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Definitional Dictionary of Indian Philosophy Vol.-II

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अनुग्रह
नित्यमुक्त एवं परमगुरू ईश्वर के विषय में योगियों की एक मान्यता यह है कि उनका कुछ प्रयोजन न रहने पर भी (अपने लिए कुछ प्राप्तव्य न रहने पर भी) भूतों के प्रति उनका अनुग्रह होता है, जिसके कारण वे कुछ विशेष कालों में (जैसे कल्पप्रलय और महाप्रलय में) निर्माणचित्त का आश्रय करके ज्ञानधर्म अर्थात् मोक्षविद्या का उपदेश करते हैं (व्यासभाष्य 1/25)। योगियों का कहना है कि यह अनुग्रह प्राणियों के अधिकार के अनुसार ही होता है (ईश्वर से प्रापणीय विवेकज्ञान उस ज्ञान के अधिकारी को ही मिलता है); सभी प्रक्रर के प्राणियों के प्रति विवेकज्ञान का उपदेश समानरूप से नहीं किया जाता। नित्यमुक्त ईश्वर से विवेकज्ञान के अतिरिक्त कुछ प्राप्तव्य भी नहीं है। चित्त के स्वभाव के अनुसार ही इस अनुग्रह का स्वरूप जानना चाहिए।
(सांख्य-योग दर्शन)

अनुमान
सांख्यकारिका (5) तथा सांख्यसूत्र (1/100) में अनुमान का स्वरूप बताया गया है। लिङ्ग-लिङ्गी-पूर्वक जो ज्ञान है (अर्थात् लिङ्ग-लिङ्गी के ज्ञान से उत्पन्न हुआ जो ज्ञान) वह अनुमान है। इसकी व्याख्या में वाचस्पति ने कहा है कि 'व्याप्ति' (व्याप्य-व्यापक-भाव) तथा पक्षधर्मता (लिङ्ग का पक्ष में रहना) के आधार पर अप्रत्यक्ष विषय का जो निश्चय होता है, वह अनुमान है। उदाहरणार्थ, पर्वत में धूम देखकर 'जहाँ' जहाँ धूम है वहाँ वहाँ अग्नि हैं इस व्याप्ति का स्मरण होने पर पर्वत में अप्रत्यक्ष अग्नि का जो निश्चय है वह अनुमान है। वाचस्पति ने इस प्रसंग में व्याप्ति के निर्दोष तथा सदोष रूप (उपाधियुक्त होना) की चर्चा की है - जिसका विशद विवेचन न्यायशास्त्र में मिलता है। उपर्युक्त 'लिङ्ग-लिङ्गीपूर्वक' शब्द में लिङ्ग=लिङ्ज्ञान तथा लिङ्गी=लिङ्गी का ज्ञान - ऐसा समझना चाहिए।
कुछ व्याख्याकारों ने 'लिङ्ग-लिङ्ग-पूर्वक' की व्याख्या अन्य प्रकार से की है। उनके अनुसार इसका अर्थ है - कभी-कभी लिङ्गपूर्वक लिङ्गी (लिङ्गयुक्त) का ज्ञान होता है, जैसे हाथ में त्रिदण्ड को देखकर यह ज्ञान होता है कि यह व्यक्ति संन्यासी है। इसी प्रकार लिङ्गी-पूर्वक लिङ्ग का ज्ञान होता है, जैसे संन्यासी के समीप पड़े त्रिदण्ड को देखकर यह ज्ञान होता है कि यह त्रिदण्ड संन्यासी का है (क्योंकि संन्यासी ही त्रिदण्डधारण करते हैं)। लिङ्ग-लिङ्गी का जो सम्बन्ध है, वह सात प्रकार का है जिसके आधार पर कहा जाता है कि 'सांख्य सात प्रकार की अनुमिति मानता है' (द्र. जयमङ्गला आदि)।
अनुमान रूप चित्तवृत्ति का पुरुष के साथ जो सम्बन्ध है (जो तात्त्विक नहीं है), वह प्रमाणफलरूप प्रमा है - यह ज्ञातव्य है।
योगसूत्र के व्यासभाष्य (1/7) में यह कहा गया है कि अनुमान में वस्तु का प्रधानतः सामान्य ज्ञान ही होता है - विशेष धर्मों का ज्ञान नहीं, यद्यपि जिस वस्तु का ज्ञान होता है उसमें सामान्य और विशेष दोनों प्रकार के धर्म रहते हैं। यहाँ अनुमान का स्वरूप इस प्रकार दिखाया गया है (सांख्यकारिकोक्त मत से वस्तुतः कोई भिन्नता या विरोध नहीं है) जो संबद्ध पदार्थ (जैसे धूम रूप हेतु) अनुमेय पदार्थों की तुल्यजातीय वस्तुओं में विद्यमान रहता है (जैसे पाकशाला आदि में जहाँ धूम भी है और वह्नि भी है) तथा भिन्नजातीय वस्तु में नहीं रहता है (जैसे हृद आदि में जहाँ वह्नि भी नहीं है, धूम भी नही है), उसका आश्रय करके अप्रत्यक्ष विषय में जो चित्तवृत्ति रूप ज्ञान उत्पन्न होता है, वह अनुमान है।
अनुमान के तीन भेद माने गए हैं - पूर्ववत, शेषवत् और सामान्यतोदृष्ट (द्र. सांख्यकारिका 5) (विस्तार 'पूर्ववत्' आदि प्रविष्टियों के अंतर्गत देखें।)
(सांख्य-योग दर्शन)

अनुशासन
योगसूत्र का प्रथम सूत्र है - अथ योगानुशासनम्। विधि, उपदेश, शास्त्र अथवा इस प्रकार के अन्य किसी शब्द का प्रयोग न करके जो 'अनुशासन' शब्द का प्रयोग किया गया है, उसका एक विशिष्ट उद्देश्य है। व्याख्याकार कहते हैं कि अनुशासन का अर्थ है -'शिष्टस्य शासनम्' - जो पहले से ही प्रतिपादित हुआ था (अतः जो पूर्वाचार्यों को सम्यक् ज्ञात था), उसका पुनः प्रतिपादन 'अनुशासन' है। यह कहना साभिप्राय है, क्योंकि योगसूत्रकार पंतजलि यह बताना चाहते हैं कि उनके द्वारा प्रतिपादित मतों के आविष्कर्ता वे नहीं हैं; सभी मत पूर्णतया पूर्वाचार्यों को ज्ञात थे और वे उन मतों का नूतन रूप से प्रतिपादन-मात्र कर रहे हैं, जिससे उनके काल के लोगों को योगविद्या समझने में सुविधा हो। जहाँ तक सिद्धान्तों का प्रश्न है, किसी भी आचार्य की कुछ भी मौलिकता नहीं है - समझाने की पद्धति में ही मौलिकता है। योगसूत्र से पहले इसके आधारभूत हिरण्यगर्भयोगशास्त्र प्रचलित था - यह भी व्याख्याकारों ने कहा है। यह बात काल्पनिक नहीं है, क्योंकि इस शास्त्र के वचन कई प्राचीन ग्रन्थों में उद्धृत हुए हैं।
(सांख्य-योग दर्शन)

अन्योन्य-अभिभव
त्रिगुण के जो चार व्यापार हैं, उनमें अन्योन्यअभिभव एक है (सांख्यकारिका 12; कोई-कोई पाँच व्यापार मानते हैं; द्र. जयमङ्गला आदि टीकायें)। प्रत्येक परिणाम में तीन गुण मिले रहते हैं और जो अधिक बलशाली होता है, वह अन्य दो को स्वभावतः अभिभूत करता है। अभिभूत दो गुण प्रधान गुण का अनुसरण करते हुए विद्यमान रहते हैं - विरुद्धाचरण नहीं करते। इस अभिभाव्य-अभिभावक-स्वभाव के कारण ही जागृत के बाद स्वप्न और निद्रा अवस्था आती हैं तथा सुख के बाद दुःख और मोह होते हैं। व्यक्तावस्था में सत्त्वादिगुण विषम-अवस्था में ही रहते हैं; इस वैषम्य का अर्थ ही है - किसी एक गुण का प्राधान्य और अन्य दो का अप्राधान्य। प्रधान गुण अप्रधानों का अभिभव करके ही अपना व्यापार करता है।
(सांख्य-योग दर्शन)

अन्योन्यजननवृत्ति
गुणत्रय की जिन चार वृत्तियों (व्यापारों) का उल्लेख सांख्यशास्त्र में है (द्रं. सां. का. 12) उनमें यह अन्यतम है। जनन का अर्थ यद्यपि उत्पत्ति है, तथापि अन्योन्य-जनन का अर्थ तीन गुणों का एक-दूसरे से उत्पत्ति नहीं हो सकता, क्योंकि सत्त्वादिगुण किसी से उत्पन्न नहीं होते; वे अहेतुमान हैं। अन्योन्यजनन का अर्थ है - परिणाम के उत्पादन में एक-दूसरे का सहायक होना। अन्य दो गुणों की सहायता के बिना कोई भी एक गुण किसी भी परिणाम को उत्पन्न नहीं कर सकता। सांख्यशास्त्र में गुणों की एक वृत्ति 'अन्योन्याश्रय' भी है। 'अन्योन्याश्रय' से 'अन्योन्यजनन' का भेद दिखाने के लिए कोई-कोई व्याख्याकार यह कहते हैं कि 'अन्योन्यजनन' वृत्ति का सम्बन्ध 'सदृशपरिणाम' से है। यह परिणाम गुणसाम्यावस्था में होता है। इस परिणाम के होने पर भी त्रिगुण हेतुमान नहीं हो जाते, क्योंकि यह सदृश परिणाम प्रकृति ही है। विसदृश-परिणाम का ही वस्तुतः हेतु होता है, सदृश-परिणाम का नहीं। अन्योन्यजनन की अन्य व्याख्या भी है (द्र. माहरहन्ति)।
(सांख्य-योग दर्शन)

अन्योन्याश्रयवृत्ति
गुणत्रय के स्वाभाविक व्यापारों में यह अन्यतम है। प्रत्येक गुण दूसरे का आश्रय करके ही अपना कार्य निष्पन्न करता है - यही गुणों की अन्योन्याश्रयवृत्ति है। उदाहरणार्थ सत्त्वगुण रजोगुण की प्रवृत्ति और तमोगुण के नियमन रूप स्वभाव का आश्रय करके ही प्रकाशन रूप कार्य करता है। इसी प्रकार रजोगुण भी प्रकाश और नियमन का आश्रय करके प्रवर्तन रूप अपना कार्य करता है; तमोगुण भी प्रकाश और प्रवृत्ति का आश्रय करके अपना नियमन रूप कार्य करता है। इसी दृष्टि से कहा जाता है कि एक गुण अन्य गुण के सहकारी के रूप से कार्य करता है। व्यासभाष्य (2/18) के 'इतरेतराश्रयेण उपार्जितमूर्तयः' वाक्य में गुणों का यह स्वभाव दिखाया गया है। यही कारण है कि केवल सात्त्विक या केवल राजस या केवल तामस कोई वस्तु हो ही ही नहीं सकती।
यह ध्यान देना चाहिए कि गुणों का गुणों के अतिरिक्त अन्य कोई आश्रय नहीं है। गुण अपने मूलस्वरूप में किसी पर आश्रित और प्रतिष्ठित नहीं हैं - यह सांख्यीय दृष्टि है। व्यक्तिभूत त्रिगुण चिद्रूप-पुरुष में आश्रित है - यह कहना संगत ही है। गुणों में आधार-आधेय भाव भी वस्तुतः नहीं है, यद्यपि परस्पर अपेक्षा है।
(सांख्य-योग दर्शन)

अन्वय
भूतजय एवं इन्द्रियजय करने के लिए भूत एवं इन्द्रिय के जिन पाँच रूपों में संयम करना पड़ता है, उनमें चतुर्थ रूप अन्वय है। इस अन्वय में संयम करने पर ईशितृत्व (या ईशिता) नामक सिद्धि होती है। जब सत्त्वादि त्रिगुण (जो यथाक्रम प्रकाश-क्रिया-स्थितिशील हैं) कार्यपदार्थों के स्वभाव के अनुपाती होते हैं, तब गुण के उस रूप को 'अन्वय' कहा जाता है। सभी कार्यद्रव्य त्रिगुण-सन्निवेश के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। यह 'सन्निवेशित होने' की अवस्था ही अन्वय है। प्रकाशक्रिया स्थितिशील त्रिगुण जब 'व्यवसाय' रूप का परिग्रह करते हैं, तब वह (इन्द्रिय के प्रसंग में) अन्वय रूप है। यह व्यवसायात्मक रूप इन्द्रिय, मन और अहंकार का उपादान है। द्र. भोगसूत्र 3/44, 3/47।
(सांख्य-योग दर्शन)

अपरान्तज्ञान
अपरान्त (अपर+अन्त) का अर्थ है जीवन की अन्तिम अवस्था, अर्थात् मृत्यु। मृत्यु कब होगी - इसका ज्ञान (योगज ज्ञान) सोपक्रम (स-व्यापार) एवं निरुपक्रम कर्म में संयम करने पर होता है (योगसूत्र 3/22)।
(सांख्य-योग दर्शन)

अपरिग्रह
द्रव्यों का अपने उपयोग के लिए ग्रहण करना परिग्रह है। ऐसा ग्रहण न करना अपरिग्रह है। वस्तुतः प्राणयात्रा के लिए आवश्यक वस्तुओं से अधिक वस्तुओं का ग्रहण न करना अपरिग्रह है। व्यासभाष्य (2/30) में कहा गया है कि विषयों का दोष देखकर उनको अस्वीकार करना (विषयों का स्वामी बनने की इच्छा का रोध करना) अपरिग्रह है। यह दोष विषयों के अर्जन, रक्षण, क्षय, संग तथा हिंसा में है। (इनमें अर्जनादि चार विषयग्रहीता से सम्बन्धित हैं; हिंसादोष, प्रधानतः विषयप्रदाता आदि से सम्बन्धित है)। अपरिग्रह में सम्यक् स्थैर्य होने पर जन्मकथन्तासम्बोध (विषय ज्ञाता एवं विषयों की पूर्वापरस्थिति का ज्ञान) होता है (योगसूत्र 2/39)।
(सांख्य-योग दर्शन)

अपरिदृष्ट धर्म
चित्तरूप धर्मी चक्र के धर्म दो प्रकार के हैं - परिदृष्ट और अपरिदृष्ट (वे धर्म जो लक्षित नहीं होते हैं)। अपरिदृष्ट धर्म सात हैं (योगसू. 3/15, व्यासभाष्य): (1) निरोध (=वृत्ति निरोध या निरोध समाधि), (2) धर्म (=पुण्य -अपुण्य अथवा अदृष्ट), (3) संस्कार (=वासनारूप संस्कार जिसका कार्य स्मृति है), (4) परिणाम (=चित्त का अलक्षित परिणाम), (5) जीवन (=प्राणधारण -रूप व्यापार जो प्राणी की इच्छा के आधीन नहीं है), (6) चेष्टा (=इन्द्रिय -चालित चित्तचेष्टा), (7) शक्ति (=वह अज्ञात सामर्थ्य जिससे कोई दृष्ट व्यापार निष्पन्न होता है; व्यक्त क्रिया या चेष्टा की सूक्ष्म अवस्था)। जिन अनुमानों से इन अपरिदृष्ट (=अलक्षित) पदार्थों की सत्ता सिद्ध होती है, उनको व्याख्याकारों ने दिखाया है। किसी-किसी का कहना है कि इन धर्मों की व्यासभाष्य में जो 'अनुमान गम्य' माना गया है, वहाँ अनुमान का तात्पर्य आगम से है, अर्थात् आगम (शास्त्र) से ही इन अपरिदृष्ट धर्मों की सत्ता सिद्ध होती है।
(सांख्य-योग दर्शन)


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