दृश्य को भोगापवर्गार्थ माना गया है (योगसूत्र 1/18) - भोग और अपवर्ग जिसके प्रयोजन हैं - वह भोगापवर्गार्थ हैं। यह अर्थ या पुरुषार्थ रूप अपवर्ग कैवल्य-मोक्ष नहीं है। चित्त से भिन्न अपरिणामी दृष्टा पुरुष है - इस प्रकार का अवधारण (निश्चय) अपवर्ग है। यह एक प्रकार का ज्ञान है जैसा कि व्यासभाष्य में कहा गया है - भोक्ता का स्वरूप-अवधारण या दृष्टा की स्वरू -उपलब्धि अपवर्ग है (2/18, 23)। भोग एवं अपवर्ग दोनों बुद्धिस्थ, बुद्धिकृत हैं; दोनों अनादि भी हैं। भोग की समाप्ति अपवर्ग में और इन दोनों की समाप्ति कैवल्यावस्था में होती है। कैवल्य में चित्तवृत्तिरूप ज्ञान नहीं रहता, अतः पुरुषावधारण रूप ज्ञान (अपवर्ग) भी कैवल्य में नहीं रहता। अपवर्ग (पुरुषस्वरूपावधारण) होने पर कुछ प्राप्तव्य नहीं रह जाता। चूंकि पुरुषावधारण के बाद कुछ करणीय नहीं रहता, सभी फलों का त्याग हो जाता है, अतः यह अपवर्ग (अप+वृज् धातु; यह धातु वर्जनार्थक है) कहलाता है। अपवर्ग सिद्ध होने पर कैवल्य होता है।
(सांख्य-योग दर्शन)
अपान
पंच प्राणों में से एक (प्राण वायु-विशेष या हवा नहीं है; इसको आज की भाषा में देहधारण-शक्ति कहा जा सकता है)। अपान का मुख्य स्थान वायु और उपस्थ है। वस्तु मल का अपनयन जिन शरीर-यंत्रों की क्रिया से अथवा जिन शरीरावयवों के माध्यम से होता है, वे सब अपान का स्थान हैं। जीर्ण खाद्य से मलांश को पृथक् करना मात्र अपान का व्यापार है; उस मल को शरीर से पृथक् निक्षिप्त करना वायु का व्यापार है - यह विवेक करना चाहिए। वायु के व्यापार में अपान सहायक है।
(सांख्य-योग दर्शन)
अप्रकृति-अविकृति
सांख्यकारिका (3) में पुरुष को 'अप्रकृति-अविकृति' कहा जाता है। पुरुष निष्क्रिय एवं अपरिणामी होने के कारण किसी का कारण (उपादान) नहीं है, अतः वह अप्रकृति है। निरवयव एवं असंहत होने के कारण पुरुष किसी का कार्य (विकार) भी नहीं है, अतः वह अविकृति है। पुरुष यद्यपि अप्रकृति है, पर वह बुद्धि आदि की व्यक्तता का निमित्त कारण है - यह ज्ञातव्य है। पुरुष को अप्रकृति कहने से यह ध्वनित होता है कि सांख्यीय दृष्टि में शुद्ध चेतन वस्तु जगत् का उपादान नहीं है।
(सांख्य-योग दर्शन)
अभाव
सांख्ययोग चूंकि सत्कार्यवाद का प्रतिपादक है, इसलिए इस शास्त्र की दृष्टि में अभाव का अर्थ अस्तित्वहीनता न होकर अवस्थान्तरता है। त्रिगुण-परिणामभूत वस्तु निरन्तर परिणत होती रहती है अर्थात् एक अवस्था से दूसरी अवस्था में - स्थूल से सूक्ष्म में एवं सूक्ष्म से पुनः स्थूल अवस्था में - परिणत होती रहती है। मिट्टी जब घटाकार-अवस्था में है तब उसमें पिण्डाकार का अभाव है अर्थात् पिण्डाकार अतीत अवस्था में है। उसी प्रकार जब चित्त में क्रोध है तब रागधर्म का अभाव है - वह धर्म अनागत अवस्था में है, क्योंकि बाद में चित्त में रागधर्म आविर्भूत हो सकता है। इस दृष्टि से दुःखाभाव का अर्थ होगा - सदा के लिए दुःख की अव्यक्तावस्था-प्राप्ति। द्र. योगसूत्र 4/12 की टीकाएँ।
(सांख्य-योग दर्शन)
अभावप्रत्यय
निद्रारूप वृत्ति के लक्षण में यह शब्द योगसूत्र (1/10) में प्रयुक्त हुआ है। प्रायः सभी व्याख्याकार प्रत्यय को कारण (हेतु) का वाचक समझते हैं। अतः अभावप्रत्यय का अर्थ होता है - अभाव का हेतु। निद्रा के प्रसंग में जाग्रतावस्था एवं स्वप्नावस्था का अभाव ही इस अभाव शब्द से लिया जाता है। तमः विशेष (सत्त्व-रजः का आच्छादक भाव-विशेष) के आविर्भाव से जाग्रत और स्वप्नावस्था नष्ट हो जाती है और सुषुप्ति अवस्था आती है, अतः यह तमः विशेष ही अभावप्रत्यय है।
(सांख्य-योग दर्शन)
अभिनिवेश
पाँच प्रकार के क्लेशों में अभिनिवेश एक है। इसका स्वरूप है मरणभय - ऐसा प्रायः कहा जाता है (द्र. योगसूत्र 2/9 की टीकाएँ)। यह भय स्वभावतः किसी हेतु के बिना - वासनावश सभी प्रकार के प्राणियों में विद्यमान रहता है और प्राणी को क्लिष्ट करता रहता है। व्याख्याकारगण कहते हैं कि इस मरणभय (नामान्तर 'आत्माशी': द्र. तत्ववै.) से अनुमित होता है कि प्राणी का पूर्वजन्म था (पहले कभी प्राणी जन्म लेकर मृत हुआ था)। यह मरण -भयरूप क्लेश श्रवण-मनन-जात प्रज्ञा से युक्त व्यक्तियों में भी रहता है - आत्म-साक्षात्कारी में नहीं रहता। कुछ व्याख्याकार कहते हैं कि मरणभय अभिनिवेश क्लेश का एक उत्कृष्ट उदाहरणमात्र है; वस्तुतः भयमात्र अभिनिवेश है। (कोई कहते हैं कि सुखदुःखः, विवेकहीन मोहविशेष अभिनिवेश है)। अभिनिवेश अज्ञानमूलक है, क्योंकि आत्मभाव का ध्वंस या परिणाम नहीं हो सकता।
(सांख्य-योग दर्शन)
अभिमान
विभिन्न विषयों के साथ संपर्क होने के कारण 'अहम्' (महत्तत्त्व) का जो विकारी रूप होता है, वह 'अहंकार' कहलाता है और इस अहंकार का धर्म अभिमान है। यह अभिमान मुख्यतः दो प्रकार का है। अहन्ता (शरीरादि में) और ममता (धनादि में) ही ये दो प्रकार हैं। यह अहंकार रजः प्रधान है। (द्र. अहंकारशब्द)।
(सांख्य-योग दर्शन)
अभ्यास
वह यत्न या चेष्टा जो 'स्थिति' के लिए की जाती है। अभ्यास को चित्तवृत्तिनिरोध का एक उपाय माना गया है (योगसू. 1/12)। योग के संदर्भ में 'स्थिति' का अर्थ है - चित्त की प्रशान्तवाहिता (योगसू. 1/13)। सात्विक एकाग्रता प्रशान्तवाहिता है; हर्ष-शोक आदि तरंग के न रहने के कारण ही 'प्रशान्तवाहिता' शब्द का प्रयोग किया गया है। वृत्तिरहित चित्त का जो स्वरूपनिष्ठ परिणाम है, वह स्थिति है - ऐसा भी कोई-कोई कहते हैं। यह वस्तुतः पूर्वोक्त सत्त्वप्रधान एकाग्रता का चरम रूप है और इस दृष्टि से चित्त-निरोघ का सभंग-प्रवाह (निरोध का बारबार उदित होते रहना) ही प्रशान्तवाहिता है। यह अभ्यास क्रमशः दृढ़ होता रहता है। दीर्घकाल तक श्रद्धापूर्वक निरन्तर चेष्टा करते रहने का अभ्यास दृढ़ हो जाता है। इस प्रकार का अभ्यास 'दृढ़भूमि' कहलाता है (योगसू. 1/14)। अभ्यास का क्षेत्र बहुत बड़ा है। योगसूत्रोक्त सभी परिकर्म (मैत्र्यादिभावना) तथा एकतत्त्वाम्यास (1/32) अभ्यास के ही अन्तर्गत हैं।
(सांख्य-योग दर्शन)
अरिष्ट
आसन्न मृत्यु के ज्ञापक चिह्न को 'अरिष्ट' कहते हैं। इन चिह्नों का विवरण योगग्रन्थों के अतिरिक्त इतिहास -पुराण के योगपरक अध्यायों में (यथा वायुपुराण, अ. 19) तथा आयुर्वेद के ग्रन्थों में (द्र. सुश्रुत सूत्रस्थान) भी मिलता है। योगियों के लिए ये चिह्न मृत्यु के सर्वथा निश्चायक होते हैं, पर साधारण जन के लिए ये मृत्यु-सम्बन्धी प्रबल संभावना बुद्धि के जनक होते हैं।
अरिष्टों को तीन भागों में बाँटा गया है - (1) आध्यात्मिक (अर्थात् दैहिक एवं मानसिक विकार) जैसे - कान बंद करने पर शरीरगत शब्द न सुनना, आँखों के दबाने पर ज्योति का न दीखना, दीप के बुझने पर उसका गन्ध न पाना, स्वप्न में स्वमलमूत्रवमन का दर्शन, अरुन्धती नक्षत्र को न देख सकना, आदि; (2) आधिदैविक (=अमानुष सत्त्वादि का दर्शन), जैसे - अकस्मात् स्वर्ग का दर्शन, आकाश में इन्द्रजाल की तरह गन्धर्वनगर का दर्शन आदि; (3) आधिभौतिक, जैसे - मरे हुए पितरों को देखना, स्वप्न में महिषारोहण का दर्शन, मस्तक में कपोत, काक, पेचक का गिरना। किसी-किसी के अनुसार 'विपरीतदर्शन' (अर्थात् प्राकृतिक नियम के अनुसार जिसको जैसा होना चाहिए, उसको उससे विपरीत रूप से देखना) ही आधिदैविक है। अन्य आचार्य कहते हैं कि अरिष्टदर्शन का स्वरूप ही है - विपरीत-दर्शन। स्वप्न भविष्यत् अर्थ का सूचक है - यह मत प्रायः सभी दर्शनों को अनुमत है।
(सांख्य-योग दर्शन)
अर्थभावन
अर्थभावन का सम्बन्ध जप से है। जप्य मन्त्र (प्रणव अर्थात् ओंकार प्रधान जप्य मन्त्र है) का जिस अर्थ में संकेत किया गया है (पूर्व-पूर्व आचार्यों के द्वारा) उस अर्थ का स्मरण करना तथा चित्त में उसका निवेशन करना अर्थभावन है। प्रणव मन्त्र अनादि, मुक्त ईश्वर के लिए संकेतित हुआ है। अतः योगशास्त्र में अर्थभावन से प्रणवार्थभावन (उपर्युक्त पद्धति के अनुसार) लिया जाता है। यह अर्थभावन स्वाध्यायरूप योगांग के अन्तर्गत है। इस भावन से साधक प्रत्यक् चेतन का अधिगम करने में समर्थ होता है (द्र. योगसूत्र 1/28 -29)।