप्त कराना उद्गान है (अ.भा.पृ. 680)।